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आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?
11-Aug-2020 8:10 PM
आखिर कैसे एक जनजातीय नायक श्रीकृष्ण हमारे परमपिता परमेश्वर बन गए?

रुचिका शर्मा

कृष्ण की कहानी ईसा पूर्व छठी शताब्दी में एक जनजाति विशेष के नायक के तौर पर शुरू होती है और ईसवी की पांचवीं सदी आते-आते विष्णु के अवतार के रूप में पूरी हो जाती है।

हिंदू धर्मग्रंथों में जितने भी देवी-देवताओं का जिक्र मिलता है, उनमें श्रीकृष्ण सबसे लोकप्रिय हैं-ग्वालों के बालगोपाल, प्रेम के देवता, धर्मोपदेशक और एक अजेय योद्धा। उनकी पूरी कहानी, जिसे कृष्णगाथा भी कह सकते हैं, कई बिलकुल अलग-अलग तरह के तत्वों को बडी सुंदरता से जोडऩे पर बनी है। यह करीब 800-900 साल के लंबे अंतराल में विकसित हुई। दिलचस्प बात यह है कि इस गाथा का विकास उल्टे क्रम में हुआ है। इसमें पहले पांडवों के मित्र और द्वारका के संस्थापक के रूप में युवा कृष्ण सामने आते हैं फिर गायें चराने वाले बाल कृष्ण और ग्वालिनों के साथ रास रचाने वाले प्रेम के प्रतीक कृष्ण का वर्णन आता है।

कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है

वासुदेव और कृष्ण

ब्रिटेन में लैंकैस्टर विश्वविद्यालय के धार्मिक अध्ययन विभाग में मानद शोधकर्ता रहीं फ्रीडा मैशे ने एक किताब लिखी है - ‘कृष्ण, ईश्वर या अवतार? कृष्ण और विष्णु के बीच संबंध’। इसमें वे लिखती हैं कि कृष्ण-वासुदेव, पहले यादव समुदाय की सत्वत्त और वृष्णि जनजातियों के नायक हुआ करते थे। इन्हें समय के साथ-साथ देवता मान लिया गया। फिर दोनों एक हो गए।

कृष्ण का सबसे पहला जिक्र छठी शताब्दी ईसापूर्व में ‘छंदोग्य उपनिषद’ में मिलता है। इसमें उन्हें एक साधु और उपदेशक बताया गया है। साथ ही इसमें उनका देवकीपुत्र के रूप में भी उल्लेख है। चौथी शताब्दी ईसापूर्व में पाणिनि की ‘अष्टाध्यायी’ (संस्कृत व्याकरण का ग्रंथ) में कृष्ण को एक देव की तरह प्रस्तुत किया गया है। साथ ही इसमें वृष्णिवंशी यादव जनजाति के बारे में भी विस्तार से बताया गया है, जिससे कृष्ण जुड़े हुए थे। मौर्य राजदरबार में यूनान (ग्रीस) के दूत रहे मेगस्थनीज की किताब ‘इंडिका’ में बताया गया है कि किस तरह शूरसेनियों (वृष्णिवंशी यादवों की ही एक शाखा) ने मथुरा में कृष्ण को देवता की तरह पूजना शुरू किया। इस तरह चौथी शताब्दी ईसापूर्व में कृष्ण-वासुदेव न सिर्फ नायक से देवता के रूप में परिवर्तित हुए, बल्कि काफी लोकप्रिय भी हो चुके थे।

विष्णु रूप कृष्ण

दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व तक वैदिक पूजा पद्धति कठोर हो चुकी थी और उसके धार्मिक संस्कार महंगे। इसी दौरान सम्राट अशोक के समर्थन और प्रचार कार्य की वजह से बौद्ध दर्शन अपना आधार बढ़ाता जा रहा था। इसी बीच, बड़े पैमाने पर विदेशी आक्रमणकारियों (जैसे शक आदि) का भारत में आगमन शुरू हो गया। वे बौद्ध दर्शन आदि से ज्यादा सहानुभूति रखते थे। ऐसे में, पुरोहित वर्ग के अधिकार और असर में कमी आने लगी। निचले वर्णों की आर्थिक स्थिति भी बेहतर हुई और उन्होंने वर्ण व्यवस्था को चुनौती देना शुरू कर दिया। और जैसा कि सुवीरा जायसवाल अपनी किताब ‘वैष्णववाद की उत्पत्ति और विकास’ में लिखती हैं - ‘ब्राह्मणों ने कृष्ण-वासुदेव के भक्ति-पंथ पर कब्जा कर लिया। वे कृष्ण को नारायण-विष्णु का स्वरूप बताने लगे। इसके पीछे उनका मकसद संभवत: सामाजिक आचार-व्यवहार में अपना अधिकार और प्रभुत्व एक बार फिर से स्थापित करना था।’ यहां जिक्र करना दिलचस्प होगा कि नारायण और विष्णु भी पहले अलग देवों की तरह पूजे जाते थे। बाद में दोनों को एक ही मान लिया गया।

महाभारत में तमाम जगहों पर उस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए

यानी इस काल में कृष्ण-वासुदेव का नारायण-विष्णु के साथ घालमेल हो गया। उन्हें महाभारत के युद्ध के नायक का दर्जा मिला। साथ ही भगवद् गीता का उपदेश देने वाले उपदेशक के रूप में भी मान्यता मिली। हालांकि महाभारत में ही तमाम जगहों पर इस असमंजस या दुविधा का भी जिक्र मिलता है कि किसी अनार्य जनजातीय देव (कृष्ण) को परमेश्वर का दर्जा कैसे दिया जाए। इसीलिए शुरू-शुरू में कृष्ण-वासुदेव का विवरण नारायण-विष्णु के अंशावतार के रूप में ही दिया जाता है।

बाल कृष्ण

इस तरह, पहली शताब्दी ईसापूर्व तक कृष्ण की पूजा सिर्फ उनके युवा स्वरूप में ही होती थी। वे पांडवों के मित्र, एक उपदेशक, वृष्णिवंशी यादवों के नायक और विष्णु के अंशावतार माने जा चुके थे। लेकिन उनकी महागाथा में एक सबसे अहम चीज अब भी नदारद थी।  उनका बचपन। जबकि आज उनके बारे में सबसे ज्यादा जिक्र उनके बचपन का ही होता है। कालांतर में जब कृष्ण को अभीर (अहीर) जनजाति के देव का दर्जा मिला तो यह कमी भी पूरी हो गई। कृष्ण के साथ गोपाल (गाय चराने और पालने वाले) का मेल भी हो गया। हालांकि यह अब तक साफ नहीं है कि अभीर जनजाति भारतीय उपमहाद्वीप की ही मूल निवासी थी या किसी और जगह से आकर यहां बसी थी। लेकिन इतना साफ है कि पहली सदी ईसवी में यह जनजाति सिंधु घाटी के निचले इलाकों में निवास करती थी और बाद में पलायन कर सौराष्ट्र (अब गुजरात) में जा बसी। शक और सातवाहन के शासनकाल में यह जनजाति राजनीतिक रूप से भी सक्रिय हुई।

वृष्णिवंशी यादवों और अभीरों में काफी समानताएं थीं। खासकर दोनों समाजों में महिलाओं को किस तरह देखा जाता था। संभवत: इन्हीं समानताओं की वजह से वृष्णिवंशियों के कृष्ण-वासुदेव को अभीरों का आराध्य भी मान लिया गया। उदाहरण के लिए दो प्रसंग सामने रखे जा सकते हैं। पहला, महाभारत में अर्जुन को कृष्ण अपनी बहन का हरण कर लेने की सलाह देते हैं। इसके पक्ष में वे यह दलील देते हैं कि इस तरह धर्म की रक्षा होगी। यह शायद इस बात का संकेत भी है कि महिलाओं का हरण करना वृष्णिवंशियों में एक सामान्य परंपरा रही होगी। दूसरा, कृष्ण के श्रीधाम सिधारने के बाद जब अर्जुन अपनी छत्रछाया में वृष्णिवंशी महिलाओं को लेकर मथुरा की ओर जाते हैं, तो उन पर अभीरों का हमला हो जाता है और हमलावर उनके काफिले में शामिल कई महिलाओं का अपहरण कर लेते हैं।

पहली से पांचवीं शताब्दी तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कडिय़ों को जोडऩे का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप से एक ही रूवरूप में स्थापित किया जा सके।

बहरहाल, कृष्ण-वासुदेव को अभीरों के देव की मान्यता मिलते ही गोपियों के साथ उनके हास-परिहास-रास की कहानियां और प्रसंग भी सामने आने लगते हैं। चूंकि अभीर खानाबदोश किस्म की जनजाति थी, इसलिए उनकी संस्कृति में महिलाओं-पुरुषों के लिए ज्यादा उन्मुक्तता का माहौल था। अभीरों में उन्मुक्तता की यही संस्कृति कृष्ण की रासलीलाओं का आधार भी बनी।

परमपिता परमेश्वर श्रीकृष्ण

हम जानते हैं कि कृष्ण की कहानी में कृष्ण-गोपाल का सम्मिश्रण बाद में हुआ। क्योंकि महाभारत की मूल कहानी में कहीं भी कृष्ण के बचपन का जिक्र नहीं मिलता। चौथी सदी ईसवीं में जब परिशिष्ट या उपबंध के रूप में महाभारत के साथ हरिवंश पुराण का जोड़ हुआ, तब कृष्ण-अभीर की पहचान को एक सुनिश्चित आकार मिला। इस तरह, पहली से पांचवीं शताब्दी ईसवीं तक विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण जैसे महाकाव्यों ने टूटी हुई उन कडिय़ों को जोडऩे का काम किया, जिनसे कृष्ण-वासुदेव और विष्णु-नारायण को समग्र रूप में स्थापित किया जा सका।

इस तरह, कृष्ण की जो कहानी अब सामने आती है, उसके मुताबिक, वे यादव क्षत्रियों (एक योद्धा जाति) के कुल में पैदा हुए। उनके पिता का नाम वसुदेव था, इसी आधार पर उनका एक नाम वासुदेव भी पड़ गया। उनका मामा कंस आततायी था, उन्हें मारना चाहता था, इसलिए उसके डर से उन्हें रातों-रात चोरी-छिपे ले जाकर अभीरों के संरक्षण में (नंद नामक गोप के घर) छोड़ आया गया। इसके बाद इस गाथा में समय के साथ-साथ गोपियों के प्रेमी, अर्जुन के सारथी और गीता में धर्म का उपदेश देने वाले उपदेशक के तौर पर कृष्ण परिपक्व होते हैं। और इस तरह कृष्णगाथा आखिरकार पूरी होती है। इसके बाद जनजातीय समुदाय के देवता को परम ईश्वर मानने को लेकर महाभारत में शुरू-शुरू में दिखी दुविधा भी खत्म हो जाती है। और छठी शताब्दी ईस्वी में लिखी गई भागवत पुराण में उन्हें परमपिता परमेश्वर का दर्जा मिल जाता है। (satyagrah.scroll.in)

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