विचार / लेख
1971 से बीच के करीब पौने छह साल को छोडक़र मैं दिल्ली में ही रहता आया हूँँ तो यह कहना भी अब बेईमानी सा लगता है कि मैं मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र का हूँ, जहाँ जीवन के शुरू के इक्कीस साल बीते थे। वहाँ अब भी साल मेंं एक या दो बार जाता हूँ। एक तरह से मेरी मातृभाषा मालवी है। मेरी माँ कठिनाई से और जरूरी होने पर थोड़ी-बहुत हिन्दी बोल लेती थी। पास पड़ोस के और बुजुर्ग भी मालवी बोलते थे। गालियाँ भी मालवी में देते थे। यह हो नहीं सकता कि कोई दिनभर मालवी बोले और गालियाँ हिंदी मेंं दे। गेल्या, गेलचोदा, लाकड़ा पड़्या आदि-आदि गालियाँ औरतों के मुँह से झरा करती थीं। पुरुषों की गालियाँ छोडि़ए।मेरी सास के लिए भी मालवी में बोलना ही सहज था। उन्हें गाली देते कभी नहीं देखा। उनकी हिंदी मेरी माँ से काफी बेहतर थी। हिंदी बोलते समय उनकी स्वाभाविकता नष्ट हो जाती थी। पत्नी तो खैर अच्छी हिंदी बोलती हैंं मगर उसमें मालवी शब्द भी टपकते रहते हैं। मैं थोड़ा होशियार बंदा हूँ, हिंदी में मालवी अक्सर मिक्स नहीं करता। हाँ सचेत होकर करूँ तो अलग बात है पर मालवियों की तरह मैं को में, और को ओर निकल ही जाता है। इस पर मेरी एक कविता भी है।
हम लोगों में अपनी भाषा-बोली के प्रति वैसा प्रेम नहीं है, जैसे हमारे पड़ोस के राज्य राजस्थान के मारवाडिय़ों-मेवाडिय़ों में पाया जाता है या अवधी, भोजपुरी, मैथिली आदि बोलने वालों में मिलता है। मालवा के सभी लोग मालवी भी नहीं बोलते। मराठीभाषियों, कायस्थों, मुसलमानों, बोहरों, सिंधियों में ऐसा शायद ही कोई परिवार हो, जो घर में या बाहर मालवी बोलता हो। हाँ ग्रामीण इलाकों की बोलचाल की भाषा अभी भी मालवी है।अब तो लगभग सभी शहरों-कस्बों के मध्यवर्गीय-निम्न मध्यवर्गीय परिवारों में मालवी छोड़ हिंदी ही बोली जाती है। हाँ विशेष अवसरों पर खानपान में आज भी मालवीपन बचा है। दाल-बाटी, दाल-बाफले बनते रहते हैं। शादी के अवसर पर एक बार दाल-बाफले की रसोई जरूर बनती है और गेहूँ से बने लड्डू भी। उनका अपना स्वाद और रस है। हाँ बरसात के इन दिनों में भजिये(पकोड़े) तथा गुलगुले बना करते थे। बरसात के इन्हीं दिनों में पानी के हलके से छींटे से भीगी ज्वार ले जाकर धानी सिंकवा कर गरम खाई जाती थी। गेहूँ की भी धानी सिंकवा कर उसमें गुड़ मिला कर खाने का अपना आनंद था। अब इनमें से बहुत सी चीजें हो सकता है, अप्रासंगिक हो गई हों। लेकिन दैनिक उपयोग में हमारी भी प्रिय सेव का स्थान यथावत सुरक्षित है।
स्कूल, कॉलेज में हिंदी में पढ़ाई होती थी और मित्रों के बीच भी अमूमन हिंदी का ही व्यवहार था। एक मित्र कथाकार ने कुछ साल पहले एक अंग्रेजी पत्रिका को दिए गए साक्षात्कार में कहा था कि उनकी बोली-भाषा तो फलां है और उन्हें हिंदी सीखने के लिए भी उतना ही प्रयत्न करना पड़ा, जितना कि अंग्रेजी सीखने के लिए। सौभाग्यवश मेरे जैसे लोगों के साथ आपकी ही तरह ऐसी समस्या नहीं रही। उनका केस स्पेशल रहा होगा। वैसे सीखने को तो अभी भी हिंदी सीखने का क्रम चलता रहता है। लेखक को अपनी भाषा के साथ भी खासकर लिखित अभिव्यक्ति के लिए मेहनत करनी होती है, सही शब्द,सही वाक्य बनाने के लिए जूझना पड़ता है मगर जो भाषा आप बचपन से इस्तेमाल करते हैं और जो बाद के वर्षों में सीखते हैं और जिसका घर-परिवार से लेकर बाजार में अमूमन इस्तेमाल नहीं होता,दोनों में जमीन-आसमान का फर्क होता है। यह जरूर है कि अपनी मातृभाषा सरीखी होते हुए मालवी से अब मेरा जीवंत संपर्क नहीं रहा क्योंकि मालवा जाकर भी आप और दूसरे भी हिंदी में ही बात करते हैं। टेलीफोन-मोबाइल पर भी इसी भाषा में बात होती है।
है तो मालवी भी मीठी भाषा। दूसरी भाषा- बोलियों के साथ भी ऐसा होगा मगर मुझे लगता है कि मालवियों में एक स्वाभाविक व्यंग्य-बोध होता है। थोड़ा-बहुत उसका असर मुझ पर भी है। इसमें मुझे लगता है, मेरी नहीं, मालवा अंचल की खूबी है। शरद जोशी भी इसी अंचल से थे और भी कई व्यंग्यकार। और हाँ उस समय आकाशवाणी से शाम सात बजे कृषि का एक कार्यक्रम आता था। उसके दो पात्र थे-नंदा जी और भैरा जी। नंदाजी हिंदी में ज्ञान देते थे, किसान भैरा जी मालवी में उनसे बात करते थे।अपना कृषि से तो क्या वास्ता था मगर इन दो पात्रों के संवाद सुनना अच्छा लगता था।
बचपन में एक कहावत सुनी-पढ़ी थी-मालव धरती गहन गंभीर, डग-डग रोटी, पग-पग नीर, हालांकि उज्जैन में क्षिप्रा गर्मियों में सूख जाती है और 12 साल बाद लगने वाले सिंहस्थ में क्षिप्रा नहाने का पुण्य कमानेवाले, नर्मदा के पानी में नहाने का ही पुण्य प्राप्त कर पाते हैं। वैसे नर्मदा ज्यादा बड़ी और ज्यादा प्रसिद्ध और पवित्र मानी जाने वाली नदी है तो वे घाटे की बजाय फायदे में रहते हैं। मेरे कस्बे की चीलर नदी छोटी और स्थानीय-सी है।कभी उसमें भी पानी होता था। महादेव घाट, छोटा पुल, बादशाही पुल और किले के परकोटे से नदी देखने का अपना ही आनंद था (एक बार गहरे पानी में चला गया तो डूबने ही वाला था कि किसी ने ऐन मौके पर बचा लिया।)। अब बाँध बनने के बाद नदी की विकल स्मृति ही बची है।महादेव घाट अब वीरान नजर आता है। उस कस्बे का सौंदर्य इस तरह मर चुका है। हाँ यह सही है कि मालवा की भूमि उर्वरा है। शायद ही वहाँँ के मजदूरों को कहीं बाहर मजदूरी करने जाना पड़ता हो। अभाव और गरीबी है मगर भुखमरी शायद अब भी नहीं है।
शायद अब भी मालवी में कवि सम्मेलनी कविता लिखी जाती होगी। उस समय बालकवि बैरागी, गिरवर सिंह भंवर, सुल्तान मामा, भावसार बा, पुखराज पांडे, हरीश निगम, मदनमोहन व्यास आदि कवि सम्मेलनों के मशहूर कवि थे। एक और पुराने कवि थे, जिन्हें देखा-सुना तो नहीं मगर उनकी एक कविता की दो पंक्तियाँ आज भी मुझे याद हैं :
क्यों सा ब कय्यांड़ी (किधर)?
अय्यांड़ी (इधर) ने वंय्याड़ी (उधर)
म्हारी तो हूदी-हट (सीधी) हट चली री हे गाड़ी।
हाँ शायद स्वभाव से हम अंय्याड़ी-वंय्याड़ी वाले नहीं हैंं। सीधी-सट गाड़ी चलाते हैं, भले ही सामने गड्ढा आ जाए और उसमें गिर जाएँ। कोई परवाह नहीं, कपड़े झाड़ कर फिर उठ खड़े हो जाते हैं। घर आकर घाव पर पहले लाल रंग का टिंचर (हम टिंक्चर का क् खा जाते थे) लगाते थे, अब डेटाल लगा लेते हैं।
-विष्णु नागर