संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : विश्व जनसंख्या दिवस पर, गरीबों को मत गिनो, गिनना है तो अमीरों की खपत गिनो
11-Jul-2020 2:37 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : विश्व जनसंख्या दिवस पर,  गरीबों को मत गिनो, गिनना है तो अमीरों की खपत गिनो

आज 11 जुलाई को विश्व जनसंख्या दिवस मनाया जा रहा है। स्कूल-कॉलेज अभी बंद हैं, वरना वहां बढ़ती जनसंख्या के खतरे को लेकर बच्चों में भाषण होते, और इस विषय पर निबंध लिखने का मुकाबला होता। फिर भी जो जागरूक लोग हैं वे सोशल मीडिया पर अपनी तरफ से बढ़ती हुई जनसंख्या के खतरों को लेकर लिख रहे हैं। फिर ऐसे खतरे को गिनाने के लिए इस सालाना दिन की जरूरत भी नहीं होती है, लोग आबादी के बढऩे के खतरे गिनाते ही रहते हैं। 

अब सवाल यह है कि क्या धरती की आबादी सचमुच ही धरती पर बोझ है? जिनको ऐसा लगता है उन्हें थोड़ी सी मेहनत करके इंटरनेट पर यह ढूंढना चाहिए कि विकसित देशों में प्रति व्यक्ति खपत कितनी है, और अविकसित, तीसरी दुनिया के सबसे गरीब देशों में कितनी है? आज एक-एक अमरीकी की औसत खपत जितनी है, उसका एक मामूली सा हिस्सा भी भारत जैसे नवविकसित देश में नहीं है, जबकि इस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा गरीबी से ऊपर भी है, और उसकी ईंधन से लेकर खानपान और कपड़ों तक, मकान से लेकर गाडिय़ों तक की खपत अच्छी खासी है। ऐसे में दुनिया की गरीब आबादी जिसकी खपत नहीं के बराबर है, उस आबादी को धरती पर बोझ मानना एक अंकगणित के दिमाग के मुताबिक तो सही हो सकता है, किसी इंसान के दिमाग के लिए ऐसा मानना समझ की कमी है। 

इस धरती के प्राकृतिक साधन, धरती पर जमीन, लोगों की न्यूनतम जरूरत, इन सबको अगर देखें तो लगता है कि गरीब देशों की बहुत बड़ी आबादी ऐसी है जो कि धरती पर न प्रदूषण फैलाती, और न ही अपने आसपास के प्राकृतिक साधनों को वह खत्म कर रही है। उसकी खपत महज जिंदा रहने तक सीमित है, और इस तरह वह अपने आसपास की मामूली उपज पर जिंदा है जो कि धरती पर बोझ नहीं है। दूसरी तरफ सीमित संख्या और असीमित संपन्नता वाले देश ऐसे हैं जहां लोग जितने वजन का खाते हैं, उतने वजन के कागज का डिब्बा, या प्लास्टिक की ग्लास, या कांटा-छुरी भी खत्म कर देते हैं। लेकिन गरीबों की बढ़ती जनसंख्या संपन्न लोगों को चुभती इसलिए है कि धरती की एक सामूहिक और सामुदायिक  जिम्मेदारी के तहत दुनिया के संपन्न लोगों से यह उम्मीद की जाती है कि वे सबसे गरीब लोगों को भूख से मरने से बचाएं। यही उम्मीद संपन्न समाज को इतना विचलित करती है, इतनी हीनभावना से भर देती है कि अपराधबोध उन पर भारी पड़ता है। इसलिए वे चाहते हैं कि गरीबों का बढऩा घटे। उनकी फिक्र धरती पर बोझ घटना नहीं है, हालांकि वे आड़ इसी बात की लेते हैं। अगर नीयत धरती पर बोझ बढऩा रोकना होता, तो वे अपनी खपत को घटाते, लेकिन ये तो धरती की सबसे कम खपत वाली आबादी को घटाना चाहते हैं। यह सबसे गरीब आबादी के मन में एक हीनभावना और अपराधबोध भरने का तरीका भी है कि वे अधिक बच्चे पैदा करके धरती पर अधिक बोझ बन रहे हैं। 

यह बात देश-प्रदेश की सरकारों को भी सुहाती है कि गरीब आबादी बढऩे की तोहमत गरीबों पर डालो, और उन्हें आबादी घटाने को कहो। कुदरत ने तो पूरी धरती के साधनों को आबादी में बराबरी से बांटने की एक सामान्य समझ दी है। लेकिन ताकतवर लोगों को यह कभी सुहा नहीं सकता कि हर गरीब को उनके बराबर के हक मिलें। इसलिए गरीब आबादी को घटाना एक आसान रास्ता है जिसे हर कोई सुझाते चलते हैं। 

अब जरा वैज्ञानिक नजरिए से देखें कि एक गरीब इंसान की जरूरत और खपत कितनी होती है, और हर दिन उसकी ताकत और क्षमता का इस्तेमाल करके धरती की उत्पादकता कितनी बढ़ाई जा सकती है। खेत में काम करने वाले लोग, फल-सब्जी उगाने में लगे हुए लोग, डेयरी और पशु-पक्षी-मछली पालने में लगे हुए लोग अपनी खपत से हजार-हजार गुना पैदा करते हैं। जो लोग अपने बदन की ताकत से जुड़े हुए और कई किस्म के काम करते हैं, वे भी अपनी खपत से अधिक दाम का शहद पैदा करते हैं, मशरूम उगाते हैं, या संपन्न तबके की सेवा करने के दूसरे काम करते हैं। जहां कहीं देश या प्रदेश की सरकारें अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाती हैं, वहां-वहां उसकी सबसे गरीब आबादी भी अपनी जरूरत से अधिक पैदा करती है, कमाती है, और धरती पर बोझ नहीं बनती है। धरती पर बोझ वही आबादी बनती है जिसकी खपत अंधाधुंध रहती है, जो बड़े मकान में रहती है, बड़ी गाड़ी में चलती है, बड़े पैमाने पर सामानों की खरीदी करती है, सामानों को खारिज करती है, और दुनिया के साधनों का अंधाधुंध इस्तेमाल करती है। वह आबादी धरती पर बोझ है। शहर के संपन्न लोग एक हफ्ते में जितने डीजल-पेट्रोल को जलाते हैं, एक गांव के हजार गरीब मिलकर भी साल भर में उतना डीजल-पेट्रोल नहीं जलाते। एक रईस के घर-दफ्तर के दर्जन भर एसी एक दिन में जितनी बिजली जलाते हैं, किसी गरीब बस्ती के हजार लोग मिलकर भी महीने-दो महीने में भी उतनी बिजली नहीं जला सकते। इसलिए धरती पर आबादी के बोझ होने का झांसा गरीबों को जीने का हक न देने का एक तरीका है। कोई गरीब आबादी धरती पर बोझ नहीं है, अगर उसके इलाके की सरकारें अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभा रही हैं। मधुमक्खियां, लाख और रेशम के कीड़े, केंचुए, मछलियां, और पंछी, धरती पर बोझ तो ये भी नहीं हैं, इंसान कहां से बोझ हो जाएंगे। आज हालत यह है कि केंचुओं की बनाई हुई खाद भी अच्छे खासे दाम पर बिकती है, लाख और रेशम के कीड़ों की लार भी महंगे दाम पर बिकती है, मधुमक्खियों के बदन से निकला हुआ शहद सैकड़ों रूपए किलो बिकता है, ऐसे में मेहनत करने वाले इंसान कहां से धरती पर बोझ हो सकते हैं? 

लेकिन जब इंसानों को बेदखल करके उनका काम करने के लिए बनाई जा रही बड़ी-बड़ी फौलादी मशीनों की खरीदी और इस्तेमाल कारोबार और सरकार दोनों को चलाने वाले लोगों के निजी फायदे का हो, तो फिर इंसानी मजदूरी की क्या कीमत हो सकती है? इंसान को मजदूरी देने में बाजार और सरकार हांकने वाले लोगों को उतनी बचत नहीं होती जितनी कि मशीनों को बनाने में, बेचने में, और खरीदने में होती है।  यह सरकारों की गैरजिम्मेदारी है कि अपने देश-प्रदेश की आबादी को रोजगार देने लायक योजनाएं बनाने के बजाय मशीनों के लिए योजनाएं बनाई जाती हैं, और मजदूरों को भटकने के लिए छोड़ दिया जाता है। जब वे दूर-दूर के प्रदेशों में जाकर काम करते हैं, तो उन्हें पलायन करने वाला कहा जाता है। हम इस अखबार में लगातार पलायन शब्द के खिलाफ लिखते आए हैं, कि यह बेइंसाफ शब्द है। यह मजदूरों का पलायन नहीं होता, यह सरकारों का अपनी जिम्मेदारी से पलायन होता है, मजदूर तो जिंदगी की लड़ाई लडऩे वाले योद्धा होते हैं जो कि सरकारों की साजिशों और उनकी लापरवाही के खिलाफ दूर-दूर तक जाकर जिंदा रहकर दिखाते हैं। 

इसलिए आज विश्व जनसंख्या दिवस पर जो लोग यह मानते हैं कि बढ़ती हुई जनसंख्या धरती पर बोझ है, उन्हें अलग-अलग देशों और अलग-अलग आय वर्ग के लोगों के बीच प्रति व्यक्ति खपत के आंकड़े देखना चाहिए, उनकी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी कि एक औसत अमरीकी बच्चा सोमालिया, इथियोपिया, या यमन के सैकड़ों बच्चों से अधिक खपत वाला हो सकता है। आज दुनिया के कुछ देशों में भूखों मरते लोग धरती पर बोझ लग सकते हैं, लेकिन यह समझने की जरूरत है कि भुखमरी के शिकार लोगों को जिंदा रहने के लिए जितना अनाज चाहिए, उससे अधिक का बना खाना विकसित देशों के घूरों पर फेंका जाता है। दिक्कत धरती के साधनों का नहीं है, उनके असंतुलित, अनुपातहीन बंटवारे की है, और एकाधिकार की है। 

आंकड़े भी बहुत सही तस्वीर नहीं बताते हैं, लेकिन वे एक संकेत जरूर देते हैं। प्रति व्यक्ति घरेलू सामानों की खपत के आंकड़े देखें, तो हांगकांग और अमरीका में ये एक बरस में औसत 38 हजार डॉलर है, तो यह घटते-घटते जापान और डेनमार्क में 20 हजार डॉलर प्रतिवर्ष है, मैक्सिको और ब्रुनेई में 10 हजार डॉलर प्रतिवर्ष, इथियोपिया में एक हजार डॉलर प्रतिवर्ष है, और अफ्रीकी देशों में पांच सौ डॉलर प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति खपत है। मतलब यह कि अफ्रीका के एक व्यक्ति की खपत अमरीका के 75 व्यक्तियों की खपत से भी कम है। यह तो बात घरेलू खपत की हुई, लेकिन ऐसी आबादी के लिए देश जो ढांचा खड़ा करता है, उसकी खपत के आंकड़े सरकारों के खर्च से निकल सकते हैं, और उससे समझ आ सकता है कि संपन्न लोगों के देश धरती के साधनों पर कितना बड़ा बोझ है।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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