संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े सरकारी बंगलों पर छोटे कर्मचारियों का घरेलू इस्तेमाल बंद हो
17-Jul-2020 5:55 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : बड़े सरकारी बंगलों पर  छोटे कर्मचारियों का  घरेलू इस्तेमाल बंद हो

(फाईल फोटो : पुलिस परिवार आंदोलन रायपुर)

कोरोना से उपजे लॉकडाऊन के चलते अधिकतर देश-प्रदेशों की सरकारों पर एक ऐसा अभूतपूर्व और अप्रत्याशित बोझ पड़ा है जिससे सबकी कमर टूट गई है। आज अगर सरकारें तनख्वाह देने की हालत में हैं भी, तो भी यह बात साफ है कि योजना के बहुत से काम रोककर, विकास के खर्चों में कटौती करके सरकारें मुफ्त राशन दे रही हैं, इलाज का इंतजाम कर रही हैं, और लॉकडाऊन के नुकसानों से जूझ रही है। यह साधारण नौबत नहीं है, इससे देश शायद एक बरस से और अधिक पीछे चले जाए, कारोबार की जो बदहाली है वह तो है ही, सरकारों की बदहाली भी भयानक है। जनधारणा को सकारात्मक रखने के लिए, और लोगों का मनोबल बनाए रखने के लिए सरकारें अपनी बदहाली को खुलकर बता नहीं रही हैं, लेकिन सभी जगह विकास साल भर से अधिक पिछड़ जाना तय है। ऐसा इसलिए भी है कि सरकार के बंधे-बंधाए खर्च तो उतने ही रहेंगे, जो खर्च विकास पर होना था, वही कोरोना पर और गरीबों को जिंदा रखने पर हो रहा है। नतीजा यह है कि सरकारी अमला तो तनख्वाह पा रहा है, बिजली-फोन का खर्च हो रहा है, लेकिन इसी अमले से जो विकास कार्य होने थे, बस वे ही रूक जाएंगे। कई प्रदेश तो ऐसे हैं जिनके पास तनख्वाह देने के लिए भी पैसे नहीं बचे हैं। 

लेकिन एक नारा इन दिनों हवा में तैर रहा है, आपदा को अवसर में बदलना। इस नारे पर अमल करके केन्द्र सरकार, राज्य सरकारें, और स्थानीय संस्थाएं अपनी हालत सुधार भी सकती हैं। छत्तीसगढ़ के लोगों को याद होगा कि जब यह राज्य मध्यप्रदेश से अलग हुआ था, उस वक्त अविभाजित मध्यप्रदेश की सरकार का स्थापना व्यय (खुद पर खर्च) काफी अधिक था। लेकिन बंटवारे में जिन कर्मचारियों को छत्तीसगढ़ आना था उनमें से बहुत से नहीं आए, और बहुत से संस्थान छत्तीसगढ़ में शुरू ही नहीं हुए, इस तरह छत्तीसगढ़ एक काफी कम स्थापना व्यय के साथ शुरू हुआ राज्य था। फिर राज्य के पहले वित्तमंत्री रामचन्द्र सिंहदेव किसी कंजूस-सूदखोर बनिये से भी अधिक तंगहाथ नेता थे। वे सरकारी खजाने को अपनी जेब से अधिक सावधानी से इस्तेमाल करते थे, और किसी तरह की फिजूलखर्ची उन्होंने नहीं होने दी। जितने किस्म के खर्च के प्रस्ताव उनके सामने जाते थे, वे मुख्यमंत्री अजीत जोगी से लडक़र भी, बहस भी करके उनको खारिज करवा देते थे। नतीजा यह हुआ कि पहले तीन बरसों में छत्तीसगढ़ सरकार का स्थापना व्यय बिल्कुल ही कम बढ़ा, इतनी किफायत बरती गई कि जब जोगी सरकार की कांग्रेस पार्टी चुनाव हार गई, तो कांग्रेस के कई नेताओं ने उसकी तोहमत रामचन्द्र सिंहदेव की किफायत पर लगाई थी। 

आज सरकारों के सामने किफायत का एक अभूतपूर्व मौका है। आज एक-एक मंत्री, और हर बड़े अफसर के बंगलों पर उनकी हैसियत के मुताबिक आधा दर्जन से लेकर दर्जनों तक कर्मचारी बेगारी के काम में झोंके गए हैं। एक-एक बड़े बंगले पर छोटे से छोटे घटिया काम के लिए भी सरकारी कर्मचारियों को लगा दिया जाता है, और वे कहीं घरेलू कपड़े धोते हैं, कहीं कुत्तों को नहलाते हैं, कहीं गाय का दूध दुहते हैं, और कहीं घास काटते हैं। पूरे प्रदेश में दसियों हजार सरकारी कर्मचारियों का ऐसा अमानवीय बेजा इस्तेमाल हो रहा है जो कि उनके बुनियादी मानवीय सम्मान के भी खिलाफ है। जिन सिपाहियों को बंदूक की ट्रेनिंग मिलनी चाहिए, वे अगर घरों में कपड़े धो रहे हैं, कार धो रहे हैं, कुत्तों को घुमा रहे हैं, बच्चों को उठाकर घूम रहे हैं, तो यह सिलसिला उनको इंसान से भी नीचे के दर्जे का इंसान बनाता है। यह खत्म करना चाहिए। आज जब सरकार के पास कटौती और किफायत बरतने की एक मजबूरी है, तो घरों पर कर्मचारियों की ऐसी तैनाती पूरी तरह खत्म करनी चाहिए, क्योंकि यह एक ऐसा अघोषित इंतजाम है जो कि मानवाधिकारों के भी खिलाफ है, और एक आर्थिक अपराध भी है। राज्य सरकार को तुरंत यह सिलसिला खत्म करना चाहिए, और अपने सबसे निचले दर्जे के कर्मचारियों को इंसान की तरह जीने का एक मौका देना चाहिए। खुद कर्मचारी संगठनों को चाहिए कि वे अपने लोगों के ऐसे घरेलू इस्तेमाल के खिलाफ एक आंदोलन छेड़ें। लोगों को याद होगा कि दो बरस पहले रमन सरकार के दौरान एक पुलिस-परिवार आंदोलन छिड़ा था, जिसमें प्रदेश भर से पुलिसवालों के घर के लोग रायपुर पहुंच रहे थे, और पुलिस ने फौजी अंदाज में नाकाबंदी करके लोगों को जगह-जगह रोका था, गाडिय़ों से उतारा था। उसके बाद यह लफ्फाजी तो बहुत हुई थी कि पुलिस कर्मचारियों की काम की स्थितियां सुधारी जाएंगी, लेकिन हुआ कुछ नहीं था। बाकी कई विभागों की तरह पुलिस विभाग के सबसे छोटे कर्मचारियों का घरेलू नौकरों से भी अधिक बुरा इस्तेमाल किया जाता है। इसे लेकर सरकार को अपने हर अफसर से एक हलफनामा लेना चाहिए कि उसके घर पर कोई सरकारी कर्मचारी काम नहीं करते। जब सरकार हर कारोबारी से अपने दुकान, कारखाने, और दफ्तर पर यह नोटिस लगवा सकती है, यह हलफनामा ले सकती है कि वहां कोई बाल मजदूर काम नहीं करते, तो सरकारी बंगलों के बाहर ऐसी तख्ती क्यों नहीं लगाई जाती कि वहां कोई सरकारी कर्मचारी काम नहीं कर रहे हैं। ऐसा एक कड़ा फैसला प्रदेश में दसियों हजार सरकारी कर्मचारियों को इज्जत की एक जिंदगी लौटाएगा, और सरकार के हर महीने दसियों करोड़ रूपए भी बचाएगा। 

इसी तरह जब यह समझने की जरूरत है कि जब सरकार के अपने नियम किसी भी अधिकारी के एक से अधिक गाड़ी के इस्तेमाल पर रोक लगाते हैं, तब उनके बंगलों पर पांच-पांच, दस-दस गाडिय़ां किस तरह खड़ी रहती हैं? कल को अगर कोई सामाजिक संगठन बंगलों के सामने धरना देकर ऐसी जांच मांगने लगे, तो सरकार क्या कर पाएगी? इसलिए बेहतर यही है कि सरकार अपने बिगड़ैल आला नेताओं, और आला अफसरों की आदतों को सुधार ले। वरना तमाम छोटे कर्मचारियों को यह चाहिए कि उनसे जिन बड़े सरकारी बंगलों पर काम लिया जा रहा है, वहां की वीडियो रिकॉर्डिंग अपने फोन पर करें, और अपने कर्मचारी संघ के साथ मिलकर अपने ऐसे घरेलू इस्तेमाल का विरोध करें। अभी कल ही प्रदेश के पुलिस प्रमुख ने पुलिस कर्मचारियों और उनके परिवारों की दिक्कतों को दूर करने के लिए एक कमेटी बनाई है। लोगों को चाहिए कि ऐसी कमेटी के सामने छोटे कर्मचारियों के अमानवीय उपयोग के मुद्दे को रखें। जरूरी नहीं है कि कोई पुलिस कर्मचारी ही वहां मुद्दे रखे, बाहर के लोग भी ऐसी कमेटी के सामने बात रख सकते हैं, क्योंकि सरकार के भीतर के छोटे कर्मचारी बड़े अफसरों के आतंक में हो सकता है कि आवाज न उठाएं। राज्य सरकार को किफायत और इंसानियत दोनों ही हिसाब से तुरंत इस पर कार्रवाई करनी चाहिए। 

पिछले एक हफ्ते में दो ऐसी घटनाएं हुई हैं जो बताती हैं कि छोटे कर्मचारी भी खुलकर बड़े से बड़े लोगों का जमकर विरोध कर सकते हैं। गुजरात में एक महिला सिपाही से एक मंत्री का बेटा सडक़ पर इतनी बदतमीजी करते रहा कि उस वीडियो को देखकर लगता है कि उस बेटे को तुरंत ही जेल भेजना था। लेकिन कानून की बात करती हुई इस हौसलमंद सिपाही युवती को ही जब अफसरों ने मौके से घर जाने कह दिया, तो उसने हताश होकर इस्तीफा दे दिया, लेकिन अफसरों की मनमानी और मंत्री के गुंडे बेटे के सामने सिर नहीं झुकाया। दूसरा मामला दो दिन पहले असम में आया है जहां मंझले दर्जे की एक पुलिस अफसर ने अदालत में यह हलफनामा दिया है कि एक नशा-तस्कर के खिलाफ मामले को कमजोर करने के लिए मुख्यमंत्री ने उस पर दबाव डाला। यह हौसला देश भर में लोगों के बीच पैदा हो सकता है, और वैसे किसी दिन के लिए आज के बददिमाग बड़े लोगों को सावधान रहना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक) 

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