विचार / लेख
कृष्ण कांत
एक महिला ने संसद परिसर में नेहरू का कॉलर पकडक़र पूछा, ‘भारत आज़ाद हो गया, तुम देश के प्रधानमंत्री बन गए, मुझ बुढिय़ा को क्या मिला।’
इस पर नेहरू ने जवाब दिया, ‘आपको ये मिला है कि आप देश के प्रधानमंत्री का गिरेबान पकड़ कर खड़ी हैं।’ कहते हैं कि महिला ने बंटवारे में अपना घर गवां दिया था। नेहरू के धुर विरोधी डॉ लोहिया के कहने पर महिला संसद परिसर में आई और नेहरू जैसे ही गाड़ी से उतरे, महिला ने उनका कॉलर पकडक़र सवाल पूछा था।
यह वही देश है। लोकतंत्र का करीब सात दशक बीत चुका है। एक लडक़ी ने मध्य प्रदेश के एक मंत्री से सवाल पूछ लिया। सवाल तो जायज ही थे कि पहले उस पार्टी में थे, अच्छी खासी सरकार चल रही थी तो गिराया क्यों? उस पार्टी में थे तो कह रहे थे किसानों का कर्ज माफ हो गया। अब कह रहे हैं नहीं हुआ। ऐसा कैसे हो सकता है?
लडक़ी के इन सवालों के जवाब में मंत्री जी के मुंह से बक्कुर नहीं फूटा। फिर सोशल मीडिया पर लश्कर उतारे गए। लडक़ी को ट्रोल किया गया। गालियां दी गईं। चरित्रहनन किया गया। लडक़ी शिकायत करने पुलिस अधिकारियों के पास गई। पुलिस अधिकारियों ने कहा कि 'आप कौन होती हैं मंत्री से सवाल पूछने वाली?'
यही सवाल लाख टके का है कि आप कौन हैं सवाल पूछने वाले? यही सवाल हमारी नियति है। यही सवाल हमारे लोकतंत्र की नियति है। राजा से प्रजा सवाल कैसे पूछ सकती है?
प्रधानमंत्री का कॉलर पकडऩे की आजादी से शुरू हुआ सफर यहां तक पहुंच गया है कि आप कौन होते हैं सवाल पूछने वाले?
यही आज के भारत की महान वैचारिक, प्रशासनिक और लोकतांत्रिक संस्कृति है। महान संस्कृतियां सिर्फ बनाई नहीं जातीं, बिगाडक़र विकृत भी जाती हैं। जिन पुलिस अधिकारियों ने लडक़ी से पूछा है कि आप कौन होती हैं मंत्री से सवाल करने वाली, उन अधिकारियों को आज ही भारत रत्न देना चाहिए। किसी भाड़े के मंत्री और नेता से भला सवाल क्या पूछना?
सवाल मत करो। यह जानकर भी नेता उल्लू बना रहा है, उल्लू बनो। सवाल करोगे तो मारे जाओगे। प्रताडि़त किए जाओगे। नेता दिन भर झूठ बोले और जनता उनकी पूजा करे, यही हमारी महानता का चरम बिंदु है, जहां न कोई पहुंच पाया है, न कोई पहुंचेगा।