संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संसद और विधानसभाओं को रेडलाईट इलाका न बनने दें...
23-Jul-2020 6:21 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : संसद और विधानसभाओं को  रेडलाईट इलाका न बनने दें...

हिन्दुस्तान में आज गिने-चुने मुद्दे ही खबरों में रह गए हैं। यह तो चीन की सरहद पर चीनी फौज की हिन्दुस्तान में घुसपैठ न होती तो महज कोरोना पढ़-सुनकर लोग थक गए होते। अब चीन के साथ तनातनी बैक बर्नर पर खिसका दी गई है क्योंकि राजस्थान से अधिक चटपटी और सनसनीखेज खबरें निकल रही हैं। एक प्रदेश जिसे आज पूरी ताकत से कोरोना से जूझना था वह अपनी ही पार्टी के विधायकों से जूझ रहा है। सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के विधायक या तो जयपुर के किसी महंगे रिसॉर्ट में कैद हैं, या हरियाणा में। तरह-तरह के मामले दर्ज हो गए हैं, तरह-तरह से खरीद-बिक्री और सरकार पलटने की साजिश की खबरें हैं, और हाईकोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कई पिटीशन दाखिल हो गई हैं, दोनों जगह सुनवाई चल रही है, दोनों जगह बड़े-बड़े दिग्गज अरबपति वकील खड़े हुए हैं। जिस बुनियादी जिम्मेदारी के लिए लोगों ने राजस्थान में कांग्रेस के विधायकों को चुना था, वह जिम्मेदारी गटर में फेंक दी गई है, और आपस में सत्ता की लूटपाट चल रही है। 

यह किस किस्म का हिन्दुस्तानी लोकतंत्र हो गया है कि संसद और विधानसभाओं से बाहर रिसॉर्ट में मंत्री-मुख्यमंत्री और सांसद-विधायक इसी तरह अपने लोगों की हिफाजत करते बैठते हैं जैसे एक वक्त दुश्मन के हमले के खिलाफ लोग अपने किलों के पुल उठा लेते थे, और हथियार लेकर ऊपर की दीवारों पर जम जाते थे। उसी तरह का हाल आज हो गया है जब अपने विधायकों को भेड़-बकरी की तरह आंककर कोई इस बाड़े में ले जा रहे हैं, तो कोई किसी और बाड़े में। जानकारों ने यह भी लिखा है कि इस किस्म के दलबदल और सत्ता पलट के बारे में भारत के संविधान निर्माताओं ने कभी कल्पना नहीं की थी, वरना वे तबाही और गंदगी रोकने के कुछ और इंतजाम संविधान में करते। 

आज जब पांच बरस के लिए निर्वाचित होने वाले विधायक अपनी देह को बेचते हुए घूम रहे हैं, और बेशर्मी से एक पार्टी से दूसरी पार्टी जा रहे हैं, अपनी सरकार को गिरा रहे हैं, और जिस जनता ने हाथ छाप पर वोट दिया था, उसे अब महज ठेंगा दिखा रहे हैं। ऐसे में इनको विधायक क्यों रहना चाहिए? पार्टी छोडऩे के साथ ही लोगों की विधानसभा या संसद की सदस्यता न सिर्फ खत्म हो जानी चाहिए, बल्कि पूरे पांच बरस के कार्यकाल में उनमें जनता के पास दुबारा जाने का मौका भी नहीं मिलना चाहिए। ऐसा हो जाए तो इस देश से दलबदल का दलदल कुछ या काफी घट जाएगी। आज हालत यह है कि जनता से एक पार्टी के निशान पर वोट मांगकर, उसी कार्यकाल के भीतर दूसरी पार्टी के निशान से वोट मांगकर मंत्री बनने और सत्ता को निचोड़ लेने का नंगा नाच चल रहा है, और कानून एक मूढ़ और मूर्ख की तरह बस देखने के लायक रह गया है। यह संविधान और यह कानून इस देश की संसदीय गंदगी को साफ करने की ताकत अब नहीं रखते क्योंकि यह गंदगी बहुत अधिक जहरीली हो गई है, बहुत अधिक हो गई है। यह सिलसिला खत्म होना चाहिए। यह भी कोई संसदीय लोकतंत्र है कि जनता वोट किसी पार्टी को दे, और सरकार किसी और पार्टी की बने? यह भी कोई संसद या विधानसभा है जिसके झगड़े स्थाई रूप से हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को घेरे रहें? यह भी कोई सरकार है कि जब कर्नाटक बाढ़ में डूबा रहे, तो वहां के विधायक आन्ध्र के पांच सितारा होटलों में पड़े रहें, जब मध्यप्रदेश में कोरोना की सबसे बुरी मार चल रही हो, तब वहां के विधायकों मेें तोडफ़ोड़ करवाकर सत्ता गिरवाना चलता रहे? और आज जब राजस्थान में पूरी सरकार को ही एकजुट होकर कोरोना से लडऩा था, आर्थिक मोर्चे पर लोगों को भूखों मरने से बचाना था, तब वहां का उपमुख्यमंत्री और सत्तारूढ़ पार्टी का अध्यक्ष ही सरकार पलटने में जुट गया है। यह ऐसा हुआ कि मानो किसी कुर्सी के दो पाये उसके बाकी दो पायों को काटने में जुट जाएं। लोगों को अपना तन और अपना मन, अपना ईमान और अपना इतिहास, जो भी बेचना हो, उसकी उन्हें आजादी रहनी चाहिए, लेकिन संसद और विधानसभाओं को रेडलाईट एरिया बनने से रोकना चाहिए। और यह लिखना भी रेडलाईट एरिया की वेश्याओं का परले दर्जे का अपमान इसलिए है कि वे महज अपनी देह बेचती हैं, अपने चुनाव क्षेत्र के मतदाताओं का भरोसा नहीं। ऐसी गंदगी कम से कम जारी कार्यकाल तक तो सदन से बाहर फेंक देनी चाहिए, और हमारी सोच से अगर संविधान बने, तो जारी कार्यकाल के बाद एक और कार्यकाल चुनाव लडऩे पर रोक रहनी चाहिए, पल भर में इस देश में तन-मन की यह मंडी बंद हो जाएगी। 

हिन्दुस्तानी लोकतंत्र एक बुरी तरह से बोगस और उजागर हो चुका झांसा रह गया है। सबसे पहले चुनावों के वक्त लोग दूसरी पार्टियों से उठाकर लाए गए मुजरिमों और भ्रष्ट लोगों, दंगाईयों और बलात्कारियों को टिकट देते हैं, फिर गरीब जनता को पैसे और दारू से लादकर उसका वोट छीन लेते हैं। यह सब होने के बाद भी अगर सदन में बहुमत नहीं रहता, तो उसके लिए जरूरत के लायक विधायकों या सांसदों को खरीद लेते हैं। यह भी कोई लोकतंत्र है? यह लोकतंत्र के नाम पर कलंक है, बड़ा सा काला धब्बा है, और जनता को दिया गया खालिस धोखा है। इस देश में इस चल बसे दलबदल-कानून की जगह एक बहुत साफ-सुथरे कानून की जरूरत है, वरना लोगों में राजनीति के लिए नफरत और अधिक बढ़ती ही जाएगी। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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