संपादकीय
जैसा कि सभी लोगों को भरोसा था, यूपी के कुख्यात गैंगस्टर विकास दुबे को पुलिस ने कानपुर पहुंचने के पहले ही एक कथित मुठभेड़ में मार डाला, या मार गिराया। आगे किसी जांच में यह सच सामने शायद ही आए कि पुलिस ने किसी मजबूरी में उसे मारा, या किसी साजिश के तहत उसका कत्ल किया। विकास दुबे के जुर्म की फेहरिस्त इतनी लंबी थी, कि देश के बड़े-बड़े चैनलों के रिपोर्टर भी यह बोलने में डर रहे हैं कि पुलिस के हाथों सडक़ पर ऐसी मौत जायज नहीं है। वे बार-बार यह सफाई दे रहे हैं कि विकास दुबे बहुत कड़ी सजा का हकदार था, उसके साथ उनकी हमदर्दी बिल्कुल भी नहीं है, फिर भी उनका आंखों देखा यह है कि राह चलते विकास दुबे की गाड़ी बदली गई, पीछे चलती मीडिया की गाडिय़ां 20 किमी पहले रोक दी गईं, और सब कुछ बहुत संदिग्ध है। अनगिनत लोगों ने गिरफ्तारी के तुरंत बाद से यह लिखना शुरू कर दिया था कि अदालत में पेश करने के पहले यूपी पुलिस उसे मार डालेगी। मुठभेड़-हत्याओं के अपने बदनाम रिकॉर्ड से परे भी इस एक मामले में मुठभेड़-हत्या का खतरा इसलिए अधिक था कि अपने आखिरी जुर्म में विकास दुबे नाम के इस गैंगस्टर ने 8 पुलिसवालों को मारा था, और अपनी बिरादरी की ऐसी मौत का बदला लेने के लिए पुलिस ऐसा करेगी, ऐसी आशंका लोगों को थी।
सवाल विकास दुबे का नहीं है, वह तो बहुत पहले ही फांसी का हकदार दिखता था, जिस तरह से वो हत्याएं करते आया बताया जाता है, उसका नतीजा यही निकलना था, लेकिन यह मौत अदालत के आदेश से जेल के भीतर कानूनी मौत होनी थी, सडक़ पर गाडिय़ों को रोककर संदिग्ध तरीके से ऐसा नहीं होना चाहिए था। जिन लोगों को लोकतंत्र की प्रक्रिया में जरा भी भरोसा नहीं है, उन्हें फिल्मों की तरह सडक़ पर ऐसा ट्रिगर-हैप्पी इंसाफ अच्छा लग सकता है, लेकिन सवाल यह है कि पुलिस ही अगर मौके पर दो मिनट में पकने वाले नूडल्स की तरह इंसाफ करने लगेगी, तो फिर अदालतें क्या करेंगी?
ऐसी मुठभेड़-हत्या या मुठभेड़-मौत देश के लिए एक फिक्र की नौबत इसलिए है कि जब तक एक मुजरिम सार्वजनिक रूप से सरकार के लिए फजीहत नहीं बना, तब तक उसे काबू करने की कोशिश नहीं हुई। और जब आज वह यूपी सरकार के लिए परेशानी का सबब बन गया, तो उसकी ऐसी मौत हुई जो कि हादसा कम साजिश अधिक दिखती है। आज सुबह से लोगों की जो सोच सामने आ रही है, वह यह है कि विकास दुबे के साथ ही कई पार्टियों और बहुत से नेताओं के गंदे राज भी दफन हो गए। इसके घर पर पुलिस-हत्याओं के बाद जिस तरह अफसरों ने आनन-फानन उसके घर को ढहा दिया था, उससे भी ये सवाल उठे थे कि मकान के साथ-साथ वहां लगे कैमरे और कैमरों की रिकॉर्डिंग भी शायद खत्म हो गई होगी, और इस हड़बड़ी में मकान गिराने के पीछे शायद यही नीयत भी रही होगी। यह बात भी कि पुलिस या प्रशासन कैसे कानूनी कार्रवाई पूरी किए बिना विकास दुबे के मकान को इस तरह गिरा सकते हैं?अब आज का ताजा सवाल यह है कि कल मध्यप्रदेश के उज्जैन में महाकाल मंदिर में खुद होकर, चीख-चीखकर अपनी पहचान बताकर जिस विकास दुबे ने आराम से टहलते हुए अपनी गिरफ्तारी दी थी, आज वह यूपी की हथियारबंद पुलिस के बीच बैठे उनका हथियार छीनकर फरार होने चला था? उज्जैन में तो अपने आपकी पहचान कराकर गिरफ्तारी देने की कोई जरूरत भी नहीं थी, फिर भी उसने वैसा किया था, और आज यूपी पुलिस के घेरे से बच निकलने की कोई गुंजाइश नहीं थी, तब भी वह भागने की कोशिश कर रहा था? मुठभेड़-हत्या या मुठभेड़-मौत का यह मामला किसी गुब्बारे जितना खोखला है। उत्तरप्रदेश को एक बड़े गुंडे से निजात तो मिली है, लेकिन यह कानून से पूरे सिलसिले को खारिज करने की कीमत पर मिली है, और देश के कई राज्यों में ऐसी मुठभेड़-हत्याओं की छूट मिलने पर पुलिस के हाथों नाजायज हत्याएं भी देखी हैं।
लेकिन बात महज उत्तरप्रदेश की और वहां की पुलिस के हाथों आज मारे गए इस मुजरिम की नहीं है। उत्तरप्रदेश में योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के बाद ऐसी दर्जनों मुठभेड़-हत्याएं की गई हैं, और हैदराबाद में अभी कुछ महीने पहले ही बलात्कार के आरोपियों की ऐसी ही मुठभेड़-हत्या की गई जब उन्हें सुबह-सुबह वारदात की जगह ले जाया गया, और पुलिस के हथियार छीनकर पुलिस पर हमला करने की तोहमत लगाई गई, और उन्हें मार डाला गया। देश भर में लोगों ने अदालती इंसाफ के पहले ही ऐसे पुलिस इंसाफ की पेट भरकर तारीफ की थी, ठीक उसी तरह आज भी बहुत से लोग विकास दुबे की ऐसी मौत के लिए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और यूपी पुलिस की तारीफ कर रहे हैं। तारीफ करने वाले लोगों को पल भर को भी यह नहीं लगता है कि किसी दिन उनके परिवार के लोग भी अदालत में अपने को बेगुनाह साबित करने का हक और मौका पाए बिना सडक़ पर ऐसे मारे जा सकते हैं, इसलिए वे मौके पर इंसाफ के इस अंदाज की तारीफ कर रहे हैं। लेकिन देश में कानून के राज पर ऐसी मुठभेड़-हत्याओं से बड़ी आंच आती है। इससे लोकतंत्र की, सरकार और अदालत की कमजोरी दिखती है कि अदालत से इंसाफ नहीं मिल सकता, समय पर नहीं मिल सकता, इसलिए मौके पर इंसाफ जायज हो गया है।
देश के बहुत से पुलिस-अफसर भी सोशल मीडिया पर विकास दुबे की ऐसी मौत को जायज ठहरा रहे हैं, और इसे पुलिस की एक आम सोच सामने आ रही है। हो सकता है कि पुलिस इस बात से थकी हुई है कि उसकी कोशिशों के बावजूद मुजरिमों को सजा नहीं हो पाती है, लेकिन यह थकान तो मतदाताओं में भी है कि उसके वोट देने के बाद भी संसद और विधानसभाओं में अच्छे लोग नहीं जा पाते हैं, यह थकान टैक्स देने वालों में भी है कि उनका दिया पैसा सरकारी भ्रष्टाचार में खत्म हो जाता है, और पूरी तरह देश के काम नहीं आ पाता है। थकान तो पूरे लोकतंत्र में है, लेकिन यह थकान ऐसी असंवैधानिक हत्याओं में नहीं बदलना चाहिए जैसी कि यह दिख रही है। जो मीडिया यूपी पुलिस के काफिले के पीछे चल रहा था, उसकी दी हुई जानकारी सुझाती है कि यह हत्या वैसी नहीं है जैसी कि यूपी पुलिस बताने की कोशिश कर रही है।
लेकिन आज योगी आदित्यनाथ और यूपी पुलिस पर उंगली उठाने का हक किस राज्य की किस सरकार को है, किस प्रदेश की पुलिस को है, क्योंकि ऐसी हत्याएं तो तकरीबन हर राज्य में हर बरस-दो बरस में होती ही रहती हैं। क्या अदालत इस सिलसिले को रोक सकती है जिस पर आज सुबह से ये सवाल उठ रहे हैं कि इस आत्मसमर्पण के वक्त से ही जब लोगों को ऐसा संदेह था, तो क्या वैसे में अदालतों का भी कुछ जिम्मा बनता था, या इस आदमी को मारे जाने के बाद कोई जिम्मा बनता है? आज यह बात साफ है कि विकास दुबे अगर कटघरे तक जिंदा पहुंचा होता तो पुलिस के बहुत से अफसरों और यूपी के बहुत से नेताओं के लिए दिक्कत का सामान बनता। पंचतत्व में विलीन की कोई गवाही तो होती नहीं है, आज यूपी के बहुत से रहनुमा चैन की नींद सोएंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)