संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अकेले प्रियंका का क्यों, राजधानियों से ऐसे हजारों बंगले खाली कराए जाएं..
03-Jul-2020 6:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : अकेले प्रियंका का क्यों, राजधानियों से ऐसे हजारों बंगले खाली कराए जाएं..

दिल्ली में कांग्रेस महासचिव और सोनिया परिवार की, प्रियंका को सरकारी मकान खाली करने का नोटिस मिला है क्योंकि उनका सुरक्षा दर्जा कुछ समय पहले घटा दिया गया था, और एसपीजी की सुरक्षा को सिर्फ प्रधानमंत्री तक सीमित किया गया था। ऐसे में भूतपूर्व प्रधानमंत्री की बेटी होने के नाते प्रियंका को भी सुरक्षा घट गई थी, और अब सरकारी मकान खाली करने को नोटिस दिया गया है। कहने को नोटिस में 30 दिनों का वक्त है, लेकिन साथ में यह भी है कि बाजार भाव पर भाड़ा देकर वे वहां और भी रह सकती हैं। जैसी कि उम्मीद थी दिल्ली की कांग्रेस नेताओं ने तुरंत ही सरकार के इस नोटिस के खिलाफ बयान देना शुरू कर दिया, और इसे सरकार की बदले की कार्रवाई बताया। लेकिन बहुत से ऐसे पत्रकार जो आमतौर पर मोदी सरकार के आलोचक रहते हैं, उन्होंने तुरंत ही यह ट्वीट किया कि प्रियंका गांधी को सुरक्षा घटते ही सरकारी बंगला खाली कर देना था, और दिल्ली में अपने परिवार के निजी बंगले में चले जाना था, लेकिन वे इस मौके को चूक गईं।
 
हमारा ख्याल है कि इस मामले को कांग्रेस पार्टी जितना कुरेदेगी, उतना ही उसका राजनीतिक नुकसान होगा। जनता का जो तबका किसी नेता या पार्टी का समर्थक है, या नहीं भी है, सबके बीच एक बात को लेकर भावना एक सरीखी है कि नेता सरकारी बंगलों का बेजा इस्तेमाल करते हैं। यह बात तमाम पार्टियों के तमाम नेताओं पर एक सरीखी लागू होती है, और महज वामपंथी नेता इससे परे के हैं जिनके सरकारी मकानों का एक बड़ा हिस्सा पार्टी अपने दूसरे कार्यकर्ताओं और पार्टी के दूसरे संगठनों के लिए आबंटित करती है। लोगों को याद होगा कि प्रियंका गांधी जिस उत्तरप्रदेश की राजनीति में पूरा समय दे रही हैं, उसी उत्तरप्रदेश में भूतपूर्व मुख्यमंत्रियों के सरकारी बंगले खाली करवाने के लिए लोगों को अदालत तक जाना पड़ा है, और उसके बाद अलग-अलग राज्यों ने केबिनेट में फैसले लेकर ऐसी कानूनी व्यवस्था कर दी है कि भूतपूर्व मुख्यमंत्री, और भूतपूर्व विधानसभा अध्यक्ष सरकारी बंगलों के हकदार बने रहें। एक गरीब देश में यह सिलसिला बहुत भयानक है। दुनिया के जो सबसे विकसित और लोकतांत्रिक देश हैं, वहां भी सरकारी मकानों की ऐसी कोई पात्रता नहीं रहती, और लोग जब तक किसी पद पर रहते हैं, उन्हें किराए की पात्रता अगर रहती है, तो उस सीमा के भीतर वे खुद ही मकान ढूंढकर किराए पर रह लें। 
यह देश कितना गरीब है यह इससे भी पता लगता है कि बहुत से प्रदेशों की मांग के बाद जब केन्द्र सरकार ने अभी मुफ्त राशन की व्यवस्था बढ़ाई, तो उसके आंकड़े बताते हैं कि 80 करोड़ लोग गरीबी की इस सीमा में आते हैं। इस बात में बहुत बड़ा विरोधाभास है कि देश की आबादी की आधे से अधिक हिस्से को मुफ्त राशन जरूरी हो, और पूरे देश में केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों के बंगलों का बेजा इस्तेमाल जारी रहे। सरकारी बंगले में एक बार पहुंच जाने के बाद लोग जिंदगी के आखिर तक उसे खाली करना नहीं चाहते। और अगर नाम जगजीवनराम और मीरा कुमार हो, तो गुजर जाने के बाद भी उस बंगले में स्मारक बनाने की जिद जारी रहती है। यह पूरा बेजा इस्तेमाल खत्म होना चाहिए। राज्यों की राजधानियों में भी सरकारी मकान खत्म होने चाहिए, और हर ओहदे के साथ एक किराए की पात्रता जुड़ी रहनी चाहिए जिससे लोग मर्जी के मकान में रहें, और पद से हटते ही वह किराया मिलना खत्म हो जाए।
 
हमारा ख्याल है कि सरकार के विवेक के सारे अधिकार अलोकतांत्रिक होते हैं कि किन लोगों को सरकारी मकान मिलें, और कितने बड़े मिलें। सरकार की अपनी कोई जेब नहीं होती है, वह जनता के पैसों पर पलती हैं, और उसके बेजा इस्तेमाल का हक किसी को नहीं होना चाहिए। आज हालत यह है कि बड़े-बड़े सरकारी बंगलों को लोग पहले तो आबंटित करा लेते हैं, और फिर उनके रख-रखाव के लिए, वहां सब्जी उगाने से लेकर कुत्ते नहलाने-घुमाने तक के लिए, वहां सफाई के लिए अंधाधुंध सरकारी कर्मचारियों की तैनाती करवा लेते हैं। निजी कंपनियों में किसी अधिकारी या कर्मचारी पर कंपनी का होने वाला कुल खर्च कॉस्ट टू कंपनी कहलाता है। आज बड़े अफसरों और मंत्रियों को देखें तो उनके बंगलों पर तैनात कर्मचारियों की सरकारी लागत इन अफसर-मंत्री की सरकारी लागत से बहुत अधिक होती है। जितनी तनख्वाह वे पाते हैं, उससे कई गुना अधिक तनख्वाह का अमला उनके निजी काम के लिए तैनात रहता है। राज्यों में तो हमारा देखा हुआ है कि सरकारी अमला विपक्ष के निर्वाचित विधायकों के घर भी तैनात कर दिया जाता है, ताकि वे विधानसभा में कुछ नर्मी बरतें। यह सब कुछ जनता के मुंह के निवाले को छीनकर ही हो पाता है, जनता के इलाज के हक, उसके बच्चों के पढ़ाई के हक में से छीनकर ही हो पाता है। 

इस फिजूलखर्ची को हिन्दुस्तान की कोई भी बड़ी अदालत शायद ही फिजूल माने क्योंकि देश की बड़ी अदालतों के जज खुद भी अपने पर ऐसी ही सरकारी फिजूलखर्ची करवाते हैं। एक-एक जज के साथ दो-दो, तीन-तीन सरकारी गाडिय़ों, सुरक्षा कर्मचारियों का काफिला चलता है जो सायरन बजाते हुए लोगों को हटाता है, जानवरों को हटाता है। जजों के बंगलों पर भी सरकार का बहुत खर्च होता है। ऐसे में जनता के बीच से ही ऐसे खर्च के खिलाफ आवाज उठनी चाहिए, और अदालतों तक मामलों को ले जाना चाहिए ताकि अगर जजों का पूर्वाग्रह जनहित याचिकाओं को खारिज भी करता है तो कम से कम वह कानून की किताबों में बुरी मिसाल की तरह दर्ज तो हो जाए।
 
प्रियंका गांधी का मामला अकेला नहीं है। पूरे देश में हर राजधानी में ऐसे सैकड़ों मामले हैं, और दिल्ली में भी ऐसे दर्जनों और मामले होंगे। इन सब पर एक तरह की सख्ती और कड़ाई से कार्रवाई होनी चाहिए। धीरे-धीरे सरकार को निजी बंगलों का सिलसिला खत्म ही कर देना चाहिए। आज सत्ता में ऊपर बैठे हुए लोगों पर यह खर्च बड़े सामंती दर्जे से भी अधिक का होता है, और उन पर अघोषित खर्च उससे भी अधिक होता है। राजनीतिक दलों में से वामपंथियों के अलावा कोई भी इस मुद्दे को नहीं उठाएंगे क्योंकि ऐशोआराम में हर कोई भागीदार हैं। इसके खिलाफ एक जनजागरण की जरूरत है ताकि जनता ही सवाल करे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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