संपादकीय
रेडियो जॉकी सुचित्रा
तमिलनाडू में कुछ हफ्ते पहले लॉकडाऊन के दौरान पुलिस से एक बाप-बेटे-दुकानदार की कुछ बहस हुई, तो दोनों को गिरफ्तार करके थाने ले जाया गया, और वहां उनके साथ ऐसा हिंसक बर्ताव किया गया कि दोनों मर गए। पिटाई की आम हिंसा के अलावा इन दोनों के गुप्तांगों से भी हिंसा की गई और जब तमाम बातें सामने आईं, तो बहुत से पुलिसवालों पर कार्रवाई हुई, मामला सीबीआई को देना पड़ा, और हाईकोर्ट ने कहा कि निचली अदालत ने बाप-बेटे को जेल भेजने में भारी लापरवाही की, और गलत काम किया। चूंकि यह पूरा मामला दक्षिण भारत का था, इसलिए हिन्दीभाषी प्रदेशों में इसकी अधिक प्रतिक्रिया नहीं हुई। लेकिन तमिलनाडू की एक रेडियोजॉकी सुचित्रा रामादुराई ने इस हिंसा पर एक वीडियो बनाकर इंटरनेट पर डाला था जिससे दुनिया भर में लोगों ने इसे देखा, और तमिलनाडू पुलिस की हिंसा पर थू-थू हुई।
कई हफ्ते बाद अब इस पर लिखने की नौबत इसलिए आ रही है कि पुलिस ने सुचित्रा पर दबाव डालकर यह वीडियो इंटरनेट से हटवा दिया है। हालांकि इसके पहले दो करोड़ लोग इसे देख चुके हैं। सुचित्रा ने इस वीडियो में पुलिस की हिंसा के बारे में बखान किया था, और पुलिस ने उसे कहा कि वह इसे हटा दे क्योंकि इससे पुलिस के खिलाफ नफरत फैल रही है। पुलिस ने उससे यह भी कहा कि वह गलत तरीके से मामले को बढ़ा-चढ़ाकर पेश कर रही है जिसका कोई सुबूत नहीं है। पुलिस का कहना था कि वीडियो में जो घटनाक्रम बताया गया है वो मारे गए बाप-बेटे की पोस्टमार्टम रिपोर्ट से मेल नहीं खाता। सुचित्रा का कहना है कि जब उसने पोस्टमार्टम रिपोर्ट मांगी तो उसे यह कहकर मना कर दिया गया कि यह एक सीलबंद दस्तावेज है जो सीधे मामले की सुनवाई कर रहे जज को ही दिया जाएगा। जिस पर सुचित्रा का कहना है कि वह हैरान थी कि जब रिपोर्ट सीलबंद है तो पुलिस अफसर ने उसके वीडियो में ऐसी बातें कहां से पकड़ लीं जो पोस्टमार्टम से मेल नहीं खातीं।
दिलचस्प बात यह है कि हाल के बरसों में पुलिस की ठंडे दिमाग से की गई यह देश की सबसे बुरी हिंसा रही है जिसमें दुकानदार बाप-बेटे को उनके शरीर के भीतर लाठी डालकर ऐसी भयानक हिंसा के साथ मारा गया। जिस हिंसा की जानकारी सुनकर निचली अदालत के जज के अलावा बाकी पूरी दुनिया के दिल हिल गए, उसका बखान करने वाला वीडियो अगर पुलिस के खिलाफ नफरत पैदा कर रहा है तो पुलिस को अपनी हरकतों पर काबू करना चाहिए, न कि सच्चाई बताने वाले वीडियो पर।
और जहां तक किसी के वीडियो से नफरत फैलने का सवाल है, तो आज हिन्दुस्तान में कई तबकों के खिलाफ नफरत फैलाने के लिए महज सच बोलना काफी है। राजनीति का अधिकतर हिस्सा, सरकार का बड़ा हिस्सा, मीडिया का एक हिस्सा, धार्मिक और सामाजिक संगठनों में से बहुत से ऐसे हैं जिनके बारे में सच कहा जाए तो जनता के बीच उनके लिए हिकारत और नफरत के अलावा कुछ नहीं फैलेगा। अभी इस तमिलनाडू से बहुत दूर, हिन्दी-हिन्दुस्तान के बीच उत्तरप्रदेश पुलिस की मुजरिमों के साथ जिस तरह की गिरोहबंदी सामने आई है, और उसके बाद पुलिस की थोक में हत्या करने वाले मुजरिम को जिस तरह मुठभेड़ के नाम पर मारा गया है, उन सबसे पुलिस के लिए लोगों के मन में हिकारत और नफरत ही पैदा हुई है। इसलिए नफरत से बचने का काम, अच्छे कामों से हो सकता है, लोगों के वीडियो, उनके ट्वीट, या उनकी पोस्ट हटवाकर नहीं।
भारत में आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बदहाली कर दी गई है। बहुत से प्रदेशों में पत्रकारों को गिरफ्तार किया जा रहा है, हिरासत में रखा जा रहा है, एक-एक ट्वीट पर लोगों के खिलाफ जुर्म दर्ज हो रहे हैं। हालत यह है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को थाने के स्तर पर तय किया जा रहा है, या प्रदेश में सत्तारूढ़ पार्टी के शहर के दफ्तर में यह तय होता है कि कौन सी कही गई बात जुर्म के दायरे में आती है। यह सिलसिला खतरनाक है, और देश की अदालतें भी इन पर फैसला देने में खासा वक्त ले रही हैं।
इस बीच कल सुप्रीम कोर्ट की खबर आई है कि अदालत ने देश के आईटी कानून में रखी गई अंधाधुंध कड़ी धारा 66-ए को रद्द कर दिया है। अदालत ने इसे असंवैधानिक करार दिया है, और कहा है कि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बुनियादी अधिकार के खिलाफ है। इस फैसले के बाद अब सोशल मीडिया या कहीं और पोस्ट करने के आधार पर किसी की गिरफ्तारी नहीं हो सकेगी। इसके पहले 66-ए के आधार पर पुलिस मनचाही गिरफ्तारियां करते रहती थीं। इधर तमिलनाडू में पुलिस ने यह जलता-सुलगता मुद्दा उठाने वाली युवती से उसका वीडियो हटवाया, और शायद उसके एक-दो दिन के भीतर ही यह आदेश आया है।
अदालतें बात-बात पर अपनी अवमानना की ढाल का इस्तेमाल करने लगती हैं, संसद और विधानसभाएं छोटी-छोटी बातों पर विशेषाधिकार भंग का मुद्दा उठा लेती हैं। देश में इस किस्म के कानूनों पर काबू की जरूरत है, और लोकतंत्र की सभी शाखाओं और संस्थाओं को पहले तो अपना घर सुधारने की फिक्र करनी चाहिए, उसके बाद उंगली उठाने वालों के हाथ काटने का फतवा देना चाहिए। आज जब हम यह लिख रहे हैं उस वक्त हमारे सामने इलाहाबाद हाईकोर्ट की एक दूसरी खबर भी है। 18 जुलाई को वहां के एक जज जस्टिस नारायण शुक्ला रिटायर हुए जो कि भ्रष्टाचार के आरोपों में सीबीआई की नजरों के नीचे थे, और जिन्हें 2018 में ही अदालती कामकाज से अलग कर दिया गया था। एक पिछले सुप्रीम कोर्ट मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने जस्टिस शुक्ला को हटाने की सिफारिश की थी। उन्हें इस्तीफा देने के लिए भी कहा गया था जिससे उन्होंने इंकार कर दिया था। 2018 से अब तक बिना काम बैठाए गए जज दो दिन पहले रिटायर हुए, लेकिन तमाम सुबूत रहते हुए भी हाईकोर्ट जज को हटाना आसान नहीं था क्योंकि उसके लिए संसद में महाभियोग लाना जरूरी होता है। अब अगर इस पर कोई वीडियो बनाए और उसे अदालत अपनी अवमानना माने, तो उसके पहले यह भी सोचने की जरूरत है कि संस्था का अपना बर्ताव, उसके भीतर भ्रष्टाचार को रोकने की नीयत और व्यवस्था है या नहीं है? सवाल पूछने के लिए रिश्वत लेने वाले सांसदों को संसद से बर्खास्त तो किया गया था, लेकिन उनके खिलाफ कोई मुकदमा नहीं चलाया जा सका। तो जब जज और सांसद-विधायक अपने आपको ऐसे सुरक्षा घेरे में रखकर चलेंगे, तो कोई वीडियो जनता के बीच उनके प्रति नफरत फैलाने वाला भी हो सकता है। और अब तो खुद सुप्रीम कोर्ट ने फैसला लिया है कि महज सोशल मीडिया पोस्ट के आधार पर पुलिस किसी की गिरफ्तारी नहीं कर सकती। इस फैसले के बाद लाठी दिखाकर थाने में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की सीमा और परिभाषा तय करना बंद होगा।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)