विचार / लेख
(समग्र रूप से वर्तमान संदर्भ सहित राजस्थान के विशेष संदर्भ में)
-देवेंद्र वर्मा
सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलो के षड्यंत्र का आकलन किया जाना नामुमकिन है,किंतु राजनीतिक दल के षड्यंत्रो में राज्यपाल,अथवा विधानसभा के अध्यक्ष जैसे संवैधानिक पदों पर विराजमान सम्माननीय व्यक्ति भी यदि सम्मिलित हो जाएं और न्यायपालिका भी उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित न्याय निर्णयों, नजीरों के विपरीत निर्णय करने लगे, आम जनता भी इन संवैधानिक पदों एवं संस्थाओं के कार्यकरण से इनके प्रति आशंकित हो जाए,तब यह कहा जा सकता है कि प्रजातांत्रिक व्यवस्थाएं चाहे समाप्त ना हुई हो, किंतु कमजोर तो हो ही गई है।
राजस्थान में इस समय हमारे संविधान के साथ जो खिलवाड़ हो रहा है, उसमें राजनीतिक दलों से तो ज्यादा अपेक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि सत्ता प्राप्ति के लिए इनका आचरण, व्यवहार और कार्य करण संविधान के लागू होने के पश्चात से ही हम सब बेबस होकर देख रहे हैं। विधानसभा के अध्यक्षों की कार्य प्रणाली से भी 1985 तक जबकि दल बदल कानून लागू नहीं हुआ था,आम जनता निरपेक्ष ही रही, किंतु जब अध्यक्षों को दल बदल कानून के अंतर्गत विधान सभा के सदस्यों की अयोग्यता तथा राजनीतिक दलों के विभाजन पर निर्णय करने की अधिकारिता दी गई, अध्यक्ष के निर्णय किसी दल के सत्ता में बने रहने अथवा अपदस्थ होने के लिए निर्णायक हो गए, उसके पश्चात अध्यक्ष से राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता की अपेक्षाएँ भी बढ़ गई।
अध्यक्ष किसी भी दल के रहे हो,अपवाद स्वरूप कुछ निर्णयों को छोडक़र वर्ष 1985 से अध्यक्ष के निर्णय उनके मूल राजनीतिक दल जिस के टिकट पर वे विधायक निर्वाचित हुए,के प्रति निष्ठा प्रकट करने के प्रयास से प्रभावित रहे।
संसद एवं विधान सभाओं में जब से मिली जुली सरकार अथवा सहयोगी दल के साथ सरकार का गठन आरंभ हुआ,किसी भी एक राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत प्राप्त नहीं होने की स्थिति में राजनीतिक दल अन्य राजनीतिक दलों, निर्दलीय सदस्यों के साथ जोड़-तोड़ करके सरकार गठित करने के लिए तोलमोल और षड्यंत्र कर के अपना-अपना बहुमत होने का दावा करने लगे, ऐसी स्थिति में राज्यपाल संविधान के अनुच्छेद 164 के अंतर्गत मुख्यमंत्री किसे नियुक्त करें? सरकार बनाने के लिए राज्यपाल किस राजनीतिक दल को आमंत्रित करें? मुख्यमंत्री किसे नियुक्त करें? का निर्णय, संविधान के प्रावधानों के अंतर्गत अपने विवेक से करने लगे। राज्यपालों का तथाकथित विवेक भी उस राजनीतिक दल के प्रति प्रभावित होने लगा जिस राजनीतिक दल की अनुशंसा पर वे राज्यपाल नियुक्त हुए हैं। राज्यपालों के ऊपर भी आरोप लगना प्रारंभ हुआ।
राज्यपालों द्वारा मुख्यमंत्री को नियुक्त करने और अध्यक्षों द्वारा दल बदल कानून के अंतर्गत दिए गए निर्णय को न्यायालयों में चुनौती दी जाने लगी फल स्वरूप वर्ष 1985 से आज दिनांक तक अनेकों न्याय निर्णय के द्वारा अनेक सिद्धांत, विधी के स्वरूप में स्थापित हुए। कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका के उच्च पद धारित जब विधि के सदृश्य स्थापित इन सिद्धांतों का पालन नहीं करते हैं,तभी ऐसी स्थिति निर्मित होती है, जो हम सब विगत लगभग एक डेढ़ वर्षो से देश के विभिन्न राज्यों और वर्तमान में सत्ता प्राप्ति के संघर्ष के लिए राजस्थान में चल रही उठापटक के संदर्भ में विगत 18 दिनों से अधिक समय से देख रहे हैं।
सत्ता प्राप्ति के लिए राजनीतिक दलों में हुए संघर्ष के फलस्वरूप उच्चतम न्यायालय के न्याय निर्णय के द्वारा अथवा विधि निर्माण के द्वारा स्थापित सिद्धांतों एवं विधियों में से वर्तमान संदर्भ में कुछ महत्वपूर्ण निम्नानुसार है :-
(1) संविधान की दसवीं अनु सूची (दल बदल कानून) के अंतर्गत किसी सदस्य अथवा सदस्यों के अयोग्यता अर्जित करने संबंधी अर्जी प्राप्त होने पर अध्यक्ष विधानसभा को ही केवल अर्जी पर निर्णय देने की अधिकारिता प्राप्त है, न्यायालयों को नहीं, और जब तक अध्यक्ष अर्जी पर निर्णय नहीं देते तब तक न्यायालय को हस्तक्षेप करने का अधिकार नहीं है।
(2) अध्यक्ष के विचाराधीन किसी अर्जी पर यदि न्यायालय को कोई याचिका प्राप्त होती है तब भी न्यायालय उस याचिका पर किसी प्रकार का अंतरिम आदेश पारित नहीं कर सकते,यह अवश्य है कि अध्यक्ष द्वारा अर्जी पर अंतिम रूप से निर्णय दिए जाने के पश्चात, दिए गए निर्णय को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है, और न्यायालय विचार कर सकते हैं।
(3) सरकार के गठन होने के पश्चात गठबंधन में सम्मिलित अथवा बाहर से सरकार को समर्थन दे रहे दल अथवा अन्य विधायक अपना समर्थन वापस ले लेते हैं, / राजनीतिक दल के ही विधायक मूल दल जिसके प्रत्याशी के रूप में निर्वाचित हुए हैं, दल बदल कानून के पैरा 2(1)(क)(ख) के अंतर्गत अयोग्य घोषित होने, पर प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि, सरकार अल्पमत में आ गई है,ऐसी स्थिति में राज्यपाल मुख्यमंत्री से सभा में अपना बहुमत सिद्ध करने के लिए अपेक्षा कर सकते हैं अथवा सदन के नेता अर्थात मुख्यमंत्री सभा में विश्वास का प्रस्ताव रखकर अपना बहुमत सिद्ध कर सकते हैं।
उच्चतम न्यायालय के द्वारा जब यह न्याय निर्णित हो गया कि बहुमत का निर्णय विधान मंडल के पटल पर होगा बाहर नहीं तब राज्यपालों के द्वारा राजभवन में विधायकों की परेड करवाने अथवा राज्यपाल द्वारा बहुमत का निर्णय करने की परिपाटी में रोक लगी और ऐसा आभास भी हुआ कि यह क्षेत्र अब राज्यपाल की मनमर्जी का नहीं रहा। यद्यपि विभिन्न कारणों से राज्यपाल की भूमिका पर सवाल उठते रहे लेकिन न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय के पश्चात उनका निराकरण भी होता रहा।
यह अवश्य है कि ऐसे ही अवसरों पर न्यायपालिका ने विधायिका के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण करते हुए विधायिका को निर्देशित करना प्रारंभ कर दिया।फल स्वरूप सभा की कार्यवाही जिस पर संविधान में स्पष्ट प्रावधान है, कि सभा की कार्यवाही पर संपूर्ण नियंत्रण सभा का ही रहता है। न्यायपालिका,न्याय निर्णय में,सभा की बैठक कब होगी, कैसे होगी, मतदान की प्रक्रिया क्या रहेगी, बाहरी पर्यवेक्षक नियुक्त होंगे,मतदान का निर्णय घोषित नहीं किया जाएगा जब तक कि न्यायालय अनुमति न दे, आदि आदि।ऐसे न्यायनिर्णयों पर, विधायिका ने, ‘विधायिका और न्यायपालिका’ के बीच संबंध विषय पर समय-समय पर संगोष्ठी एवं सम्मेलनों के माध्यम से विधान मंडलों की ‘सार्वभौमिकता एवं न्यायालय’, जैसे विषयों पर विचार मंथन किया तथा स्वनियंत्रण का पालन करते हुए विधायिका के क्षेत्र में न्यायपालिका के अतिक्रमण पर समझदारी पूर्ण प्रतिक्रिया व्यक्त की।
प्रजातांत्रिक लोकतंत्र सुचारु रूप से लोक हित एवं लोक कल्याण के उद्देश्य से संचालित हो इस हेतु सबसे प्राथमिक आवश्यकता इस बात की है कि संविधान के आधार स्तम्भ विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका अपने अपने संविधान प्रदत्त कार्य क्षेत्र में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें और किसी दूसरे के अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण का प्रयास न करें।
इस विषय में भिन्न-भिन्न मत हो सकते हैं कि यह सब प्रारंभ कब हुआ उदाहरणार्थ राज्यपालों द्वारा उनके द्वारा ली गई शपथ के विपरीत अपने नियोक्ता के प्रति निष्ठा को सर्वोपरि रखकर अल्पमत दल को सत्ता की बागडोर सोपना, जनमत की सरकारों को मनमाने तरीके से बर्खास्त करना, चुनी हुई सरकारों को बर्खास्त करके राष्ट्रपति शासन थोपना, जन प्रतिनिधियों द्वारा जनता के विश्वास को खंडित करते हुए लोभ लालच के वशीभूत दल बदलना, दल बदल कानून का निर्वचन कानून की भावना के विपरीत अपने मनमाफिक तरीके से करते हुए अपने दल के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने को प्राथमिकता देना, उच्चतम न्यायालय द्वारा न्याय निर्णय से स्थापित सिद्धांत को नजऱअंदाज करते हुए अधिकारिता से बाहर जाकर निर्णय देना,ऐसे अवांछनीय, उदाहरण है जब आमजन को ऐसा प्रतीत हुआ कि संवैधानिक व्यवस्थाएं और संविधान के प्रावधानों की भावनाएं खंडित हो रही है। यही नहीं संविधान सभा जब संविधान के विभिन्न प्रावधानों को अंतिम रूप दे रही थी,और संविधान सभा के विद्वान सदस्य अपने अपने विचार रख रहे थे और भावनाएं प्रकट कर रहे थे, जिन भावनाओं के साथ संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों को बाबा साहब ने अंतिम रूप दिया गया, उच्च संवैधानिक पदों को धारण करने वाले पदाधिकारियों द्वारा उन भावनाओं के विपरीत कार्यकरण प्रारंभ किया।
वर्ष 1995 से भाजपा के मुख्य आधार स्तंभों में से एक आदरणीय अटल बिहारी वाजपेई ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव, और अन्य अनेक अवसरों पर व्यक्त विचारों से देश के समक्ष जो आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किए, देश को आशा की एक किरण भाजपा के नेतृत्व कर्ता के रूप में दिखाई दी, 2003 में राजनीति में दल बदल रोकने के उद्देश्य से,तथा अध्यक्ष का पद विवाद का विषय ना बने उसकी प्रतिष्ठा एवं गरिमा बनी रहे दल बदल कानून में व्यापक संशोधन किए गए।
वर्ष 2014 में भाजपा की सरकार न केवल देश में अपितु प्रदेशों में भी भारी जनमत के साथ सत्ता में आई। एक चकाचौंध करने वाला नेतृत्व देश को प्राप्त हुआ, इस चकाचौंध नेतृत्व से विभिन्न राज्यों में भाजपा के नेतृत्व के भी चमकने का एहसास हुआ, आम जन आकर्षित हुआ, लेकिन राज्यों के परिपेक्ष में यह एहसास अल्प समय में ही विलुप्त हो गया।
जनता में राज्यों में नेतृत्व के प्रति व्याप्त हुई निराशा की भावना के फल स्वरूप देश की राजधानी दिल्ली सहित राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गोवा, मणिपुर, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, महाराष्ट्र, बिहार, कर्नाटक, आदि राज्यों में जनता ने या तो भाजपा को पूरी तरीके से नकार दिया या फिर बहुमत से दूर कर दिया और 2014 मैं जागृत कांग्रेस मुक्त भारत की भाजपा की कल्पना धराशाई हो गई।फिर एक नया प्रयोग आरंभ हुआ, वर्ष 2019 के आम चुनाव आते आ ‘कांग्रेस मुक्त भारत के स्थान पर कांग्रेस युक्त भाजपा’ का।
1) पूंजीवाद और पैकेज के युग में प्रयोग को मूर्त रूप देने के लिए बाजार में खऱीदार आ गए बोली लगने लगी बाजार में माल बिकने के लिए उपलब्ध था।संवैधानिक पदों पर नियुक्त पदाधिकारियों जो संविधान की रक्षा की शपथ से बंधे थे, के आचरण से आम जनता का विश्वास संवैधानिक संस्थाओं के पदाधिकारियों से डगमगाने लगा।
2)वर्ष 2014 में जनता ने जिस प्रजातांत्रिक सिद्धांत युक्त राजनीति के प्रारंभ की कल्पना की थी, वह पूँजी प्रधान है,ऐसी धारणा बलवती होने लगी और इसके पीछे मुख्य कारण रहा केंद्र की सरकार द्वारा प्रदेशों की जनमत की सरकारों को अस्थिर करना।
3) आम निर्वाचन में बहुमत प्राप्त राजनीतिक दल के, जन प्रतिनिधि अचानक जनता के साथ विश्वासघात करते हुए जिस दल से जनता ने उन्हें 5 वर्ष के लिए निर्वाचित किया था,कालावधी पूर्ण किए बिना ही जनमत की सरकार को अपदस्थ करने के उद्देश्य से विधायक पद से इस्तीफा, पश्चात समारोह पूर्वक अन्य राजनीतिक दल की सदस्यता लेने, और जिस राजनीतिक दल में सम्मिलित हुए,उसके छद्म बहुमत में आने के फलस्वरूप नवगठित मंत्रिमंडल में मंत्री के पद पर नियुक्त करने ।
4) राज्यपाल द्वारा मंत्री परिषद की अनुशंसा पर विधानसभा का सत्र बुलाने के मंत्री परिषद के संवैधानिक अधिकार मैं अड़ंगा डालते हुए, मंत्री परिषद की विधानसभा के माध्यम से जनता के प्रति जवाबदेही में अवरोध उत्पन्न करने।
5)उच्चतम न्यायालय की 5 सदस्य की बेंच के विधि स्वरूप, न्याय निर्णय के विपरीत अध्यक्ष के क्षेत्राधिकार में न्यायपालिका का अतिक्रमण।
संविधान के लागू होने के पश्चात वर्ष 1964 में विधायिका एवं न्यायपालिका के मध्य अधिकारिता के संविधान प्रदत्त कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण किए जाने पर राष्ट्रपति द्वारा उच्चतम न्यायालय की पूरी संविधान पीठ को संदर्भित मामले में उच्चतम न्यायालय का यह निर्णय कि संविधान के दोनों ही अंगों को एक दूसरे के कार्य क्षेत्र में अतिक्रमण नहीं करते हुए और विधायिका की सार्वभौमिकता को अक्षुण्ण रखते हुए समादर एवं सम्मान की भावना से कार्य करना चाहिए।
पूर्व में न्यायिक सक्रियता वाद के संबंध में भी अनेकों अवसरों पर संगोष्ठी एवं कार्यशाला में विचार विमर्श हुआ और निष्कर्ष यही रहा कि इन दोनों ही संस्थाओं के मध्य उचित तालमेल सबसे महत्वपूर्ण है और यदि वे अपनी संविधान प्रदत्त सीमाओं का अतिक्रमण करते हैं तो यह व्यापक राष्ट्रीय हित में नुकसानदायक ही रहेगा।
वर्तमान में जिस प्रकार राज भवन एवं न्यायपालिका के द्वारा राजनीतिक कार्यपालिका एवं विधायिका के क्षेत्र में संविधान के प्रावधानों के विपरीत अवांछनीय अतिक्रमण किया जा रहा है, कि प्रबल भावना का आविर्भाव संपूर्ण देश में हुआ है वह संसदीय प्रजातांत्रिक प्रणाली के लिए नुकसानदायक है।
संसदीय प्रजातंत्र की सफलता के लिए आवश्यक है कि कार्यपालिका विधायिका एवं न्यायपालिका संविधान के प्रति निष्ठावान होकर संवैधानिक व्यवस्था को अक्षुण्ण बनाए रखें।
(देवेंद्र वर्मा, पूर्व प्रमुख सचिव छत्तीसगढ़ विधानसभा संसदीय एवं संवैधानिक विशेषज्ञ)