संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आरक्षण का फायदा छोडऩे कौन मलाईदार तैयार होंगे?
08-Jul-2020 5:19 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : आरक्षण का फायदा छोडऩे कौन मलाईदार तैयार होंगे?

एक खबर है कि केन्द्र सरकार ओबीसी आरक्षण के लिए क्रीमीलेयर की आय सीमा को 8 लाख से बढ़ाकर 12 लाख करने जा रही है, लेकिन राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग इसका विरोध कर रहा है, और वह चाहता है कि मलाईदार तबके की यह सीमा 16 लाख रूपए सालाना आय से अधिक पर लागू हो। मतलब यह कि पिछड़ा वर्ग आयोग चाहता है कि शैक्षणिक संस्थाओं, और सरकारी नौकरियों में 27 फीसदी ओबीसी आरक्षण में संपन्नता की अपात्रता को 16 लाख रूपए सालाना आय से अधिक होने पर ही लागू किया जाए। 

हमारे नियमित पाठकों को याद होगा कि हम न केवल ओबीसी, बल्कि एसटी-एससी तबकों में भी मलाईदार तबके को आरक्षण के फायदे से बाहर करने के हिमायती हैं। लेकिन संसद या सरकार में, या इन दोनों तबकों के अधिकतर संपन्न और ताकतवर लोगों में शायद ही कोई ऐसा चाहते हों। मलाईदार तबके के तमाम लोग यह तर्क देते हैं कि आरक्षण आर्थिक आधार पर नहीं दिया जाता, वह सामाजिक स्थितियों और सामाजिक बेइंसाफी को देखकर दिया जाता है, इसलिए उसमें से किसी भी आय वर्ग को बाहर करना गलत होगा। यह एक इतना खोखला तर्क है कि साबुन से बना एक बुलबुला भी इससे अधिक मजबूत होगा। जब हम किसी तबके से मलाईदार तबके को आरक्षण के लिए अपात्र बनाने की बात कहते हैं, तो उसका मतलब है कि उसी तबके के नीचे की कमाई के लोग, गरीब और कमजोर लोग उस सीमित आरक्षण के हकदार हो सकें। मलाईदार तबके को बाहर करने का मतलब किसी कोने से भी आरक्षण को कम करना नहीं होता, बल्कि उन लोगों को आरक्षण का अधिक मौका दिलवाना होता है जो कि आरक्षित जातियों के भीतर ही अपने ही हमजात लोगों के मुकाबले बहुत अधिक कमजोर हैं। एक आईएएस या आईपीएस दलित, या एक सांसद-विधायक आदिवासी के बच्चे अपने मां-बाप की ताकत से किसी कॉलेज में दाखिले या नौकरी के मुकाबले की इतनी बेहतर तैयारी कर लेते हैं कि उन्हीं के स्वजातीय कमजोर लोग उनके मुकाबले कहीं टिक नहीं पाते। नतीजा यह होता है कि आरक्षित तबकों के भीतर भी कुछ सीमित संख्या में लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी ताकतवर होते चलते हैं, और बाकी तमाम लोग कमजोर के कमजोर रह जाने से किसी भी मुकाबले में अपने तबके के भीतर कोई संभावना नहीं रखते। 

अब ओबीसी आरक्षण पाने वाले लोगों के भीतर बहुत सारे लोग ऐसे हैं जो कि आर्थिक रूप से बहुत ताकतवर हैं। इन जातियों में लोग बड़े किसान हैं, जिनके पास बहुत सारी जमीन हैं, और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में जब वे अपनी फसल बेचते हैं, और सरकारी भुगतान बैंक खाते में आता है, तो यह भी साफ रहता है कि उनकी कमाई कितनी है। ऐसे में ओबीसी के भीतर के गरीब लोग भला क्या खाकर संपन्न ओबीसी के बच्चों के मुकाबले तैयारी कर सकते हैं। 

आज बहस का मुद्दा महज ओबीसी क्रीमीलेयर है, लेकिन हम इसी सिलसिले में दलित और आदिवासी क्रीमीलेयर के बारे में अपनी सोच को साफ रख देना चाहते हैं, फिर चाहे दलित-आदिवासी क्रीमीलेयर चर्चा में भी न हो। इसकी एक वजह यह भी हो सकती है कि इन तबकों में जिन लोगों की जुबान का आज वजन है, वे सारे के सारे मलाईदार तबके में आते हैं, और वे अपने वर्गहित के लिए इस बात पर चर्चा भी नहीं होने देना चाहते। लेकिन जब आरक्षण के पीछे की नीयत सामाजिक अन्याय खत्म करने की है, तो फिर वह अन्याय आज किसी आरक्षित जाति के भीतर भी बुरी तरह हावी हो गया है, और आरक्षण को उतना ही रखते हुए उसे अपने तबके के कमजोर बहुसंख्यक की पहुंच के भीतर लाना चाहिए।

यह तो एक अच्छी बात है कि ओबीसी आरक्षण से आज मलाईदार तबके को बाहर रखने को लेकर कोई विवाद नहीं है, विवाद बस इतना है कि 8 लाख रूपए सालाना पारिवारिक आय की सीमा को बढ़ाकर 12 लाख किया जाए, या 16 लाख किया जाए। इससे बहस इस दायरे पर केन्द्रित हो गई है, और अब यह आम सहमति दिख रही है कि 16 लाख रूपए सालाना आय वाले परिवारों को पढ़ाई और नौकरी में आरक्षण के फायदे से बाहर रखा जाए। अब सरकार इसे 12 लाख तक लाना चाहती है, और राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग इसे 16 लाख करना चाहता है। अभी की जानकारी यह है कि आयोग इस बात पर भी तैयार हो गया है कि 16 लाख रूपए सालाना वेतन वाले लोगों को भी मलाईदार तबके में गिन लिया जाए, जबकि पहले वेतनभोगियों को इस सीमा में लाने का विरोध चल रहा था। 

हमने एक-दो दिन पहले ही इसी जगह लिखा था कि संसद और विधानसभाओं में संपन्न लोगों का अनुपात जितना बढ़ते चल रहा है कि वहां गरीबी की सोच के साथ बात रखने वाले लोग बहुत बुरी तरह घट गए हैं। ऐसे में यह भी सोचना चाहिए कि क्या आरक्षित वर्गों के लिए तय संसदीय और विधानसभा सीटों को लेकर भी मलाईदार तबके की एक सीमा लागू करनी चाहिए ताकि उन्हीं तबकों के गरीब लोग भी चुनाव लड़ सकें? ऐसा इसलिए भी जरूरी लग रहा है कि संसद और विधानसभाओं से गरीबों की आवाज खत्म होते चल रही है। हमको मालूम है कि इन तबकों के कोई भी जनप्रतिनिधि इस राय को सिरे से ही खारिज कर देंगे, क्योंकि अपने पहले चुनाव के वक्त न सही, पांच साल का कार्यकाल खत्म होने तक तो वे मलाईदार तबके में पहुंच ही चुके रहते हैं। प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत तो यही कहता है कि आरक्षित तबकों के भीतर बार-बार चुनकर, बार-बार सत्ता या विपक्ष की ताकत से संपन्नता बढ़ाकर, प्रभाव और ताकत बढ़ाकर जो लोग आरक्षण का फायदा पा चुके हैं, उन्हें इस फायदे से अलग करके उन्हीं के समाज के बाकी लोगों को भी मौका देना चाहिए। देखें इन मुद्दों पर चर्चा के लिए कोई तैयार होते हैं या नहीं? 

आरक्षित तबकों के भीतर की यह मलाई बस नाम के लिए मलाई है, वरना हकीकत में तो वह एक फौलादी दीवार है जो कि अपनी पूरी बिरादरी के हकों के ऊपर एक मजबूत ढक्कन की तरह जमी हुई है, और जिसे चीरकर नीचे के निहत्थे, कमजोर, बेबस, और बेजुबान हमजात कभी ऊपर नहीं आ सकते। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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