संपादकीय

'छत्तीसगढ़' का संपादकीय : डिजिटल समाचार मीडिया, तेज धार औजार के खतरे
24-Jun-2020 5:00 PM
'छत्तीसगढ़' का संपादकीय : डिजिटल समाचार मीडिया, तेज धार औजार के खतरे

कल ट्विटर पर एक नौजवान जोड़े ने अपना एक वीडियो पोस्ट किया, और देश के एक सबसे बड़े अखबार  की वेबसाईट पर आई खबर को दिखाया जिसमें इन दोनों की तस्वीर दिख रही थी। खबर बड़ी खराब थी, परिवार के भीतर ही हत्या और आत्महत्या जैसी कोई बात इसमें थी। उन्होंने वीडियो पर कहा कि वे दोनों जिंदा हैं, और खबर में जिस युवक और युवती, पति-पत्नी का जिक्र है, उनके नाम देखकर फेसबुक से इस दूसरे जोड़े का फोटो निकाल लिया गया, और पोस्ट कर दिया गया। एक दूसरी खबर जो खबर की शक्ल में सामने नहीं आई, लेकिन ट्रांसजेंडर तबके को सोशल मीडिया पर आकर एक बड़े अखबार के खबर का खंडन करना पड़ा। इस अखबार की वेबसाईट पर बहुत ही प्रमुखता से एक शहर की एक खबर पोस्ट हुई कि शहर के एक मुहल्ले में एक समलैंगिक नौजवान कोरोना पॉजिटिव निकला है, और उसने पिछले दिनों 34 लोगों से देहसंबंध बनाए थे, और सरकार में हड़कम्प मच गया है, और इन 34 लोगों को तलाशा जा रहा है। चूंकि शहर के मुहल्ले का भी नाम छपा हुआ था, इसलिए खतरा यह था कि उस मुहल्ले में अगर सचमुच ही कोई समलैंगिक नौजवान लोगों की जानकारी में हो, तो उसकी मॉबलिचिंग भी हो सकती थी कि वह इस तरह सेक्स बेचकर कोरोना फैला रहा है। खबर में बड़े खुलासे से जिक्र था कि किस तरह एक ब्रिटिश समलैंगिक डेटिंग एप्प से यह नौजवान ग्राहक ढूंढता था। इस खतरे को देखते हुए शहर के ट्रांसजेंडर समुदाय ने इस खबर की जड़ ढूंढी कि दिल्ली में ऐसी कोई खबर छपी थी, और उस खबर से दिल्ली हटाकर दूसरा शहर और दूसरा मुहल्ला जोड़ दिया गया, और उसे पोस्ट कर दिया गया।
 
पहली खबर तो एक चूक हो सकती है कि डिजिटल मीडिया इन दिनों अपनी पल-पल की हड़बड़ी के चलते फेसबुक पर उन्हीं नामों वाले किसी दूसरे जोड़े की तस्वीर निकालकर उसे पोस्ट कर दिया, लेकिन दूसरी खबर भयानक है। भयानक इसलिए कि इसके भयानक नतीजे हो सकते थे। यह कुछ उसी किस्म की थी कि किसी के बारे में यह अफवाह फैलाई जाए कि उसके घर गोमांस रखा है, और फिर उसे घर से निकालकर पीट-पीटकर मार डाला जाए, और वह उसके घर की बात ही न हो। आमतौर पर मीडिया के बारे में लिखने से मीडिया बचता है। लेकिन हम किसी एक नाम को बदनाम करना नहीं चाहते, महज आज खड़े हो गए एक खतरे को गिनाकर लोगों को चौकन्ना करना चाहते हैं क्योंकि डिजिटल इंडिया जाने के लिए नहीं आया है, वह रहने के लिए, और राज करने के लिए आया है। ऐसे में अगर उसकी गलतियों, या इसके गलत कामों को शुरू से ही रोकना-टोकना नहीं किया जाएगा, तो आगे जाकर नौबत खराब हो जाएगी। 

शुरूआत से ही अखबारों को आपाधापी में रचा गया साहित्य कहा जाता था। बाकी देशों का तो नहीं मालूम, हिन्दुस्तान में, हिन्दी में यह बात जरूर पढ़ाई जाती थी। हालांकि हकीकत यह है कि पत्रकारिता और साहित्य का आपस में कोई सीधा रिश्ता नहीं होता, और साहित्य न पढ़े हुए लोग भी अच्छे पत्रकार बन सकते हैं, और बड़े दिग्गज साहित्यकार भी बड़े बकवास संपादक साबित हो चुके हैं। इसलिए यह लाईन जरूर किसी साहित्यकार ने गढ़ी होगी कि पत्रकारिता एक किस्म का साहित्य है, जबकि उसका साहित्य से कोई लेना-देना नहीं था। एक वक्त जरूर था जब अखबारों के संपादकों का भी साहित्यकार होना अनिवार्य सा मान लिया गया था, लेकिन हिन्दी पत्रकारिता में भी वैसे दिनों को लदे हुए आधी सदी हो चुकी है। इसलिए अब यह किसी तरह का साहित्य नहीं है, लेकिन यह आपाधापी में किया गया काम जरूर है। अखबारों के वक्त यह आपाधापी कम रहती थी, फिर टीवी के वक्त थोड़ी बढ़ी कि हर घंटे में एक नया बुलेटिन आता था, और उसने खबर आ जानी चाहिए। लेकिन यह ताजा आपाधापी इंटरनेट पर डिजिटल समाचार-मीडिया की वजह से आई है कि खबर पोस्ट करने में एक पल की भी देर नहीं होनी चाहिए। और अब खबर पोस्ट करने के लिए न कोई दफ्तर लगता, न कम्प्यूटर लगते, और न ही कम्प्यूटर-ऑपरेटर लगते। अब तो रिपोर्टर मौके पर से अपने मोबाइल फोन से ही न सिर्फ टाईप की हुई खबर, बल्कि फोटो और वीडियो भी पोस्ट कर देते हैं, और इस तरह खबरों के डिजिटल मीडिया के सामने एक अजीब सा नया गलाकाट मुकाबला खड़ा हो गया है जिसमें एक-एक सेकंड मायने रखता है। लेकिन घड़ी की यह रफ्तार खबरों के मिजाज के साथ मेल नहीं खाती। खबरें उन्हें ठोक-बजाकर जानकारी को सच पा लेने के बाद बनती हैं। इन दिनों हो यह रहा है कि लोग पोस्ट पहले करते हैं, पुष्टि बाद में करते हैं। सबसे पहले न्यूज ब्रेक करने की हड़बड़ी में खबरों के सारे कायदे छूट गए हैं, और उस मेहनत से बच जाने और बरी हो जाने से लोग खुश भी बहुत हैं। अखबारनवीसों को खबर पर जो घंटों मेहनत करनी होती थी, वह मिनटों से होते हुए अब पूरी तरह से गैरजरूरी मान ली गई है, क्योंकि गलत साबित हो जाने पर उसे पल भर में मिटा देने और हटा देने का रास्ता खुल गया है। छपे हुए अखबार की कतरनें लोग पूरी जिंदगी सम्हालकर रखते थे, और बनाई गई खबर पूरी जिंदगी का बोझ रहती थी। आज डिजिटल शब्दों का कोई वजह नहीं होता, एक वक्त अखबारों के छपने के लिए सीसे जैसी धातु के बने टाईप लगते थे जिनसे छपाई होती थी, उनका खासा वजन होता था, और उतना ही वजन जिम्मेदारी का भी रहता था। इन दिनों अखबारों की जगह जो समाचार वेबसाईटें हैं, उनका कोई वजन नहीं रहता, और न ही जिम्मेदारी का बोझ ही ढोना पड़ता। 

आने वाले वक्त में सब कुछ डिजिटल जिंदा रहने वाला है। दुनिया के एक किसी भविष्यशास्त्री ने कई बरस पहले लिखा था कि अगर कोई नया काम शुरू करने जा रहे हैं, तो कौन-कौन से किस्म के काम नहीं करने चाहिए वह ध्यान रखें। उन्होंने जो आधा दर्जन काम गिनाए थे, उनमें से एक यह भी था कि ऐसा कोई काम शुरू न करें जिसमें कागज लगता हो। और आज वह हालत कोरोना के इन दो-तीन महीनों में ही दिख गई जब महानगरों के हाथियों जैसे भारी-भरकम अखबार अब हड्डी-हड्डी खच्चर की तरह दस-बारह पेज के रह गए हैं। ऐसे में कोरोना के बाद भी डिजिटल का आगे बढऩा तय है, और ऐसे में उसकी विश्वसनीयता को बढ़ाने के लिए अभी से मेहनत करने की जरूरत है। दरअसल खबरों का डिजिटल मीडिया, और सोशल मीडिया, इन दोनों के बीच कोई सरहद नहीं रह गई है, और दोनों एक-दूसरे से कई जगह मिल जा रहे हैं। ठीक उसी तरह जिस तरह की हिन्दुस्तान और चीन के बीच सरहद को लेकर झगड़ा चलते ही रहता है। सोशल मीडिया को अगर अखबारों की पुरानी जुबान में कहें, तो वह संपादकीय पेज के पाठकों के पत्र कॉलम जैसा रहना था, लेकिन वह पहले पन्ने तक पसर गया है। ऐसे में डिजिटल समाचार मीडिया को अपने खुद पर नजर रखने के लिए कोई तरीका निकालना चाहिए, वरना पिछले जरा से बरसों में जिस तरह भारत के हिन्दी टीवी समाचार चैनलों की साख चौपट हुई है, उससे अधिक रफ्तार से डिजिटल समाचार मीडिया की साख चौपट होगी। इस मीडिया के औजार इतने धार वाले हैं कि अगर सम्हलकर इस्तेमाल नहीं किया गया, तो वे समाचार-विचार का निशाना लगने के पहले ही खुद को घायल कर जाएंगे।(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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