संपादकीय
केन्द्र सरकार ने स्कूली बच्चों की ऑनलाईन पढ़ाई के लिए राज्यों को कई तरह के निर्देश दिए हैं। इनमें कहा गया है कि पहली क्लास के और पहले की क्लास सिर्फ आधे घंटे की लगें, पहली से आठवीं तक पौन-पौन घंटे की दो क्लास लगें, और नवमीं से बारहवीं तक चार कक्षाएं ऑनलाईन चलें। वैसे तो शिक्षा राज्य का विषय है, लेकिन कोरोना-लॉकडाऊन के चलते केन्द्र सरकार ने बहुत से मुद्दों पर अपने सामान्य अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर भी निर्देश जारी किए हैं, जिन्हें आमतौर पर राज्यों ने बिना किसी विवाद के लागू कर लिया है। स्कूलों की कक्षाएं कितने मिनट की ऑनलाईन रहें, यह सामान्य समझ से तो राज्य का मामला है, लेकिन जब तक केन्द्र-राज्य संबंधों की कोई टकराहट इस मुद्दे पर शुरू न हो, यह बिना विवाद चल रहा है।
दूसरी तरफ ऑनलाईन पढ़ाई को लेकर धीरे-धीरे देश के बहुत से जानकार लोगों में इस बात को लेकर नाराजगी हो रही है कि इसमें जितनी पढ़ाई हो रही है, उससे कहीं अधिक गहरी खाई खुद रही है। ऑनलाईन-डिजिटल पढ़ाई के औजारों वाले बच्चों की पढ़ाई हो पा रही है, लेकिन उससे वंचित तबकों के बच्चे मुकाबले में पीछे रह जा रहे हैं। छत्तीसगढ़ राज्य के शिक्षा सचिव का यह मानना है कि सब बच्चों का एक साथ भला हो सके ऐसा कोई सुझाव सामने आए, तो सरकार तुरंत उस पर गौर करेगी, लेकिन तब तक तो जितने भी बच्चों का भला हो सकता है वह हो जाए, ऐसी कोशिश है।
यह बात सही है कि आज कोरोना के इस दौर के लिए देश की कोई भी सरकारें तैयार नहीं थीं। किसी ने भी ऐसी कल्पना नहीं की थी, और पढ़ाई के ऐसे औजारों के बारे में सोचा नहीं था। वैसे भी समाज में अधिक समानता तो है नहीं, इसलिए अलग-अलग आय वर्ग के बच्चों के बीच यह फर्क तो था ही, अब ऑनलाईन पढ़ाई के नाम पर यह फर्क और बढ़ गया है। स्मार्टफोन सहित और स्मार्टफोन रहित बच्चों के बीच फर्क हो गया है, इंटरनेट सहित, और इंटरनेट रहित बच्चों के बीच फर्क हो गया है। ऐसे फर्क से उनकी पढ़ाई पर भी फर्क पड़ रहा है, और अब बस यही उम्मीद की जा सकती है कि साल के आखिर में केन्द्र और राज्य सरकारें इन बच्चों से कोई इम्तिहान लेने की न सोचने लगें, क्योंकि उससे तो पढ़ाई की गैरबराबरी इम्तिहान में सिर चढक़र बोलेगी।
वैसे भी लॉकडाऊन के बीच में देश के बच्चों के बीच भयानक गैरबराबरी का एक मामला सामने आया जिसमें राजस्थान के कोटा के कोचिंग-उद्योग में दाखिला परीक्षाओं के लिए तैयार किए जा रहे बच्चों को उनके घर भेजने का एक मुकाबला राज्यों के बीच चला। उससे पहली बार समझ में आया कि यह उद्योग किस बड़े पैमाने पर चल रहा है, और इसके तराशे और तैयार किए गए बच्चे देश के बाकी बच्चों के मुकाबले नामी कॉलेजों में दाखिले की संभावना कितनी और कैसी अधिक रखते हैं। यह गैरबराबरी बहुत से मामलों में है। देश में जो अच्छी चीजें स्कूली शिक्षा में है, उनमें दोपहर का भोजन है जो कि गरीब बच्चों का पेट भरा हुआ रखता है, मुफ्त की किताबें हैं, मुफ्त की पोशाक है, और लड़कियों के लिए कई राज्यों में मुफ्त साइकिलें हैं। इस बराबरी से बच्चे आगे के किसी बड़े मुकाबले के लिए तो तैयार नहीं होते, लेकिन वे बुनियादी तालीम हासिल कर लेते हैं। सरकार की इतनी मदद के बिना वे कहीं आगे नहीं बढ़ पाते। लेकिन आज कोरोना के चलते और आने वाले कई महीनों तक कोरोना का असर रहने की आशंकाओं से यह जरूरत आ खड़ी हुई है कि स्कूलों में आए बिना बच्चों को बराबरी से कैसे पढ़ाया जा सकता है, इसके बारे में केन्द्र और राज्य सरकारें सोचें। गरीब घरों में से थोड़े से घर ऐसे हो सकते हैं जिनमें स्मार्टफोन हो, या जिन्हें निजी या सार्वजनिक वाईफाई हासिल हो, लेकिन इसकी कोई गारंटी रहती नहीं है, और बहुत से बच्चों को तो यह सहूलियत उस समय मिल पाती है जब मां-बाप काम करके लौटते हैं, लेकिन उस वक्त शायद ही कहीं कोई ऑनलाईन क्लास चलती हो। देश भर में आज बड़े पैमाने पर एक ऐसी योजना बनाने की जरूरत है कि स्कूल आए बिना बच्चों को पढ़ाने की अगर नौबत जारी रहती है, तो यह पढ़ाई कैसे हो सके। हो सकता है कि आपदा के बीच एक अवसर निकले, और बच्चों के लिए अधिक बराबरी की एक शिक्षा व्यवस्था जन्म ले सके। आज शहर और गांव, गरीब और अमीर इलाकों के बच्चों के बीच सुविधाओं का जो फासला है, हो सकता है कि नई टेक्नालॉजी के तहत ऐसी कोई राह निकले कि यह फासला घट सके।
फिलहाल आज जब केन्द्र और राज्य, और बच्चों के परिवार कोई भी इस नौबत के लिए तैयार नहीं हैं तो यह समझना जरूरी है कि इस बरस क्या किया जाए। हमारा ख्याल है कि सरकारें अनायास आ गई इस मुसीबत का इस्तेमाल करके स्कूल-कॉलेज सभी के लिए या तो छह महीने का एक सेमेस्टर खत्म करके पढ़ाई का कैलेंडर बदल दें, या फिर जरूरत आगे और बढ़े तो यह पूरा साल जीरो ईयर घोषित करके बच्चों को किसी भी तरह की पढ़ाई-परीक्षा से मुक्त रखें, और उन्हें असल जिंदगी पढऩे दें। स्कूल-कॉलेज का पाठ्यक्रम बहुत मायने नहीं रखता है, और बच्चों को इसके दबाव से परे भी इस एक बरस में आसानी से, बिना मुकाबले क्या-क्या बताया जा सकता है उसके बारे में सोचना चाहिए। इसके लिए लीक से हटकर एक सोच की जरूरत पड़ेगी जिसका विरोध भी हो सकता है। लेकिन एक तरफ तो कोरोना का खतरा स्कूल-कॉलेज पर बना ही रहेगा, इसलिए भी उन्हें टालना जरूरी है, दूसरी तरफ पढ़ाई के हालात की गैरबराबरी के चलते हुए इस पढ़ाई को स्थगित रखना ठीक है। कमजोर तबकों के बच्चे इस एक बरस में फोन और इंटरनेट के बिना साथ के बच्चों से और कमजोर न हो जाएं, इसे देखना भी जरूरी है। इसलिए इस साल का इस्तेमाल स्कूल-कॉलेज के बच्चों के लिए पाठ्यक्रम से परे ही करने की एक हौसलामंद पहल के लायक है। राज्य सरकारों में भी जिनमें ऐसी मौलिक सोच के लिए राजनीतिक इच्छा-शक्ति हो सकती है, उन्हें इस बारे में तैयारी करनी चाहिए। इसके लिए कल्पनाशील योजनाशास्त्री भी लगेंगे, और बंधे-बंधाए ढर्रे पर काम करने वाले अफसरों से भी पार पाना पड़ेगा। देखते हैं कोई राज्य केन्द्र की सोच से अलग अपनी मौलिक सोच से इस सामाजिक समानता के लिए कोशिश कर पाते हैं या नहीं। पाठ्यक्रम से परे जिंदगी और दुनिया को, जिंदगी की बेहतर चीजों को, कुदरत और आसपास को समझना एक बहुत महत्वपूर्ण काम हो सकता है, लेकिन ऐसी पहल साल भर की आम पढ़ाई के मुकाबले बहुत अधिक मेहनत की भी हो सकती है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)