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एक चुटकी सिंदूर की कीमत बताने वाले जज साहब ने औरतों के बारे में सोचा? : मनीषा पांडेय
03-Jul-2020 8:14 PM
एक चुटकी सिंदूर की कीमत बताने वाले जज साहब ने औरतों के बारे में सोचा? : मनीषा पांडेय

जिन्हें कानून का पालन करने की जि़म्मेदारी सौंपी गई है, वो भी तो इसी समाज हैं। वो आज भी अपनी जड़ों और बुनियादी संरचना में निहायत सामंती और मर्दवादी हैं। इसीलिए वो बलात्कार की शिकार लडक़ी से सवाल पूछता है कि वो रेप के बाद सो कैसे सकती है। इसलिए वो फ़ैसला सुनाता है कि औरत की कमजोर ना का मतलब हां होता है।

क़ानून की किताब से इतर पितृसत्ता के तमाम विशेषाधिकार अब भी न्यायालय की चारदीवारी के भीतर सुरक्षित हैं। वो बदलेगा, जब समाज बदलेगा। वरना यही होगा, जो हुआ।

कुछ और कहूं, इससे पहले ये दो किस्से सुन लीजिए।

यूपी बोर्ड की आठवीं की केमिस्ट्री की किताब में एक चैप्टर था, लेड टेट्राऑक्साइड पर। केमिकल नाम था-पीबी304। हिंदी में सीसा कहते हैं। किताब में लिखा था ज़हर होता है। इंसान खा ले तो मर जाए। फिर लिखा था, सिंदूर में यही लेड टेट्राऑक्साइड मिलाया जाता है यानी ज़हर। उस दिन मैंने घर लौटकर मां को बताया कि ये जो आप लगाती हैं रोज, ये जहर है। घर के कुछ मर्दों ने मजाक में कहा, अरे बेटा फिक्र मत करो। ज़हर को जहर ही काटता है। इसका मतलब मुझे तब समझ नहीं आया था।

बचपन में गांव में हमारे यहां नई बहू गौना करके आई थीं। रिश्ते में मेरी चाची लगती थीं। शादी के 10 दिन बाद ही उनका माथा और सिर बुरी तरह सूज गया। वो दिन-रात मेरी मां से चार गुना ज्यादा नारंगी रंग का सिंदूर लगाए रहती थीं। उनकी हालत इतनी खराब हो गई कि इलाज के लिए इलाहाबाद ले जाना पड़ा। डॉक्टर ने कहा कि उसे सिंदूर से इंफेक्शन हो गया था। सिंदूर मतलब लेड टेट्राऑक्साइड। मतलब ज़हर।

अब मुद्दे की बात पर आते हैं। गुवाहाटी हाईकोर्ट ने तीन दिन पहले तलाक़ के एक मामले कि सुनवाई के दौरान एक टिप्पणी की है। अदालत ने कहा कि अगर कोई औरत मांग में सिंदूर न लगाए और सुहाग की निशानी शाका-पोला (चूडिय़ां) पहनने से इंकार करे तो इसका मतलब है कि वो अपनी शादी की इज्जत नहीं करती और उस शादी में रहना नहीं चाहती। ऐसी औरत से पति तलाक लेना चाहे तो कोर्ट इस तलाक को मंजूर करती है।

कुल मिलाकर बात ये है कि अगर आपकी पत्नी सुहाग की निशानियां सिंदूर, चूड़ी आदि पहनने से इनकार करे तो इस आधार पर न सिर्फ तलाक मांगा जा सकता है, बल्कि वो आपको थाली में सजाकर मिल भी जाएगा। इतना ही नहीं, कोर्ट अपने बयान में ये भी कहेगा, सिंदूर न लगाने का अर्थ है कि औरत खुद को कुंवारी दिखाना चाहती है।

चीफ जस्टिस अजय लांबा और जस्टिस सौमित्र सैकिया ने तलाक के इस मामले में फैसला सुनाते हुए साफ शब्दों में कहा, पत्नी का शाका-पोला और सिंदूर पहनने से इंकार करना उसे कुंवारी दिखाता है। इसका साफ मतलब है कि वह अपना विवाह जारी नहीं रखना चाहती।

मर्द सुहाग की निशानी क्यों नहीं पहनते?

हालांकि हाईकोर्ट से पहले फैमिली कोर्ट ने उसे पति को तलाक देने के बजाय लताड़ लगाई थी और यह कहते हुए तलाक देने से इंकार कर दिया था कि पत्नी ने पति के साथ कोई क्रूरता नहीं की है। लेकिन उससे ऊंची अदालत में बैठे दो पुरुष जजों को ऐसा नहीं लगा।

पूछ तो दीपिका पादुकोण रमेश बाबू से रही थीं एक चुटकी सिंदूर की कीमत, लेकिन लगता है कि जज साहब को बेहतर पता है।

ख़ैर, कुछ तीन दशक पीछे चलते हैं। जब टेलीविजन और सिनेमा नया-नया रंगीन हुआ तो अचानक शादी के पहले और शादी के बाद की हिरोइन का फर्क  साफ नजर आने लगा।

ब्लैक एंड वाइट सिनेमा में भी मीना कुमारी के माथे पर बिंदी और मांग में सिंदूर होता था, लेकिन वो पर्दे पर ऐसे शोर मचाकर अपनी उपस्थिति नहीं दर्ज कराता था। मगर सिनेमा रंगीन होते ही माथे के बीचोंबीच की वो लाल लकीर साफ नजर आने लगी।

राजेश खन्ना का बेलबॉटम पैंट तो फेरों के बाद भी वही रहता, मुमताज जरूर लाल परी में तब्दील हो जाती। विनोद मेहरा के शर्ट के दो बटन शादी के बाद भी खुले रहते उसकी छाती के घने बालों का नजारा दिखाते, लेकिन रेखा की लाल लिप्सटिक, लाल बिंदी में एक और लाल रंग जुड़ जाता- मांग में भरा लाल सिंदूर।

इशारा साफ था। ये प्रॉपर्टी अब ऑक्यूपाई हो चुकी है। कृपया इधर नजर न डालें।

चूंकि हीरो तो किसी की प्रॉपर्टी था नहीं। चूंकि उसे देखकर कोई नहीं बता सकता था कि वो कुंवारा है या शादीशुदा तो वो ऑफिस में सेक्रेटरी से लेकर बस स्टॉप पर खड़ी लडक़ी तक सबको लाइन देता चलता था। माथे पर लाल सिग्नल वाली औरतों को छोडक़र।

अदालत ऐसा कैसे सोच सकती है?

हालांकि पश्चिम के सिनेमा का रंग थोड़ा दूसरा है। द अफेयर की शुरुआत ही ऐसे होती है कि लडक़ी एक स्विमिंग पूल में लडक़े से टकराती है। आंखों से इशारा करती है। लेकिन इससे पहले कि वो आगे कुछ कहे, उसकी नजर लडक़े के अंगूठी पर पड़ जाती है और मुंह से निकलता है, ओह... बैड लक।

विदेशी लडक़ा सुहाग की निशानी उंगली में पहनकर घूम रहा है। बेवकूफ बनाने का कोई चांस नहीं। यही तो फर्क़ है। वहां दोनों जेंडर में शादीशुदा होने के लक्षण एकसमान हैं।

यही तो कह रहे हैं न हम। नई बात, नई सोच, नई मांग, नई लड़ाई और क्या है? यही तो कि औरत और मर्द एक बराबर हैं। दोनों के अधिकार बराबर हैं। मर्द का कोई विशेष अधिकार नहीं, औरत का कोई अधिकार मर्द से कम नहीं। एकदम सीधी, सरल बात है।

ये जेंडर बराबरी की किताब का पहला चैप्टर है। एकदम बुनियादी सबक, लेकिन ये पहला सबक भी हमारे मर्दों को अब तक ढंग से याद नहीं हुआ है। लड़कियां तो इस चैप्टर को कब का पार करके आगे पहुंच चुकीं। अब उनके सवाल दूसरे हैं। वो बराबर काम का मर्दों के बराबर पैसा मांग रही हैं। संपत्ति में बराबर का हक मांग रही हैं। उन्होंने चूड़े उतार दिए, सिंदूर पोंछ दिया। वो काम पर जा रही हैं। वो और भी बहुत कुछ मांग रही हैं, जबकि खुद नख-शिख कंवारे नजर आते मर्द अभी भी सिंदूर, बिंदी और चूड़ी में उलझे हुए हैं।

सडक़ चलते मर्द तो उलझे हैं, समझ आता है, लेकिन क्या इस देश के जिम्मेदार फैसलाकुन पदों पर बैठे मर्द भी वहीं उलझे हैं? क्या उन्हें भी लगता है कि एक औरत का सिंदूर न लगाना इतना बड़ा अपराध है कि उसकी सजा तलाक भी हो सकती है?

ये भारत का संविधान नहीं है, ये पितृसत्ता का क़ानून है। ये हमारी सैकड़ों साल पुरानी सड़ी-गली मान्यताओं और परंपराओं का कानून है।

पितृसत्ता से घिरा कानून

ये कानून कागज पर कानून बनाने से नहीं बदलता। ये सोच बदलने से बदलता है, समाज बदलने से बदलता है। ये उनके बदलने से बदलता है, जिन्हें इस कानून ने हमेशा हर हक, हर सुख से वंचित रखा है। ये कानून औरतों के बदलने से बदलता है। जब वो सिंदूर लगाने से इनकार कर देती हैं, बात मानने से इंकार कर देती हैं, आदेश लेने से इनकार कर देती हैं, सिर झुकाने और लात खाने से इंकार कर देती हैं।

बात सिर्फ कागज पर कानून बदलने की होती तो मान ही लेते कि सब बदल गया है। कागज पर अब समलैंगिकता अपराध नहीं है। कागज पर लिव इन रिलेशनशिप को मान्यता मिल गई है। कागज पर एडल्टरी भी अपराध नहीं रही।

कागज पर बाप की 500 बीघा ज़मीन में से 250 अब लडक़ी की है। कागज पर लिखा है बराबर की मजदूरी, बराबर का पैसा, बराबर का सब अधिकार। लेकिन कागज़ पर लिख देने और जिंदगी में हो जाने में उतना ही फासला है, जितना चाहने और पा लेने में।

जिन्हें कानून का पालन करने की जि़म्मेदारी सौंपी गई है, वो भी तो इसी समाज हैं। वो आज भी अपनी जड़ों और बुनियादी संरचना में निहायत सामंती और मर्दवादी हैं। इसीलिए वो बलात्कार की शिकार लडक़ी से सवाल पूछता है कि वो रेप के बाद सो कैसे सकती है। इसलिए वो फ़ैसला सुनाता है कि औरत की कमजोर ना का मतलब हां होता है।

क़ानून की किताब से इतर पितृसत्ता के तमाम विशेषाधिकार अब भी न्यायालय की चारदीवारी के भीतर सुरक्षित हैं। वो बदलेगा, जब समाज बदलेगा। वरना यही होगा, जो हुआ।

पति ने तलाक मांगा, जजों ने तलाक दे दिया। हालांकि मंगलवार की सुबह गुवाहाटी हाईकोर्ट के एक ऊची मेहराब वाले कमरे में एक औरत के लिए सिंदूर न लगाने की ये सजा मुकर्रर करने वाले किसी भी मर्द को देखकर ये कोई नहीं बता सकता था कि वो शादीशुदा हैं या नहीं। (बीबीसी)

 

 

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