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जन्माष्टमी के आसपास राधाकृष्ण (2)
12-Aug-2020 10:29 PM
जन्माष्टमी के आसपास राधाकृष्ण (2)

Radha Krishna Painting by Madhurima Nag

-मनोज श्रीवास्तव

वे राधा ही बस गईं वृंदावन में जो कभी कदंब के तने से टिककर खड़े कृष्‍ण को कभी यहां और कभी वहां देखने का भरम पाले रखीं। गोकुलनाथ गौवंश को छोड़कर चल दिये। वे जो ‘गो’ ही को अपना ‘कुल’ मानते थे, अब द्वारिकेश हैं। लेकिन न वह धेनु है और न वह वेणु है उनके पास, जिनकी ईश्‍वरी हुआ करती थीं राधा । वही रह गयीं उन गायों के पास जिन्‍हें कृष्‍ण को घेरे रहने में जाने कैसी तृप्ति मिलती थी। वही रह गयीं उस यमुना के करीब जिसे जन्‍मने पर कृष्‍ण ने पांवों के स्‍पर्श से शांत कर दिया था किन्‍तु जो अब पछाड़ें खाती हुई कृष्‍ण को ढूंढती है। वे घनप्र‍िय, वे श्‍यामकंठ मोर जिनके पंखों को धारण करके ही कृष्‍ण इस अगजग के सम्राट लगते थे, अब राधा के हाथों से दुलराये जाते हैं जैसे वही इनकी वनदेवी है। कौन रह गया उस भूसर्ग के साथ ? उन तितलियों और जुगनुओं, उन भृंगों और वीरबहूटियों के साथ ? उन बत्‍तखों और हंसों, उन सारसों और टिटहरियों के साथ ? उन चातकों और चकोरों, उन हिरनों और गिलहरियों के साथ ? राधा ही न।जो शेष रह गईं तो जैसे अशेष हो गयीं। वे वाकई प्रकृति थीं। कभी ब्रम्‍हा कृष्‍ण का प्रभाव जानने के लिए सारे गौएं, बछड़े और ग्‍वालबाल चुरा ले गये थे और सर्वसृष्‍टा योगीन्‍द्र हरि ने योगमाया से पुन: सबकी सृष्टि कर उन्‍हें लज्जित कर दिया था। अब कृष्‍ण स्‍वयं ही जैसे इन गौओं, बछड़ों, ग्‍वालबालों की हँसी चुरा ले गये हैं और अब वे सब राधा से ही जैसे प्रार्थना करते हैं कि वही उनका नवसृजन करे।

ब्रह्मवैवर्त पुराण में उद्धव श्रीकृष्‍ण से उचित ही कहते हैं कि मैंने उस पुण्यमय वृन्‍दावन को भी देख लिया जो भारतवर्ष का साररूप है। उस का साररूप परमरणीय रासमण्‍डल है । उसकी सारभूता गोलोक वासिनी श्रेष्‍ठ गोपिकाएं हैं। उनकी सारभूता परात्‍परा रासेश्‍वरी राधा हैं।सो यह हुआ कि कृष्‍ण के हाथ महाभारत आया, लेकिन भारत की सारभूत राधा ही हुईं।कृष्ण ने देश बचाया,राधा ने देस।‘सार’ के इन रूपों को क्रमश: मथते चले जाने के बाद जो अंतिमत: उपलब्‍ध हुईं वे हैं राधा । उनके लिए यहां इस पुराण में दो शब्‍द हैं : परात्‍परा और रासेश्‍वरी।परात्‍पर’ की परिभाषा यों की गई है : ‘परात् श्रेष्‍ठादापि पर:’ कि जिसके परे या जिससे बढ़कर कोई दूसरा न हो। किन्‍तु यदि अर्थ यह है कि जिसके परे कोई दूसरा न हो, तब वही तो राधा की आत्‍मीयता का ही सर्वव्‍यापकत्‍व है। राधा जैसे एक समष्टि को सम्‍बोधित हैं। कृष्‍ण व्रज से निकलकर विश्‍व के हुए तो राधा जहां थीं वहीं विश्‍वात्मिका हो गईं। कृष्‍ण अपनी परात्‍परता में पराक्रमिन हुए तो राधा की परिपूर्ति भी परहितरता होने में हुई। राधा के इस पहलू को अयोध्‍यासिंह उपाध्‍याय ‘हरिऔध’ ने अपनी कृति ‘प्रिय प्रवास’ में पकड़ा।वहां राधा कृष्‍ण को विश्‍व के लिए उन्‍मुक्‍त करती हैं। लेकिन कृष्‍ण भी तो राधा को अपना कदंब और अपना कुंज, अपनी धेनु और अपना यमुनातट छोड़ के गये हैं। कृष्‍ण को राधा का उन्‍मोचन सम्‍भालना है, राधा को कृष्‍ण के बंधन। कृष्‍ण को राधा के द्वारा खोल दिया विश्‍वमंच सम्‍हालना है, राधा को कृष्‍ण की जीवित-जाग्रत कविताएं। राधा ने भी वह सीढ़ी पूरी तरह नहीं देखी जिस पर कृष्‍ण को चढ़ना था, लेकिन उसकी पहली पायदान तय करने के लिए कृष्‍ण को पहला कदम उठाने की अनुमति उन्‍होंने दे ही दी। कृष्‍ण ने कोई वायदा किया भी नहीं, राधा ने कोई वादा मांगा भी नहीं। कृष्‍ण को उनके कर्त्‍तव्‍य-पथ पर बढ़ने के लिए रासेश्‍वरी ने स्‍वतंत्र छोड़ दिया। रासेश्‍वरी परात्‍परा हो आईं।रासेश्‍वरी रसेश्‍वरी भी थी। रस नौ तरह के हैं। जीवन में आने जाने वाले कई तरह के रस हैं ।रस रास के विरोधी नहीं थे लेकिन उन्हें बहुत सी भूमियों को तय करना था। सिर्फ ब्रजभूमि पर नहीं इसलिए राधा भारतवर्ष की सारभूत हुईं, सिर्फ ब्रजभूमि की नहीं। पूरा जीवन ब्रज में लगाकर भी राधा भारत की ही निर्यूषा रहीं। भारत का सार।भारत का मकरंद ।भारत का मधु । उस भारत का मधु जो एक भौगोलिक क्षेत्र नहीं है उस भारत का जो नि:श्रेयस है। बृज को भारत से अविभक्‍त देखना, स्‍वयं को भारत से अखंड देखना – यह साधना राधा ने की थी। कृष्‍ण के अभ्‍युदय के लिए राधा को नि:श्रेयसी होना ही था।

शंकराचार्य ने कहा था कि अभ्‍युदय का फल धर्मज्ञान है और नि:श्रेयस का फल ब्रह्म ज्ञान इसी कारण ब्रज में रहकर ही वह लोकसंग्रह कर लेती हैं। ब्रह्म को जानने वाला ब्रह्म ही हो जाता है । इसलिए राधा को वह हैसियत प्राप्‍त हुई। इसलिए राधा कृष्‍ण से कहीं अलग नहीं हैं। इसलिए वे भारत की सारभूता हैं क्‍योंकि भारत मनुष्‍य को और प्रकृति को कभी भी ईश्‍वर से अलग नहीं देखता। वे लोग जो कभी अपनी जन्‍मभूमि से अलग नहीं हुए, वहीं रह गये – उनमें राधा-तत्‍व है। वे जो बाहर निकल गये, जिन्‍होंने दुनिया की सैर कर ली अपने कर्म और कर्त्‍तव्‍य के लिए उनमें कृष्‍ण-तत्‍व है। लेकिन हैं ये दोनों एक ही। हैं राधा और कृष्‍ण दोनों ही परदु:खकातर, दोनों ही सुश्रवा हैं,दोनों ही नैष्ठिक। राधा किंचित् अंतर्मुखी हैं, कृष्‍ण किंचित बहिर्मुखी। लेकिन राधा की अंतमर्नस्‍कता ऐसी नहीं है कि कृष्‍ण के तैजस का लाभ विश्‍व को न मिले और न कृष्‍ण की बहिर्मनस्‍कता ऐसी है कि राधा की अंतर्लीनता का आदर न करे।दोनों में वह अनुदात्‍तता कहीं नहीं है।

प्रेम के लिए दुनिया को ठुकराने का भी एक सौंदर्य है। किंग एडवर्ड अष्‍टम ने श्रीमती वालिसवारफील्‍ड (सैंपसन) के लिए ब्रिटेन का ताज ठुकराया था। पर कृष्ण क्‍या त्‍याग करते ? वे तो गोपाल थे। और सिंहासन से प्रेम उन्‍हें भी न था। लेकिन उन्‍हें उस कर्त्‍तव्‍य का भान अवश्‍य था जो उनके द्वारा एक आततायी शासन का अन्‍त करने में निहित था। बच्‍चों पर सत्‍ता का क्रूर प्रहार करने वाला, वृद्धों पर अत्‍याचार करने वाला शासन ।कृष्‍ण ने कंस को मारकर उसके पिता उग्रसेन को सिंहासनाभिषिक्‍त किया। वे स्‍वयं नहीं बैठे। कंस ने सिर्फ वसुदेव और देवकी को ही बंदी नहीं बनाया था, अपने पिता उग्रसेन को भी बंदी बनाया था। कृष्‍ण ने अपने पिता को ही मुक्‍त नहीं कराया था, जिसे मारा था, उसके पिता को भी मुक्‍त कराया था। यह राधा के स्‍वभाव की ही मृदुता थी जो कंस की कठोरता का प्रतिध्रुव थी। रासेश्‍वरी का रास प्रेमोत्‍सव था जो कंस के क्रूरता-पर्व का प्रतिध्रुव था। ब्रज की अकृत्रिमता कंस के बनावटी साम्राज्‍य से एकदम अलग थी। कंस ने तो विवाह भी साम्राज्‍य के लिए किए थे। जरासंध की दोनों पुत्रियों से विवाह करके उसने अपने राज्‍य को और शक्तिशाली बना लिया था। लेकिन उसी हद तक वह निरंकुश भी होता चला गया था। उधर कृष्‍ण तो राधा के अंकुश में थे। राधा के वशानुग। राधा को स्‍वाधीनपतिका या स्‍वाधीनभर्तृका नायिका के रूप में चित्रित भी किया गया है। राधाकृपाकटाक्षस्‍तोत्र में ‘निरंतर वशीकृतं प्रतीतनन्‍दनन्‍दने’ में राधा के द्वारा कृष्‍ण को लगातार वशीकृत रखने की पुष्टि है। उस नायिका की तरह जिसका प्रेमी उसके वश में हो। वे ही राधा अपनी परात्‍परता के कारण अपना खुद का रास रचाते नहीं रह सकती थीं। सदात्‍मा राधा नष्‍टात्‍मा कंस के कारण जगत् में प्रेम का पतन होना भी देखती थीं।

मूर्ख थे वे जो राधा को परकीया बताते रहे। राधा को परकीया बताने वाले श्रीमान लोग स्‍थूल सामाजिक नैतिकता को ही सभी चीजों पर वरीयता देते हैं। ऐसे आलोचकों से वे पुराण बेहतर है जो राधा और कृष्‍ण के प्रेम की इस आत्मिकता को इस अध्‍यात्‍म को, इस पारलौकिकता की पूजा करते हैं। ट्रेसी कोलमेन कहती हैं कि ‘Krishna is free from obligation and free to do as he pleases contrasts sharply with Radha’s stridharma and her passionate bhakti, which bind her to husband and lover in different ways. लेकिन राधा द्वारा भक्ति पर ध्‍यान देने वाली ट्रेसी और अन्‍य ये क्‍यों भुला देते हैं कि राधा स्‍वयं ईश्‍वरी हैं और स्‍वयं उनकी भक्ति की एक प्राचीन परंपरा है। श्रुति में कण्‍ठशाखा के भीतर राधा की प्रशंसा की गई है। भारत में शिव राम के भक्‍त हैं, वे भगवान भी हैं। राधा की प्रतिष्‍ठा पुराणों में उसी तरह है। उद्धव राधा की वंदना यों करते हैं, ‘’मैं श्रीराधा के उन चरणकमलों की वंदना करता हूं, जो ब्रह्मा आदि देवताओं द्वारा वन्दित है तथा जिनकी कीर्ति के कीर्तन से ही तीनों भुवन पवित्र हो जाते हैं। गोकुल में वास करने वाली राधिका को बारंबार नमस्‍कार। शतश्रंग पर निवास करने वाली चंद्रवती को नमस्‍कार-नमस्‍कार। तुलसीवन तथा वृन्‍दावन में बसने वाली को नमस्‍कार नमस्‍कार। रासमण्‍डलवासिनी रासेश्‍वरीको नमस्‍कार नमस्‍कार। वृन्‍दावन विलासिनी कृष्‍णा को नमस्‍कार नमस्‍कार। कृष्‍णप्रिया को नमस्‍कार नमस्‍कार। कृष्‍ण के वक्ष: स्‍थल पर स्थित रहने वाली कृष्‍णप्रिया को नमस्‍कार नमस्‍कार देठि। जैसे दूध और उसकी धवलता में, गंध और भूमि में, जल और शीतलता में, शब्‍द और आकाश में तथा सूर्य और प्रकाश में कभी भेद नहीं है, वैसे ही लोक, वेद और पुराण में- कहीं भी राधा और माधव में भेद नहीं है।

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ट्रेसी ध्‍यान नहीं दे पाई कि लोक, वेद और पुराण तीनों ही इनका अभेद मानते हैं। इसलिए वे किस परंपरा की बात करती हैं जब वे यह कहती है कि : ‘ The tradition thus privileges masculine freedom in contrast to feminine duty and devotion, celebrating a woman who sacrifice everything for her man, but who may get nothing in return.’ काश राधा ने ऐसा कोई करोबार किया होता जो ‘’रिटर्न्‍स ऑन इन्‍वेस्‍मेंट’’ पर आधारित होता लेकिन तब कृष्‍ण ‘’मा फलेषु कदाचन’’ कैसे कह पाते ? ट्रेसी तो फल भी नहीं, प्रतिफल की बात करती है। राधा को ‘’शुद्ध लाभ’’ क्‍या प्राप्‍त हुआ ? निवेश के अनुपात में। Year -o से हिसाब लगाओ। अब इसका क्‍या करें कि यह राधा इतनी ‘’शुद्ध ‘’ है कि यह व्‍यापार को तैयार नहीं है। ट्रेसी की निवेश-दक्षता की कसौटियां तो क्‍या, यह तो उद्धव के योग के बदले अपने वियोग का सौदा करने को तैयार नहीं । जोग ठगौरी ब्रज न बिकै है । यह तो बालपन की प्रीत ही नहीं, जन्‍म जन्‍म की प्रीत है्। किसी जनम किसी का पलड़ा भारी होगा, किसी जन्‍म किसी का।

ट्रेसी के असल इरादे क्‍या हैं, यह तब स्‍पष्‍ट होता है जब वे कहती हैं : Given that Rama and krsna are God, then, one could say that god makes women utterly dependent, extremely vulnerable, and finally destitute when he abandons them with nothing, not even themselves, for the women have given themselves totally and unconditionally to their men, rendering an independent life meaningless. तो बात इन ‘ईश्‍वरों' की है। मेरा गॉड तेरे गॉड से बेहतर। कृष्‍ण तो गारूड़ी बनकर राधा पर चढ़ गया जहर उतार दिये थे, पर यह जहर कौन उतारे। कृष्‍ण की निर्दयता को इनसे उपालंभ मिलते हैं। पर इसका क्‍या करें कि चार्ल्‍स वाट्स ने ‘द क्रिश्चियन डीटी’ में लिखा कि The Bible character of God is continuously and consistently cruel. बाईबल में उसकी निर्दयताएं भरी पड़ी हैं ऐसा वे कहते हैं। तो शायद उसी की स्‍पर्धा या कुंठा में भारत के ‘God’ के बारे में भी यही निष्‍कर्ष निकालने की कोशिश की जा रही है। लेकिन कोशिश इसलिए औंधे मुंह गिरती है क्‍योंकि भारत में सीता और राधा भी देवी हैं, सिर्फ राम या कृष्‍ण ही ‘गॉड’ नहीं हैं। लोक ने उन राधा को मंदिरों में प्रतिष्ठित किया। वेद में राम या कृष्‍ण से ज्‍यादा उल्‍लेख उनका है और पुराणों में तो वे बहुत बहुत है। लोक ने उन्‍हें देवताओं से ज्‍यादा आदर बख्‍शा। ‘सीताराम’ ‘या’ ‘राधाकृष्‍ण’ जैसे सम्‍बोधनों में पहले उन्‍हें रखा गया। उनके गायत्री मंत्र बने। यदि रामनवमी है तो सीता नवमी भी है। यदि कृष्‍ण जन्‍माष्‍टमी है तो राधाष्‍टमी भी है। राधा कृष्‍ण का ही स्‍त्रैण रूप समझी जाती हैं। नारद पंचरात्र उन्‍हें गोकुलेश्‍वरी कहता है और महाभाव का साक्षात रूप। उस महाभाव को ट्रेसी तवज्‍जो न देकर उन्‍हें एक करोबारी दुनियादार किस्‍म की स्‍त्री में बदलना चाहती हैं। उनकी संतुष्टि तभी होगी। पर राधा कहेंगी : ‘यह ब्‍योपार तिहारो, ट्रेसी, ऐसोई फिरि जैहै ‘ और ब्रज की गोपियां कहेंगी – ‘ आयो घोष बड़ो व्‍यौपारी। ट्रेसी कितनी ही कोशिश कर लें, ब्रज में कोई अपना दूध छोड़ के खारे कुँए का जल नहीं पीने वाला और उनकी बातों के भरम में आने वाली कोई अज्ञानी नारी वहां उन्‍हें मिलेगी भी नहीं- इनके कहे कौन डहकावै ऐसी कौन अजानी/ अपनो दूध छौडि के पीवै खार कूप को पानी। कौन कहेगा कि कृष्‍ण ने राधा को निर्भर और दरिद्र बनाया। राधा इतनी आत्‍मगर्विता हैं कि वे कृष्‍ण से भी कुछ न मांगें। और वे राधा दरिद्र जिन्‍हें ब्रज की गोपियां चंवर डुलाती हैं। राधा का मंत्र उनकी श्री को बताता है : राधा साध्‍यं साधनं यस्‍य राधा मंत्रो राधा मंत्रदात्री च राधा/सर्वं राधा जीवन यस्‍य राधा राधा वाचि किं तस्‍य शेष’’। यानी राधा साध्‍य है, उसे पाने का साधन भी राधा ही हैं, राधा मंत्र हैं और मंत्रदात्री भी वही हैं। सबका प्राण भी राधा ही है। राधा नाम के अतिरिक्‍त ब्रह्मांड में शेष बचता ही क्‍या है ? राधा का कृपाकटक्षस्‍तोत्र उन्‍हें ‘’प्रभूतसंपदालये’’ कहता है और ट्रेसी उन्‍हें destitute कहती हैं। श्रीकृष्‍ण ही नहीं, धर्म ने, ब्रह्मा ने, अनन्‍त ने, वासुकि ने, महादेव ने, सूर्य और चन्‍द्रमा ने , देवराज इन्‍द्र, रूद्रगण, मनु, मनुपुत्र, देवगण, मुनींद्रगण ने राधा की पूजा की है। (ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृतिखंड)।

दृष्टि दृष्टि का फर्क है। राधा से कोई वास्‍तविक सहानुभूति थोड़े ही है ट्रेसी को। वे लिखती हैं : Radha is an adulteress, after all – a woman who in the real social and economic world where relationships are legislated would be extremely vulnerable, possibly rejected and deserted. Perhaps abused and left utterly destitute . राधा को व्‍यभिचारिणी कहने वाली एक यह दृष्टि है और दूसरी और उसे सती कहने वाली भारतीय दृष्टि है : ‘परमानंदराशिश्‍च स्‍वयं मूर्तिमती सती/श्रुतिभि: कीर्तिता तेन परमानन्‍दरूपिणी.’ इन दृष्टियों के फर्क देखकर कई बार लगता है कि इन महाशया से कहा जाए कि देवि, ये रहस्‍य आपसे न समझे जायेंगे। पर इस दौर में देव भी हैं। ए.के.मजुमदार लिखते है : ‘In the whole range of Indian mythology a mistress, even divine, was never thought worthy of worship. राधा की पूजा इसका प्रमाण है कि भारत में ‘स्‍वकीया’ और ‘परकीया’ की रीतिकालीन श्रेणियों से कुछ नहीं निर्णीत होता बल्कि प्रेम की तीव्रता, हृदय और बुद्धि की शुद्धता से ही सब तय होता है।राधा और कृष्‍ण की दुनिया में यह नहीं है कि शौहर बीबी को अपनी खेती माने, कि यह कहा जाए कि ‘’Your Maker is your husband’’ (Isaiah 54:5) कि ‘’wives should be subordinated to their husbands as to the Lord’’ यहां यह तथाकथित ‘’ adulteress ‘’ देवी के रूप में स्‍वीकृत है। राधा को दांपत्‍य देवत्‍व नहीं देता। देवत्‍व राधा अपनी भावना की पवित्रता और नियतात्‍मता से उपलब्‍ध करती हैं। वे कृष्‍ण की मातहत नहीं हैं। कृष्‍ण का अवतार हैं। कृष्‍ण का आधा हिस्‍सा- उनकी पसली नहीं। राधा का ऋत और सरलता उन्‍हें पूज्‍य बना पायी वरना उन्‍हें कहीं किसी और मूल्‍य-प्रणाली में खेती की खरपतवार की तरह उखाड़ के फेंक दिया गया होता या वे अपने पति की अधीनस्‍थता में अपने मन के तथ्‍य का गला घोंट कर मर जातीं। "रिलेशनशिप्‍स’’ को ‘’लेजिस्‍लेट’’ करना एक क्षुद्राशय और अनृताधारित समाज का निर्माण करना हो सकता है। लेकिन धर्म न तो लेबल हैं, न लेबलों का अनुशासन। राधा और कृष्‍ण जन्‍मे ही लेजिस्‍लेट करने की मनोवृत्ति के असल टुच्‍चेपन को उजागर करने के लिए हैं। उनके अवतार के प्रयोजन ह्रदय के धर्म की संस्थापना करते हैं और इसीलिए वे दोनों भारत के ह्रदयों पर राज करते हैं।

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