संपादकीय
असम उच्च न्यायालय ने अभी एक आदमी को अपनी पत्नी से तलाक लेने की इजाजत दे दी। अदालत का यह मानना था कि एक हिन्दू शादीशुदा महिला सिंदूर लगाने और चूड़ी पहनने से इंकार करती है तो यह तलाक का पर्याप्त आधार है। निचली अदालत ने इस आधार पर पति को तलाक की इजाजत नहीं दी थी और माना था कि ऐसा करके पत्नी ने उसके साथ कोई क्रूरता नहीं की। अभी हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि चूड़ी पहनने और सिंदूर लगाने से इंकार करना पत्नी को अविवाहित दिखाएगा, या फिर यह दर्शाएगा कि वह पति के साथ इस शादी को स्वीकार नहीं करती। अदालत ने कहा कि पत्नी का यह रवैया इशारा करता है कि वह पति के साथ दाम्पत्य जीवन स्वीकार नहीं करती है।
तलाक के इस मामले में और भी बहुत सारे पहलू थे लेकिन दो जजों की हाईकोर्ट बेंच की ये टिप्पणियां भयानक है। भारतीय, और खासकर हिन्दू समाज में, एक महिला के ऊपर पुरूषप्रधान समाज की लादी गई उम्मीदों का यह एक नायाब नमूना है। एक शादीशुदा महिला के लिए भारत में चूड़ी, सिंदूर, बिंदी जैसे कई प्रतीक सैकड़ों-हजारों बरस से लादे गए हैं। और शादीशुदा आदमी बिना किसी प्रतीक के खुले सांड की तरह घूमने के लिए छोड़ दिया जाता है। यह पूरा सिलसिला औरत के साथ गैरबराबरी के बर्ताव का है जिसमें प्रतीकों और रस्मों को अनिवार्य रूप से उसके शोषण से जोड़ा जाता है, और उसके दूसरे दर्जे की सामाजिक स्थिति की गारंटी भी इनसे की जाती है। एक महिला के लिए कुमारी या श्रीमती लिखकर अपनी वैवाहिक स्थिति का खुलासा करना जरूरी किया जाता है, लेकिन मर्द के लिए ऐसी कोई बंदिश किसी सरकारी कागज में नहीं रहती। एक महिला को शादी के बाद अनिवार्य रूप से सरकारी और अदालती कागजों में अपने नाम के साथ पति का नाम भी जोडऩा पड़ता है, लेकिन उसके पति पर ऐसी कोई बंदिश नहीं रहती, और वह अपने नाम के साथ पिता का नाम लिए हुए ही मर सकता है। वह अगर पहले मर गया, और आंकड़ों को देेखें तो उसे अनिवार्य रूप से पहले ही मरना है, तो उसके बाद हिन्दू समाज में उसकी पत्नी से और कई किस्म की उम्मीदें की जाती हैं कि वह इसके बाद चूड़ी न पहने, बिंदी न लगाए, रंगीन कपड़े न पहने, परिवार में किसी खुशी के समारोह के वक्त दूर कहीं पीछे बैठी रहे, और सामने न आए, मांस-मछली, अंडा-प्याज-लहसुन न खाए, अपनी कोई जिंदगी न जिए। मतलब यह कि अब कानूनी रूप से किसी औरत को मरे हुए पति के साथ सती करना आसान नहीं रह गया है, इसलिए उसे जीते-जी एक दर्शनीय सती बना दिया जाए कि उसकी जिंदगी अब उजड़ गई है। दूसरी तरफ पत्नी के गुजरने के बाद पति पर इस किस्म की कोई बंदिश नहीं हैं। हमने ऊपर पति के पहले गुजरने की बात आंकड़ों के आधार पर इसलिए लिखी है कि हिन्दुस्तान में आमतौर पर पुरूष अपने से पांच बरस या और अधिक छोटी महिला से शादी करना पसंद करते हैं ताकि बुढ़ापे में सेवा करने के लिए बीवी के हाथ-पैर चलते रहें। फिर ईश्वर ने भी मानो औरत को इसी मकसद से अधिक मजबूत बनाया है कि वह बच्चों, पति, और पति के परिवार की सेवा कर सके, और उसकी औसत उम्र भारत के औसत पुरूष की उम्र से तीन-चार बरस ज्यादा रहती है। इस तरह पांच बरस छोटी महिला से शादी, और महिला की जिंदगी तीन-चार बरस अधिक होने के जनगणना के तथ्य को जोडक़र देखें, तो औसत भारतीय महिला को आखिर के कई बरस अकेले रहना होता है। ऐसे में हिन्दुस्तान का एक हाईकोर्ट उसके माथे पर सिंदूर, और हाथ में चूड़ी को एक बेड़ी-हथकड़ी की तरह पहनाने पर आमादा है कि यह शादीशुदा जिंदगी की एक अनिवार्य कानूनी शर्त है। यह फैसला बहुत ही खराब फैसला है, और हमारा पक्का भरोसा है कि यह सुप्रीम कोर्ट में जरा भी खड़ा नहीं हो पाएगा।
अभी चार दिन पहले ही इसी जगह पर हमें कर्नाटक हाईकोर्ट के एक जज की की गई टिप्पणी पर लिखना पड़ा था जिसमें जज ने बलात्कार की शिकायत करने वाली एक महिला के खिलाफ ही बहुत सी अवांछित बातें कहीं थीं। वहां के जज, जस्टिस कृष्ण एस. दीक्षित ने अपने फैसले में शिकायत करने वाली महिला के चाल-चलन के बारे में कई किस्म के लांछन लगाए। उन्होंने इस महिला के बारे में कहा- महिला का यह कहना कि वह बलात्कार के बाद सो गई थी, किसी भारतीय महिला के लिए अशोभनीय है। महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसा व्यवहार नहीं करती हैं।
यह कहते हुए जज ने आरोपी की अग्रिम जमानत मंजूर कर दी। जज ने इस मामले में कई ऐसी टिप्पणियां कीं जिनका आरोप से कोई संबंध नहीं है, और जिनसे महिला के चाल-चलन के बारे में एक बुरी तस्वीर बनती है। जस्टिस दीक्षित ने कहा- शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया है कि वे रात 11 बजे उनके दफ्तर क्यों गई थीं, उन्होंने आरोपी के साथ अल्कोहल लेने पर एतराज नहीं किया, और उन्हें अपने साथ सुबह तक रहने दिया। शिकायतकर्ता का यह कहना कि वह अपराध होने के बाद थकी हुई थीं, और सो गई थीं, भारतीय महिलाओं के लिए अनुपयुक्त है। हमारी महिलाएं बलात्कार के बाद ऐसा व्यवहार नहीं करतीं। शिकायतकर्ता ने तब अदालत से संपर्क क्यों नहीं किया जब आरोपी ने कथित तौर पर उन पर यौन संबंध के लिए दबाव बनाया था?
यह सोच चूंकि हाईकोर्ट जज की कुर्सी से निकली है, इसलिए बहुत भयानक है। इस कुर्सी तक बलात्कार के शायद तीन चौथाई मामलों पर आखिरी फैसले हो जाते हैं, और इसके ऊपर की अदालत तक शायद बहुत कम फैसले जाते होंगे। ऐसे में बलात्कार का आरोप लगाने वाली एक महिला की मानसिक और शारीरिक स्थिति, बलात्कार के साथ उसके सामाजिक और आर्थिक संबंधों की बेबसी की कोई समझ अदालत के इस अग्रिम-जमानत आदेश में नहीं दिखती। जज की बातों में एक महिला के खिलाफ भारतीय पुरूष का वही पूर्वाग्रह छलकते दिखता है जो कि अयोध्या में सीता पर लांछन लगाने वाले का था। एक महिला के खिलाफ भारत में पूर्वाग्रह इतने मजबूत हैं कि उसके पास अपने सच के साथ धरती से फटने की अपील करते हुए उसमें समा जाने के अलावा बहुत ही कम विकल्प बचता है।
एक फैसला कर्नाटक हाईकोर्ट का, और एक यह असम का, ये दोनों मिलकर 21वीं सदी में भारत के हाईकोर्ट के जजों की सोच बता रहे हैं, और ये एक हिंसक सोच है जो कि सदियों से महिलाओं के खिलाफ चली आ रही सोच का ही एक विस्तार है।
इससे एक और बात भी उठती है। हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के जजों को न सिर्फ इस मामले में बल्कि कई दूसरे किस्म के मामलों में भी उनके पूर्वाग्रह से परे कैसे रखा जा सकता है? यह बात तो तय है कि किसी के पूर्वाग्रह आसानी से नहीं मिटाए जा सकते। लेकिन यह तो हो सकता है कि पूर्वाग्रहों की अच्छी तरह शिनाख्त पहले ही हो जाए, और फिर यह तय हो जाए कि ऐसे जजों के पास किस तरह के मामले भेजे ही न जाएं।
जिन लोगों को अमरीका में जजों की नियुक्ति के बारे में मालूम है वे जानते हैं कि बड़ी अदालतों के जज नियुक्त करते हुए सांसदों की कमेटी उनकी लंबी सुनवाई करती है, और यह सुनवाई खुली होती है, इसका टीवी पर प्रसारण होता है। और यहां पर सांसद ऐसे संभावित जजों से तमाम विवादास्पद और संवेदनशील मुद्दों पर उनकी राय पूछते हैं, उनसे जमकर सवाल होते हैं, उनके निजी जीवन से जुड़े विवादों पर चर्चा होती है, और देश की अदालतों के सामने कौन-कौन से मुद्दे आ सकते हैं उन पर उनकी राय भी पूछी जाती है। कुल मिलाकर निजी जीवन और निजी सोच इनको पूरी तरह उजागर कर लेने के बाद ही उनकी नियुक्ति होने की गुंजाइश बनती है। दूसरी तरफ हिन्दुस्तान में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट जजों की नियुक्ति सुप्रीम कोर्ट ने अपने हाथ में रखी है, और वहीं से नाम तय होकर प्रस्ताव सरकार को जाते हैं। ऐसे में जजों की सामूहिक सोच से परे किसी और तरह की सोच आने की गुंजाइश नहीं रहती।
हमारा ख्याल है कि हिन्दुस्तान में जजों के सारे पूर्वाग्रह पहले ही उजागर हो जाने चाहिए। और इसके साथ ही यह भी दर्ज हो जाना चाहिए कि उन्हें किस किस्म के मामले न दिए जाएं, या कि उन्हें नियुक्त ही न किया जाए। हमारा यह भी मानना है कि देश के सुप्रीम कोर्ट को अलग-अलग राज्यों के हाईकोर्ट के फैसलों की ऐसी व्यापक असर वाली बातों का खुद होकर नोटिस लेना चाहिए, और इसके लिए कौन सा सुधार किया जा सकता है उसका एक रास्ता निकालना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)