नई दिल्ली, 11 जुलाई। देश के सबसे वरिष्ठ और अनुभवी नेता शरद पवार ने ‘सामना’ को धमाकेदार ‘मैराथन’ साक्षात्कार दिया। शरद पवार राजनीति में कौन-सी नीति अपनाते हैं, क्या बोलते हैं, इसे हमेशा ही महत्व रहा है। इस बार शरद पवार ‘सामना’ के माध्यम से बोले। वे जितने मार्गदर्शक हैं, उतने ही खलबली मचानेवाले भी हैं। महाराष्ट्र की ‘ठाकरे सरकार’ को बिल्कुल भी खतरा नहीं! ऐसा उन्होंने विश्वासपूर्वक कहा है। देवेंद्र फडणवीस द्वारा किए गए सभी आरोपों का पवार ने रोकठोक जवाब दिया। सरकार बनाने के संदर्भ में भाजपा से कभी भी चर्चा नहीं हुई। फडणवीस राष्ट्रीय स्तर पर निर्णय प्रक्रिया में कभी भी नहीं थे। उन्हें कुछ पता नहीं, ऐसा ‘विस्फोट’ शरद पवार ने किया।
लॉकडाउन, कोरोना, चीन का संकट, डगमगाती अर्थव्यवस्था, ऐसे सभी सवालों पर शरद पवार ने दिल खोलकर बोला है।
शरद पवार ने एक भी सवाल को टाला नहीं। ढाई घंटे का यह साक्षात्कार राजनीतिक इतिहास का दस्तावेज साबित होगा!
‘लॉकडाउन’ की बेड़ियों से बाहर आए देश के वरिष्ठ नेता से पूछा, ‘फिलहाल निश्चित तौर पर क्या चल रहा है?’
इस पर उन्होंने कहा, खास कुछ नहीं चल रहा। क्या चलेगा? एक तो देश में और राज्य में क्या चल रहा है इस पर नजर रखना और अलग-अलग लोगों से संवाद करना, राजनीति के बाहर के लोगों से मैं बात करता हूं और कुछ अच्छा पढ़ने मिले तो पढ़ता हूं, इसके अलावा कुछ खास नहीं चल रहा है।
लॉकडाउन के ये फायदे भी हैं।
– संकट तो है ही लेकिन उसमें जो अच्छा किया जा सके, सकारात्मक दृष्टिकोण रखा जा सके वह करना जरूरी है। इसके महत्व की वजह यह कि अभी कोरोना का जो संकट विश्व पर आया है, उसके चलते लॉकडाउन हुआ है। सभी चीजें बंद हैं। दुर्भाग्यवश लॉकडाउन जैसा जो निर्णय सभी को लेना पड़ा उसका यह परिणाम है। समझो यह लॉकडाउन काल नहीं होता, यह संकट नहीं होता तो शायद मेरे बारे में कुछ अलग दृश्य देखने को मिला होता यह निश्चित!
लेकिन लॉकडाउन अभी समाप्त नहीं हुआ है। जीने पर बंदिशें लगी हैं। इंसान को एक तरह से बेड़ियां ही लग गई हैं। मनुष्य जकड़ गया है। राजनीति जकड़ गई है, उद्योग जकड़ गया है। आप कई वर्षों से समाजसेवा और राजनीति में हैं। आपने कई बार भविष्य का वेध लिया। आपको सपने में भी कभी ऐसा लगा था क्या कि इस तरह के संकटों का सामना इंसानों को करना पड़ेगा?
– कभी भी नहीं लगा। मेरे पठन में कुछ पुराने संदर्भ हैं। खासकर कांग्रेस पार्टी का इतिहास पढ़ने में। कांग्रेस पार्टी की स्थापना जो हुई, उसका एक इतिहास है। वर्ष १८८५ में कांग्रेस की स्थापना पुणे में होनी थी और वहां अधिवेशन भी तय हुआ था। लेकिन प्लेग की बीमारी उसी समय बड़े पैमाने पर फैली। इंसान मरने लगे इसलिए पुणे की जगह मुंबई में अधिवेशन हुआ। आज जिस जगह को अगस्त क्रांति मैदान या ग्वालिया टैंक कहा जाता है, वहां कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। उस समय के प्लेग संक्रमण का पूरा इतिहास लिखा गया है। उस समय ऐसा दृश्य था कि राज्य के कई भागों में इंसान प्लेग के कारण मर रहे थे। सभी व्यवहार थम गए थे। लेकिन यह पढ़ी हुई बातें है क्योंकि उस समय मेरा जन्म नहीं हुआ था। और आज कभी अपेक्षा की नहीं, कभी विचार किया नहीं इस तरह का दृश्य है। यह दृश्य सिर्फ महाराष्ट्र तक सीमित नहीं बल्कि पूरे विश्व में है। कभी ऐसा अनुभव होगा, ऐसा नहीं सोचा था। लेकिन परिस्थिति का सामना करना ही पड़ेगा।
आज इंसान, इंसान से घबरा रहा है। ऐसा दृश्य है…
– हां, घर-घर में यही दृश्य है। डॉक्टरों का भी सुझाव है कि एक-दूसरे से जितना दूर रह सकें, उतना दूर रहें। तुम सावधानी बरतो नहीं तो उसका दुष्परिणाम सहन करना पड़ेगा। इसलिए पूरा विश्व चिंतित है। इस कालखंड में एक ही चीज बड़े पैमाने में देखने को मिल रही है कि समाज के सभी घटकों में एक तरह की घबराहट है। अब धीरे-धीरे वह कम होने लगी है, यह सही है। लेकिन इस घबराहट के चलते इंसान घर के बाहर नहीं निकलेगा ऐसा कभी लगा नहीं था, वह हमें देखने को मिला है।
अलग तरह का कर्फ्यू लगा है कई बार…
– मुझे याद है कि पहले चीन व पाकिस्तान का युध्द हुआ तब एक-दो दिन का कर्फ्यू रहता था। दुश्मन देश हवाई जहाज से हमला करेगा, ऐसी खबरें आती थीं। तब इस तरह का कर्फ्यू रहता था। लोग घरों में ही रहते थे लेकिन वह भी एक दिन के लिए, आधे दिन के लिए या फिर एक रात के लिए यह कर्फ्यू हुआ करता था। लेकिन अब कोरोना के चलते लोग महीना-महीना, दो-दो महीना, ढाई महीना घर के बाहर नहीं निकले। यह दृश्य कभी देखने को मिलेगा, ऐसा नहीं सोचा था। अब एक अलग ही स्थिति कोरोना के चलते हमें देखने को मिली।
लॉकडाउन का शुरुआती काल सभी ने बिल्कुल सख्ती से पालन किया। चाहे वह कलाकार हो, हमारी तरह राजनीतिज्ञ हो या उद्योजक हो।
– दूसरा क्या विकल्प था? घर पर रहना ही सबसे सुरक्षित उपाय था।
आप तो निरंतर घूमनेवाले नेता हैं। हमेशा लोगों के बीच रहनेवाले नेता हैं। इस लॉकडाउन का शुरुआती काल आपने कैसे व्यतीत किया?
– शुरुआती महीने-डेढ़ महीने मैं अपने घर की चौखट से बाहर तक नहीं गया। प्रांगण में भी नहीं गया। चौखट के अंदर ही रहा। उसकी कुछ वजहें थीं। एक तो घर से प्रेशर था। इसके अलावा सभी विशेषज्ञों ने कहा था कि ७० से ८० आयु वर्ग के लोगों को बिल्कुल सावधानी बरतने की जरूरत है या यह आयु वर्ग बिल्कुल व्हलनरेबल है। मैं भी इसी आयु वर्ग में आता हूं इसलिए अधिक ध्यान देने की जरूरत है। ऐसा घर के लोगों का आग्रह था और न कहें तो मन में उत्पीड़न। इसलिए मैं उस चौखट के बाहर कहीं गया नहीं। ज्यादा समय टेलीविजन, पढ़ाई के अलावा कुछ दूसरा नहीं किया।
हमने आपका एक वीडियो देखा, जो सुप्रियाताई ने डाला था। उसमें आप बरामदे में घूम रहे हैं और गीत-रामायण सुन रहे हैं।
– हां, इस काल में खूब गीत सुने। भीमसेन जोशी के सभी अभंग सुने। ये सभी अभंग दो-तीन-चार बार नहीं बल्कि कई बार सुना। पुराने दौर में हिंदी में ‘बिनाका गीतमाला’ होती थी। अब वह नए कलेवर में उपलब्ध है। उसे भी बार-बार सुनने का मौका इस काल में मिला। संपूर्ण गीत-रामायण दोबारा सुना। ग. दि. माडगुलकर ने क्या जबरदस्त कलाकृति इस देश, विशेष रूप से महाराष्ट्र की और मराठी लोगों की सांस्कृतिक विश्व में निर्माण करके रखी इसका दोबारा अनुभव हुआ।
आपका राममंदिर के आंदोलन से कभी संबंध नहीं रहा लेकिन गीत-रामायण से आता है…
– नहीं, उस आंदोलन से कभी संबंध नहीं रहा।
पर रामायण से संबंध आया…
– वह गीत-रामायण के माध्यम से!
कोरोना का संकट तो रहेगा ही, ऐसा विश्व के विशेषज्ञों का मानना है। यह संकट इतनी जल्दी दूर नहीं होगा। ये ऐसे ही रहेगा, लेकिन लॉकडाउन का संकट कब तक रहेगा, आपको क्या लगता है?
– एक बात तो इस काल में स्पष्ट हो गई है कि यहां से आगे आपको, मुझे, हम सभी को कोरोना के साथ जीने की तैयारी रखनी होगी। कोरोना हमारी दैनिक जिंदगी का एक हिस्सा बन रहा है, इस प्रकार की बात विशेषज्ञों द्वारा कही गई है। इसलिए अब हमें भी इसे स्वीकारना ही होगा। इस परिस्थिति को ध्यान में रखकर ही आगे जाने की तैयारी करनी होगी। सवाल है लॉकडाउन का। चिंताजनक परिस्थिति निर्माण करती है लॉकडाउन।
मतलब लॉकडाउन के साथ भी जीना होगा क्या?
– नहीं। हर्गिज नहीं। लॉकडाउन के साथ हमेशा जीना होगा ऐसा मुझे नहीं लगता। हाल ही में मैंने कुछ विशेषज्ञों से बात की। उन्होंने कहा कि लगभग जुलाई महीने के तीसरे सप्ताह से यह ट्रेंड नीचे आएगा। अगस्त और सितंबर में पूरा खाली जाएगा और दोबारा नॉर्मलसी आएगी। लेकिन इसका मतलब कोरोना हमेशा के लिए समाप्त हो गया, ऐसा नहीं मान लेना है। कभी भी रिवर्स हो सकता है। इसलिए आगे से हमें कोरोना को लेकर ध्यान देना होगा और अपने सभी व्यवहारों में सावधानी लेने की जरूरत है। लेकिन ऐसी कोरोना जैसी परिस्थिति दोबारा आई तो लॉकडाउन करने की नौबत आती है और लॉकडाउन करने से जो परिणाम हुए, उदाहरणार्थ वित्तीय व्यवस्था पर हुआ, परिवार में हुआ, व्यापार पर हुआ, यात्रा पर हुआ। यह सब हमने अभी देखा है। इसके आगे ऐसी परिस्थिति दोबारा न आए ऐसी हमारी प्रार्थना है, लेकिन वित्तीय संकट आ ही गया तो उसके लिए हम सबकी तैयारी होनी चाहिए।
इसके लिए समाज में जागरूकता लाने की जरूरत है, ऐसा क्यों लगता है?
– हां, निश्चित ही। मेरा तो साफ मानना है कि, यहां से आगे अब अपने पाठ्यपुस्तक में यह दो-ढाई महीने के कालखंड का जो हमने अनुभव लिया है, इस संबंध में जो देखभाल और सावधानी लेने की जरूरत है, उस पर आधारित एक दूसरा पाठ पाठ्यपुस्तक में होना जरूरी है।
पिछले कुछ दिनों से जो खबरें आ रही हैं उसके आधार पर पूछ रहा हूं कि लॉकडाउन के संदर्भ में आपकी भूमिका और राज्य के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे की भूमिका अलग है। मतभेद है।
– बिल्कुल नहीं। वैâसा मतभेद? मतभेद किस लिए? इस पूरे काल में मेरा मुख्यमंत्री के साथ उत्तम संवाद था। आज भी है।
पर लॉकडाउन शिथिल करें, आपका ऐसा मानना था और उस संदर्भ में मतभेद था, ऐसा मीडिया में आया।
– मीडिया में क्या आ रहा है, उसे आने दो। एक बात ध्यान देनी चाहिए। अखबारों की भी कुछ समस्या होती है। जैसे लॉकडाउन के चलते हमें घर से बाहर निकलते नहीं बन रहा। हमारे बहुत से काम करते नहीं बन रहे। बहुत सी एक्टिविटीज रुक गई। इसका परिणाम जैसे बहुत से घटकों पर हुआ है वैसे अखबारों पर भी हुआ है। मुख्य परिणाम यानी उन्हें जो खबर चाहिए, वह खबर देनेवाले जो उद्योग हैं, कार्यक्रम हैं, वो कम हुए और इसलिए जगह भरने संबंधित जिम्मेदारी उन्हें टालते नहीं बन रही। फिर इनमें और उनमें नाराजगी है, ऐसी खबरें दी जा रही हैं। दो-तीन दिन से मैं पढ़ रहा हूं कि हमारे यानी कांग्रेस, राष्ट्रवादी और शिवसेना में मतभेद है। उसमें रत्तीभर भी सच्चाई नहीं, लेकिन ऐसी खबरें आ रही हैं। आने दो!
मेरा सवाल ऐसा था कि लॉकडाउन धीरे-धीरे हटाएं, ऐसी आपकी भूमिका है। लोगों को छूट देनी चाहिए, ऐसा आपका कहना है।
– देखिए, इसमें मेरा साफ कहना है कि शुरुआती काल में कड़ाई से लॉकडाउन करने की आवश्यकता थी। उसका पालन मुख्यमंत्री ठाकरे के नेतृत्व में महाराष्ट्र में हुआ। यहां वैसी ही आवश्यकता थी। इतनी कठोरता नहीं की गई होती तो शायद न्यूयॉर्क जैसा हाल यहां हुआ होता। हम न्यूयॉर्क के बारे में खबरें पढ़ते हैं कि हजारों लोगों को इस संकट के चलते मौत के मुंह में जाना पड़ा। वही स्थिति यहां आ गई होती। यहां सख्ती से लॉकडाउन लागू हुआ और विशेष रूप से लोगों ने सहयोग भी किया। इसलिए यहां की परिस्थिति सुधारने में मदद मिली, नहीं तो अनर्थ हो गया होता। पहले दो-ढाई महीने इसकी आवश्यकता थी। इस बारे में मुख्यमंत्री ठाकरे और राज्य सरकार का दृष्टिकोण सौ प्रतिशत सही था। हम सबका इसे मन से समर्थन था।
लॉकडाउन का सबसे बड़ा फटका मजदूरों और उद्योगपतियों को लगा इसलिए शिथिलता लाएं ऐसा आपका मत था…
– इस काल में मैंने कइयों से चर्चा की, उसमें उद्योगपति भी थे। मजदूर संगठनों के लोग भी थे। उनसे चर्चा करने के बाद मेरी एक राय बनी, वो मैंने मुख्यमंत्री के कानों पर जरूर डाली। इसे मतभेद नहीं कहते। स्पष्ट कहें तो कुछ जगह, उदाहरणार्थ दिल्ली। दिल्ली में रिलेक्शेसन किया गया। क्या हुआ वहां? उसका नुकसान हुआ। लेकिन व्यवहार धीरे-धीरे शुरू हुआ। कर्नाटक के सरकार ने भी रिलेक्शेसन किया। वहां भी कुछ परिणाम हुआ, नहीं ऐसा नहीं, लेकिन कर्नाटक में भी व्यवहार शुरू हुआ। यह महत्वपूर्ण है। इस तरीके से कदम रखना होगा क्योंकि समाज की, राज्य की, देश की वित्त व्यवस्था पूरी तरह उध्वस्त हुई तो कोरोना से ज्यादा उसका दुष्परिणाम आगे की कुछ पीढ़ियों को सहना पड़ेगा। इसलिए ही वित्त व्यवस्था को दोबारा कैसे संवारा जा सकता है, इस दृष्टि से ध्यान देते हुए हम आगे कैसे जाएं, इसका विचार करना होगा। तब तक का निर्णय लेना होगा। इसका मतलब सब खोल दो, ऐसा नहीं है लेकिन थोड़ी-बहुत तो अब धीरे-धीरे ढील लेने की जरूरत है, वैसे वो दी गई है। उदाहरणार्थ परसों मुख्यमंत्री ठाकरे ने सलून शुरू करने के बारे में निर्णय लिया। उसकी आवश्यकता थी क्योंकि हमारे कई मित्र जब मिलते थे, उन्हें देखकर उनके सिर पर इतने बाल हैं, ये पहली बार पता लगा। कोरोना का परिणाम! दूसरी बात ऐसी कि इस व्यवसाय में आए लोगों की पारिवारिक समस्या काफी बढ़ने लगी थी, उस दृष्टि से सलून शुरू करने का निर्णय मुख्यमंत्री ने लिया और वो मेरी राय से योग्य निर्णय था।
मतलब मुख्यमंत्री ने अपने ढंग से लॉकडाउन शिथिल करने का निर्णय लिया…
– निश्चित ही मुख्यमंत्री ठाकरे द्वारा लिया गया निर्णय कुछ लोगों को थोड़ी देर से लिया गया लगता होगा, लेकिन उन्होंने यह निर्णय सही समय पर लिया है। मुख्यमंत्री का जो स्वभाव है, यह निर्णय उस स्वभाव के अनुकूल ही है। अर्थात निर्णय लेना ही है परंतु बेहद सतर्कता के साथ। निर्णय लेने के बाद कुछ दुष्परिणाम न हो, यह जितना ज्यादा सुनिश्चित किया जा सके, उतना करने के बाद लेना चाहिए और फिर कदम आगे बढ़ाना चाहिए। एक बार कदम बढ़ाने के बाद पीछे नहीं लेना है, यह उनकी कार्यशैली है।
बालासाहेब ठाकरे और उद्धव ठाकरे की कार्यशैली में यह अंतर है तो…
– सही है… यह अंतर है। वैसे यह रहेगा ही।
बालासाहेब ठाकरे फटाफट निर्णय लेकर फैसला सुना देते थे। लेकिन बालासाहेब कभी भी सत्ता में नहीं थे और उद्धव ठाकरे प्रत्यक्ष मुख्यमंत्री पद की कुर्सी पर हैं…
– यह अंतर भी है ही ना। बालासाहेब प्रत्यक्ष सत्ता में नहीं थे, फिर भी सत्ता के पीछे एक मुख्य घटक थे। उनके विचारों से महाराष्ट्र में सत्ता आई, महाराष्ट्र और देश ने देखा। आज विचारों से सत्ता नहीं आई लेकिन सत्ता प्रत्यक्ष कृति से लाने में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आज के मुख्यमंत्री ठाकरे की है। यह फर्क महत्वपूर्ण है।
इन तमाम परिस्थितियों में क्या कभी आपको बालासाहेब ठाकरे की याद आती है?
– आती है ना। कोरोना और लॉकडाउन के कारण पहले दो महीने इत्मीनान से घर में बैठा था। बालासाहेब के काम का तरीका मुझसे ज्यादा तुम जानते हो। वह क्या दिन भर घर के बाहर निकल कर कहीं जाते थे, ऐसा नहीं है। कई बार कई दिन वे घर में ही बिताते थे। परंतु घर में रहते हुए भी सहयोगियों को साथ लेकर उन्हें प्रोत्साहित करके सामने आई चुनौतियों का सामना करना बालासाहेब ने सिखाया था, ऐसा मुझे लगता है। मेरे जैसे को इन दो महीनों में बालासाहेब की याद इन्हीं वजहों से आती थी कि हमें घर से तो बाहर निकलना नहीं है लेकिन बाकी के काम, जिस दिशा में हमें जाना है, उस दिशा में जाने के लिए सफर की तैयारी हमें करनी चाहिए। ये जिस तरह से बालासाहेब करते थे उसकी याद मुझे इस दौरान आई।
कोरोना के कारण पूरी दुनिया बदल गई। इस बदली हुई दुनिया का परिणाम हिंदुस्थान पर भी हो रहा है, विदेश में जो नौकरीपेशा वर्ग पूरी दुनिया में फैला था, जो कि हमारा था, वह हमारे देश में लौट आया है। अभी आपने न्यूयॉर्क का उल्लेख किया। वहां से भी हजारों लोग यहां वापस आए। इस बदली हुई दुनिया को आप किस तरह से देखते हैं?
– मेरे अनुसार हमें इन हालातों को एक अवसर के रूप में देखना चाहिए। इस संकट के कारण पहली बार हमें ज्ञात हुआ कि दुनिया के कोने-कोने में हिंदुस्थानी कहां-कहां तक पहुंचे हैं। विशेषत: लॉकडाउन के पहले दो महीनों में मुंबई में रहकर यह काम बहुत ज्यादा करना पड़ा। वह काम यह था कि कई देशों से टेलीफोन आते थे कि हमारे देश में इतने-इतने हिंदुस्थानी हैं, उन्हें वापस लौटना है। उन्हें वापस लौटने के लिए विमान की व्यवस्था करने में सहयोग दें। मुझे आश्चर्यजनक झटका कब लगा? जब फिलीपींस में मेडिकल की पढ़ाई करने गए ४०० बच्चों के लौटने की व्यवस्था मुझे करनी पड़ी। ताशकंद से ३००-३५० विद्यार्थियों को लाने की व्यवस्था मुझे करनी पड़ी। इंग्लैंड-अमेरिका ठीक है लेकिन जो ये देश हैं, इन देशों में इतनी बड़ी संख्या में हमारे विद्यार्थी गए हैं, यह पता ही नहीं था। दुनिया के कोने-कोने में हिंदुस्थानी और मराठी, ये दोनों ही देखने को मिले। यह कोरोना के कारण हुआ।
इस पूरे प्रकरण से देश और राज्य की राजनीति ही बदल गई है। अब तक आप जैसे बड़े नेता सार्वजनिक सभा करते थे। हजारों लाखों लोगों की सभा को संबोधित करते थे। प्रधानमंत्री मोदी होंगे। आप होंगे, अन्य नेता होंगे। अब यह सब बंद हो जाएगा। क्या यह राजनीति का ही लॉकडाउन हो गया है?
– आप जो कहते हो, सही है। आज तो हालात ऐसे ही नजर आ रहे हैं। नए ढंग की राजनीति अब स्वीकार करनी होगी।
मूलत: भीड़ भारतीय राजनीति की आत्मा है। भीड़ नहीं होगी तो हमारी राजनीति इंच भर भी आगे नहीं बढ़ेगी। आपका संदेश आगे नहीं जाएगा। लाखों की भीड़ जो जमा करता है। वह बड़ा नेता है यह अब तक हमारे देश की अवस्था थी।
– यह स्थिति एकदम से बदल जाएगी ऐसा मुझे नहीं लगता। धीरे-धीरे हालात होते जाएंगे लेकिन हमारे लिए इस स्थिति को नजरअंदाज करना संभव नहीं है। अमेरिका में राष्ट्रपति पद का चुनाव देखते हैं। उन चुनावों में दृश्य एकदम अलग होते हैं। हमारे यहां दृश्य अलग होते हैं। हम हिंदुस्थान को देखते हैं। बालासाहेब की लाखों की सभा होती थी। अटल जी की लाखों की सभा होती थी। इंदिरा गांधी की होती थी, यशवंतराव चव्हाण की होती थी। यह दृश्य अमेरिका एवं पश्चिमी देशों में देखने को नहीं मिलता है लेकिन टेलीविजन और रेडियो के माध्यम से पूरे देश का ध्यान उस दिन चर्चा की ओर होता था। मान लो राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार और प्रतिस्पर्धी उम्मीदवार इन दोनों के बीच डिस्कशन, चर्चा, सवाल-जवाब होते थे। उसको लगा होता था। पूरा देश देखता रहता है। लेकिन यह देखने के लिए और व्यक्त करने के लिए माध्यम अलग होता है। हमारा माध्यम अलग है।
हमारे यहां ये डिजिटल सभा का प्रकरण सफल होगा?
– हमारे यहां ऐसा है, यहां नेताओं वक्ताओं के सामने भीड़ नहीं होगी तो उनकी बातों में धार नहीं आती। मैं जो बोल रहा हूं, सामनेवाले को कितना जंच रहा है, कितना डायजेस्ट हो रहा है, ये उनके चेहरे से समझ आता है और मान लो वह स्तब्ध रह गया… भीड़ से बिलकुल भी प्रतिसाद नहीं मिल रहा होगा तो इसका भी प्रभाव वक्ता पर होता रहता है। इन सबसे हम गुजर चुके हैं। परंतु अब धीरे-धीरे ये तमाम पुराने तरीके हमें बदलने होंगे। मतलब ये सब शत-प्रतिशत समाप्त हो जाएंगे, मैं ऐसा नहीं कह रहा हूं। परंतु ये धीरे-धीरे कम होगा ही। कम्युनिकेशन की आधुनिक तकनीक आत्मसात करने के बारे में सोचना होगा।
परंतु ग्रामीण भागों में ये कैसे सफल होगा? विधानसभा चुनाव में जैसा माहौल खुद आपने तैयार किया, जिसके कारण आगे परिवर्तन हो सका। खासकर भरी बरसात में आपकी सातारा जैसी सभा नए तंत्र में कैसे होगी? लोगों को दिल से लगता है कि मैं अपने नेता को देखूं, सामने से सुनूं। इसके आगे ये सब रुक जाएगा ऐसा लगता नहीं है?
– निश्चित ही ये रुक जाएगा। मेरे जैसे इंसान के लिए, मेरी पीढ़ी के इंसान के लिए यह रुक गया तो अच्छा नहीं है। लोगों के बीच जाना ही होगा। चुनावी सभाओं में न जाना, ऐसे भी हालात आएंगे क्या, इसकी चिंता है। लेकिन ये ज्यादा दिन चलेगा, ऐसा लगता नहीं है। चलना नहीं चाहिए, ऐसी प्रार्थना है।
एक साल पहले इस देश में लोकसभा चुनाव हुए थे। सामान्यत: देश की अवस्था और राजनीति ‘जैसे थे’ रही। अर्थात जो व्यवस्था थी व व्यवस्था बरकरार रही। प्रधानमंत्री मोदी हैं। उनकी सरकार बरकरार रही। केंद्र की राजनैतिक व्यवस्था बदलेगी, ऐसी संभावना नहीं थी। लोकसभा चुनाव का परिणाम जैसा अपेक्षित था वैसा ही आया, परंतु कुछ राज्यों में बदलाव हुआ। खासकर हम महाराष्ट्र के बारे में बात करें तो महाराष्ट्र की राजनीति ६ महीने पहले ही पूरी तरह से बदल गई। इस तरह से बदली कि पूरा देश इस महाराष्ट्र की घटनाओं के भविष्य की ओर एक अलग नजरिए से देखने लगा। कइयों के मन में एक सवाल है कि महाराष्ट्र में यह जो बदलाव है, ये एक हादसा था। उस समय हुआ? अथवा ये बदलाव सभी ने मिलकर किया।
– मुझे हादसा बिलकुल भी नहीं लगता। दो बातें हैं। महाराष्ट्र के लोकसभा के चुनाव। देश के लोकसभा के चुनाव में बहुत ज्यादा अंतर नहीं था। लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की मराठी जनतों ने भी देश में जो दृश्य था, उससे सुसंगत महत्वपूर्ण भूमिका अपनाई। परंतु राज्य का सवाल आया, उस समय हमें महाराष्ट्र का नजारा और ही दिखने लगा। ये केवल महाराष्ट्र में ही नहीं बल्कि अन्य राज्यों में भी दिख रहा था। कहीं कांग्रेस आई… कहीं अन्य गठबंधन सत्तासीन हुए। अब मध्यप्रदेश का उदाहरण लें या राजस्थान, झारखंड, छत्तीसगढ़.. इन सभी राज्यों में तस्वीर बदली। लोकसभा के लिए वहां सीटें थीं। पीछे केंद्र सरकार थी। परंतु विधानसभा में भाजपा मुकरती दिखी। मेरे अनुसार महाराष्ट्र में तस्वीर बदलने का मूड जनता का था।
ऐसा आप कैसे कहते हैं?
– उद्धव ठाकरे के मुख्यमंत्री बनने के पहले का दौर देखें। इन पांच वर्षों में शिवसेना और भाजपा की सरकार थी। लेकिन शिवसेना के विचारोंवाले जो मतदाता हैं और जो शिवसेना कार्यकर्ता हैं उन सभी में उस सरकार के प्रति एक तरह की व्याकुलता साफ दिखाई दे रही थी।
आपको ऐसा क्या महसूस हुआ?
– शिवसेना के काम करने की विशिष्ट शैली है। कोई काम हाथ में लेने के बाद उसे दृढ़तापूर्वक पूरा करना। उसके लिए कितना भी परिश्रम एवं पैसा देने की तैयारी रखनी चाहिए। भाजपा के साथ सहभाग के उस कालखंड में शिवसेना ने भारी कीमत चुकाई। साधारणत: शिवसेना को शांत वैâसे रखा जा सकता है, रोका वैâसे जा सकता है, उन्हें हाशिए पर कैसे रखा जा सकता है? यह नीति भाजपा ने हमेशा अपनाई। इसलिए शिवसेना को माननेवाला यह वर्ग उद्विग्न था। दूसरी बात, वो जो पांच साल महाराष्ट्र की जनता ने देखे वे वास्तविक अर्थों में भाजपा की ही सरकार होनी चाहिए, ऐसी ही थी। इसके पहले युति की सरकार थी। वर्ष १९९५ में मनोहर जोशी मुख्यमंत्री थे। उस दौरान ऐसा माहौल कभी नहीं था। इसकी वजह, उसका नेतृत्व शिवसेना के पास था और बालासाहेब के पास था। इस सरकार के पीछे उनकी सशक्त भूमिका थी। अभी जो इन दोनों की सरकार थी, उसमें भाजपा ने शिवसेना को करीब-करीब किनारे कर दिया और भाजपा ही असली शासक तथा इसके आगे के कालखंड में राज्य भाजपा के नेतृत्व के विचारों से ही चलेगा, यह भूमिका दृढ़ता से अपनाकर उन्होंने कदम बढ़ाए। महाराष्ट्र की जनता को यह जंचा नहीं।
मतलब इस महाराष्ट्र में हम ही राजनीति करेंगे, अन्य कोई नहीं करेगा…
– हां, कर ही नहीं सकता है। अन्य कोई यहां राजनीति कर ही नहीं सकता है। ऐसी सोच दिख रही थी।
फिर इसके विरोध में लोगों की बगावत उबलकर मतपेटी से निकली, ऐसा लगता है क्या?
– एकदम, सीधे-सीधे ऐसी ही अवस्था है और थोड़ा बहुत ये उपहास का विषय भी बन गया कि ‘मैं फिर आउंगा… मैं फिर आउंगा…’
मैं फिर आऊंंगा…
– हां, मैं फिर आऊंंगा… इस सबके कारण एक तो ऐसा है कि किसी भी शासक, राजनीतिज्ञ नेता को मैं ही आऊंंगा, इस सोच के साथ जनता को जागीर नहीं समझना चाहिए। इस तरह की सोच में थोड़ा दंभ झलकता है। ऐसी भावना लोगोें में हो गई और इन्हें सबक सिखाना चाहिए। यह विचार लोगों में फैल गया।
पूर्व मुख्यमंत्री फडणवीस ने हाल ही में एक साक्षात्कार में कहा कि मेरी सरकार चली गई अथवा मैं मुख्यमंत्री पद पर नहीं हूं, यह पचाने में बड़ी परेशानी हुई। इसे स्वीकार करने में ही दो दिन लगे। इसका अर्थ यह है कि हमारी सत्ता कभी नहीं जाएगी। इस सोच… अमरपट्टा ही बांधकर आए हैं।
– देखो, किसी भी लोकतंत्र में नेता हम अमरत्व लेकर आए हैं, ऐसा नहीं सोच सकता है। इस देश के मतदाताओं के प्रति गलतफहमी पाली तो वह कभी सहन नहीं करता। इंदिरा गांधी जैसी जनमानस में प्रचंड समर्थन प्राप्त महिला को भी पराजय देखने को मिली। इसका अर्थ यह है कि इस देश का सामान्य इंसान लोकतांत्रिक अधिकारों के संदर्भ में हम राजनीतिज्ञों से ज्यादा सयाना है और हमारे कदम चौखट के बाहर निकल रहे हैं, ऐसा दिखा तो वह हमें भी सबक सिखाता है। इसलिए कोई भी भूमिका लेकर बैठे कि हम ही! हम ही आएंगे…तो लोगों को यह पसंद नहीं आता है।
१०५ विधायकों का समर्थन होने के बावजूद प्रमुख पार्टी सत्ता स्थापित नहीं कर सकी। सत्ता में नहीं आ सकी। यह भी एक अजीब कला है अथवा महाराष्ट्र में चमत्कार हुआ। इसे आप क्या कहेंगे?
– ऐसा है कि तुम जिसे प्रमुख पार्टी कहते हो, वह प्रमुख पार्टी वैâसे बनी? इसकी भी गहराई में जाना चाहिए। मेरा स्पष्ट मत है कि विधानसभा में उनके विधायकों का जो १०५ फिगर हुआ, उसमें शिवसेना का योगदान बहुत बड़ा था। उसमें से तुमने शिवसेना को मायनस कर दिया होता, उसमें शामिल नहीं होती तो इस बार १०५ का आंकड़ा तुम्हें कहीं तो ४०-५० के करीब दिखा होता। भाजपा के लोग जो कहते हैं कि हमारे १०५ होने के बावजूद हमें हमारी सहयोगी यानी शिवसेना ने नजरअंदाज किया अथवा सत्ता से दूर रखा। उन्हें १०५ तक पहुंचाने का काम जिन्होंने किया, यदि उन्हीं के प्रति गलतफहमी भरी भूमिका अपनाई तो मुझे नहीं लगता कि औरों को कुछ अलग करने की आवश्यकता है।
परंतु उनके लिए जो संभव नहीं हुआ, वह शरद पवार ने संभव कर दिखाया। और शिवसेना को भाजपा के बगैर मुख्यमंत्री के पद तक पहुंचा दिया।
– ऐसा कहना पूरी तरह सच नहीं है। मैं जिन बालासाहेब ठाकरे को जानता हूं। मेरी तुलना में आप लोगों को शायद अधिक जानकारी होगी। परंतु बालासाहेब की पूरी विचारधारा, काम करने की शैली भारतीय जनता पार्टी के अनुरूप थी, ऐसा मुझे कभी महसूस ही नहीं हुआ।
क्यों…? आपको ऐसा क्यों लगा?
– बताता हूं ना। सबकी वजह ये है कि बालासाहेब की भूमिका और भाजपा की विचारधारा में अंतर था। खासकर काम की शैली में जमीन आसमान का अंतर है। बालासाहेब ने कुछ व्यक्तियों का आदर किया। उन्होंने अटलबिहारी वाजपेयी का? आदर किया। उन्होंने आडवाणी का किया। उन्होंने प्रमोद महाजन का आदर किया। उन सभी को सम्मान देकर उन्होंने एक साथ आने का विचार किया और आगे सत्ता आने में सहयोग दिया। दूसरी बात ऐसी थी कि कांग्रेस से उनका संघर्ष था, ऐसा मुझे नहीं लगता। शिवसेना हमेशा कांग्रेस के विरोध में ही थी, ऐसा नहीं है।
बालासाहेब अच्छे को अच्छा और बुरे को बुरा मुंह पर ही कहनेवाले नेता थे। इसलिए ये अब हुआ होगा।
– हां, बालासाहेब वैसे ही थे। जितने बिंदास उतने ही दिलदार। राजनीति में वैसी दिलदारी मुश्किल है। शायद बालासाहेब ठाकरे और शिवसेना देश का पहला ऐसा दल है कि किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर सत्ताधारी दल के प्रमुख लोगों का खुद के दल के भविष्य की चिंता न करते हुए समर्थन करते थे। आपातकाल में भी पूरा देश इंदिरा गांधी के विरोध में था। उस समय अनुशासित नेतृत्व के लिए बालासाहेब इंदिरा गांधी के साथ खड़े थे। सिर्फ खड़े ही नहीं हुए बल्कि हम लोगों के लिए चैंकानेवाली बात तो ये भी थी कि उन्होंने कहा कि महाराष्ट्र के चुनाव में वे अपने उम्मीदवार भी नहीं उतारेंगे! किसी राजनीतिक दल द्वारा हम उम्मीदवार नहीं उतारेंगे बोलकर राजनीतिक दल को चलाना मामूली बात नहीं है। लेकिन ऐसा बालासाहेब ही कर सकते थे और उन्होंने करके भी दिखाया। उसका कारण ये है कि उनके मन में कांग्रेस को लेकर कोई द्वेष नहीं था। कुछ नीतियों को लेकर उनकी स्पष्ट सोच थी। इसलिए उस समय कुछ अलग देखने को मिला और आज लगभग उसी रास्ते पर उद्धव ठाकरे चल रहे हैं, ऐसा कहने में कोई हर्ज नहीं है।
आपका शिवसेना से कभी वैचारिक नाता था, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता…लेकिन आज आप महाराष्ट्र में एक हैं..
– वैचारिक मतभेद थे। कुछ मामलों में रहे होंगे। लेकिन ऐसा नहीं था कि सुसंवाद नहीं था। बालासाहेब से सुसंवाद था। शिवसेना के वर्तमान नेतृत्व से ज्यादा सुसंवाद था। मिलना-जुलना, चर्चा, एक-दूसरे के यहां आना-जाना, ये सारी बातें थीं। ऐसा मैं कई बार घोषित तौर पर बोल चुका हूं। बालासाहेब ने अगर किसी व्यक्ति, परिवार या दल से संबंधित व्यक्तिगत सुसंवाद रखा या व्यक्तिगत ऋणानुबंध रखा, तो उन्होंने कभी किसी की फिक्र नहीं की। वे ओपनली सबकी मदद करते थे। इसलिए मैं अपने घर का घोषित तौर पर उदाहरण देता हूं कि सुप्रिया के समय सिर्फ बालासाहेब ही उसे निर्विरोध चुनकर लाए। यह सिर्फ बालासाहेब ही कर सकते थे।
आपने राज्य में महाविकास आघाड़ी का प्रयोग किया, आपने उसका नेतृत्व किया। उसे ६ महीने पूरे हो चुके हैं। यह प्रयोग कामयाब हो रहा है, ऐसा आपको लगता है क्या?
– बिल्कुल हो रहा है। यह प्रयोग, और भी कामयाब होगा, इस प्रयोग का फल महाराष्ट्र की जनता और महाराष्ट्र के विभिन्न विभागों को मिलेगा, ऐसी स्थिति हमें अवश्य देखने को मिलेगी। लेकिन अचानक कोरोना संकट आ गया। यह महाराष्ट्र का दुर्भाग्य है। गत कुछ महीनों से राज्य प्रशासन, सत्ताधीश तथा राज्य की पूरी यंत्रणा सिर्फ एक काम में ही जुटी हुई है, वह है कोरोना से लड़ाई। इसलिए बाकी मुद्दे एक तरफ रह गए हैं। एक और बात बताता हूं अगर फिलहाल का सेटअप ना होता तो तो कोरोना संकट से इतने प्रभावीपूर्ण ढंग से नहीं निपटा जा सकता था। ध्यान रहे, कोरोना जितना बड़ा संकट और तीन विचारों की पार्टी, लेकिन सब लोग एक विचार से मुख्यमंत्री ठाकरे के साथ खड़े हैं। उनकी नीतियों के साथ खड़े हैं और परिस्थिति का सामना कर रहे हैं। लोगों के साथ मजबूती से खड़े हैं। यह कामयाबी है, इसका मुझे पूरा विश्वास है। सब लोग एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं इसलिए यह संभव हुआ है। तीनों दलों में जरा-सी भी नाराजगी नहीं है।
और श्रेय लेने की जल्दबाजी भी नहीं।
– बिल्कुल नहीं।
आपने पुलोद का प्रयोग देश में पहली बार किया। कई पार्टियों को मिलाकर राज किया। पुलोद की सरकार और वर्तमान महा विकास आघाड़ी सरकार में क्या फर्क है?
– फर्क ऐसा है कि पुलोद सरकार का नेतृत्व मेरे पास था। उस सरकार में सभी लोग थे। आज की भाजपा उस समय जनसंघ के रूप में थी, वे भी हमारे साथ थे, वे भी उसमें थे। मंत्रिमंडल एक विचार से काम करने वाला था। उसमें किसी भी प्रकार की असुविधा नहीं थी। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि केंद्र सरकार उसे पूरा साथ देती थी। पुलोद की सरकार आई, उस समय देश का नेतृत्व मोरारजी भाई देसाई के पास था। वह प्रधानमंत्री के रूप में महाराष्ट्र की पुलोद सरकार को पूरी ताकत से मदद करते थे। आज थोड़ा फर्क यह है कि यहां आइडियोलॉजी अलग होगी, फिर भी एक विचार से काम करनेवाले लोग साथ आए हैं। दिशा कौन सी है, यह स्पष्ट है और उस दिशा में जाने की यात्रा भी अच्छी रहेगी तथा लोगों के हित में रहेगी, इसका ध्यान रखा गया है। लेकिन पुलोद के समय जैसे केंद्र मजबूती से साथ देता था, वैसा इस समय नहीं दिखता।
इस सरकार के आप हेडमास्टर हैं या रिमोट कंट्रोल?
– दोनों में से कोई नहीं। हेडमास्टर तो स्कूल में होना चाहिए। लोकतंत्र में सरकार या प्रशासन कभी रिमोट से नहीं चलता। रिमोट कहां चलता है? जहां लोकतंत्र नहीं है वहां। हमने रशिया का उदाहरण देखा है। पुतिन वहां २०३६ तक अध्यक्ष रहेंगे। वो एकतरफा सत्ता है, लोकतंत्र आदि एक तरफ रख दिया है। इसलिए यह कहना कि हम जैसे कहेंगे वैसे सरकार चलेगी, यह एक प्रकार की जिद है। यहां लोकतंत्र की सरकार है और लोकतंत्र की सरकार रिमोट कंट्रोल से कभी नहीं चल सकती। मुझे यह स्वीकार नहीं। सरकार मुख्यमंत्री और उनके मंत्री चला रहे हैं।(hindisaamana)