सामान्य ज्ञान
वर्चुअल वाटर यानी आभासी पानी। पिछले कई सालों में वर्चुअल वाटर एक बड़ा मुद्दा बन गया है, लेकिन अब भी कई देशों की सरकारें इस मुद्दे को गंभीरता से लेने को तैयार नहीं हैं। लंदन स्थित किंग्स कॉलेज के प्रोफेसर जॉन एंथनी एलन ने इस सिद्धांत को रचा। इसके लिए उन्हें 2008 में स्टॉकहोम वाटर पुरस्कार से सम्मानित भी किया गया। इस पुरस्कार के लिए स्टॉकहोम स्थित अंतर्राष्ट्रीय वाटर इंस्टिट्यूट विजेताओं का चयन करता है ।
हर वस्तु के उत्पादन के पीछे आभासी पानी की छाप होती है जिसे विज्ञान की भाषा में वर्चुअल वाटर फुट प्रिंट कहा जाता है। प्रोफेसर एलन के अनुसार वर्चुअल वाटर वह पानी है, जो किसी वस्तु को उगाने में, बनाने में या उसके उत्पादन में लगता है। एक टन गेहूं उगाने में करीब एक हजार टन पानी लगता है। कभी-कभी इससे भी ज्यादा। इसी तरह एक कॉफी के लिए 140 लीटर पानी खर्च हो जाता है।
मांसाहारी चीजों कि तुलना में शाकाहारी खाद्य पदार्थों के पीछे कम पानी लगता है। एक किलो मांस पैदा करने के पीछे करीब 15 हजार 500 लीटर पानी खर्च होता है। वहीं एक किलो अंडों में करीब 3 हजार 300 लीटर पानी लगता है. औद्योगिक वस्तुओं के उत्पादन में भी वर्चुअल वाटर सिद्धांत लागू किया जा सकता है। एक टन के वजन वाली एक कार के पीछे लगभग चार लाख लीटर पानी लगता है। आने वाले सालों में खाद्यान की मांग कई गुना बढ़ेगी। इस मांग को पूरा करने के लिए हमारे पास पर्याप्त पानी नहीं होगा। अगर हम इसी गति से आगे बढ़ते रहे तो आने वाले सालों में हमें दिक्कतों का सामना करना पड़ सकता है।
वर्चुअल वाटर के रिसर्चरों ने पाया है कि एशिया में रह रहा हर व्यक्ति एक दिन में औसतन 1,400 लीटर आभासी पानी का इस्तेमाल करता है, जबकि यूरोप और अमेरीका में 4 हजार लीटर।