संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : सडक़ों पर अराजकता को अनदेखा करना सरकार का अधिकार नहीं है...
11-Apr-2025 5:15 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : सडक़ों पर अराजकता को अनदेखा करना सरकार का अधिकार नहीं है...

आज सुबह दुर्ग शहर में एक तेज रफ्तार कार ने महिला सफाई कर्मचारियों से भरे हुए एक ऑटोरिक्शा को टक्कर मारी। तस्वीर / ‘छत्तीसगढ़’

आज सुबह छत्तीसगढ़ के दुर्ग शहर में एक तेज रफ्तार कार ने महिला सफाई कर्मचारियों से भरे हुए एक ऑटोरिक्शा को टक्कर मारी, और उसमें सवार 8 महिलाएं बुरी तरह जख्मी हो गईं। इसके बाद भी कार डिवाइडर से टकराई, और ड्राइवर फरार हो गया। अब पुलिस सीसीटीवी कैमरों की रिकॉर्डिंग से ड्राइवर को तलाश रही है। चूंकि कोई मौत नहीं हुई है, इसलिए यह मामला छोटा लग सकता है, लेकिन यह घटना अगर सुबह की रौशनी में नहीं हुई होती, और रात-बिरात होती, तो हो सकता है कि लोग कुछ अधिक जख्मी भी होते। दूसरी तरफ अगर यह शहरी इलाके में नहीं होती, तो हो सकता है कि आसपास कोई सीसीटीवी कैमरे भी नहीं होते। अब सवाल यह उठता है कि तीन सवारियों के लिए बने हुए ऑटोरिक्शा में 8 महिलाओं को लादकर कैसे ले जाया जा रहा था? और यह कोई अटपटी बात नहीं है, हर तरफ यही हाल दिखता है, हमने अपने अखबार में अभी-अभी राजधानी रायपुर के एक ऑटोरिक्शा की फोटो छापी थी जिसमें पीछे पैर लटकाए हुए चार महिलाएं बैठी हुई थीं, और किसी भी टक्कर की हालत में उन सबके पैर खत्म होना तय सरीखा था। फिर कार चलाने वाले लोगों की लापरवाही और रफ्तार से हर दिन प्रदेश में कई हादसे हो रहे हैं, और बढ़ती हुई कारों के मुकाबले पुलिस की क्षमता, और उसकी कार्रवाई दोनों ही बहुत सीमित हैं। हर दिन सडक़ हादसों में दुपहिया चालकों की मौत हो रही है, और इनमें से शायद ही कोई हेलमेट लगाए रहते हैं। जिन लोगों ने महंगी कारें खरीदी हैं, वे भी सीट बेल्ट लगाने से ऐसा परहेज करते हैं कि मानो उन्हें हथकड़ी-बेड़ी लग रही हो। और अतिसंपन्नता के शिकार इस प्रदेश में अंधाधुंध कमाई किए हुए लोग जैसी बड़ी-बड़ी गाडिय़ां खरीद लेते हैं, और फिर उनके इंजन की ताकत के साथ अपने अहंकार की ताकत जोडक़र डबल इंजन से सडक़ों को रौंदते हैं।

अभी कल ही देश की एक बड़ी अदालत ने सडक़ सुरक्षा को लेकर सरकार को याद दिलाया है कि वह अपने खुद के बनाए हुए कानून पर भी अमल नहीं कर रही है। और यह बात पूरी तरह सही है। सत्ता पर काबिज बड़े-बड़े मंत्री और अफसर तो गाडिय़ों के काफिलों में, या बड़ी-बड़ी गाडिय़ों में चलते हैं, और उन्हें सडक़ हादसों में मरने वाले गरीब लोगों से कुछ लेना-देना रहता नहीं है। ऐसे में दुपहियों पर चलने वाले लोग हेलमेट न लगाएं तो उससे सत्ता की जिंदगी पर आंच नहीं आती। यह बात सरकार भी अच्छी तरह जानती है कि आम जनता की हिफाजत के लिए जो ट्रैफिक नियम बनाए गए हैं, उनको भी लागू करवाने के लिए सरकार को लगातार सक्रिय रहना पड़ता है। यह सरकार की सामाजिक जवाबदेही है कि वह लोगों की जिंदगी बचाने के लिए उन पर कड़ाई बरते। लेकिन हम छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में देखते हैं कि अगर कोई उत्साही पुलिस अफसर हेलमेट, सीट बेल्ट, या मोबाइल फोन के नियमों को तोडऩे वालों का चालान शुरू करते हैं, तो सत्ता उन्हें तुरंत झिडक़कर चुप बैठा देती है। हालत यह है कि जब जो पार्टी विपक्ष में रहे, वह लोगों को हेलमेट की बंदिश के खिलाफ भडक़ाने लगती है, और लोगों के सिरों के भीतर दिमाग बहुत कम रहता है, या नहीं रहता है, और इसलिए वे तुरंत भडक़ने भी लगते हैं, और राह चलते लोगों को कुचलने भी लगते हैं। और ऐसा भी नहीं कि यह बात अकेले छत्तीसगढ़ पर लागू होती है, अभी दो दिन पहले राजस्थान में कांग्रेस के एक नेता ने एक संकरी गली में गाड़ी दौड़ाते हुए कई लोगों को कुचला जिनमें से तीन लोगों की मौत भी हो गई। सडक़ों पर चलने वाली गाडिय़ां सिर्फ हॉर्सपावर की ताकत नहीं रखतीं, वे चलाने वाले, या उसमें बैठे इंसान की सत्ता या दौलत की, या इसी किस्म के किसी और नशे की ताकत भी रखती हैं।

खैर, सडक़ों पर होने वाले हादसों को लेकर हम इस जगह पर अपनी फिक्र को जरूरत से कुछ अधिक बार जाहिर करते हैं, और उम्मीद करते हैं कि सरकार में शायद कभी किसी को हमारी बात जायज लगे, तो सडक़ों पर होने वाली मौतें कम हो सके। यह बात तो सबको आसानी से समझ में आ सकती है कि हर सडक़ हादसे में जरूरी नहीं है कि कोई दो पक्ष ही जिम्मेदार हों, कई मामलों में सिर्फ एक पक्ष की गलती हो सकती है, और दूसरे बेकसूर पक्ष की मौत। अदालतें इस बात को कई बार कह चुकी हैं कि सडक़ सुरक्षा के नियम लागू करना सरकार के विवेक पर नहीं छोड़ा गया है, सरकार को अनिवार्य रूप से, और पूरी ताकत से ट्रैफिक नियमों को लागू करना ही है। सुप्रीम कोर्ट तक ने सडक़ सुरक्षा को लेकर लंबा-चौड़ा फैसला दिया है, और उसकी गाईडलाईंस को लागू करने का जिम्मा प्रदेशों के हाईकोर्ट को मिला है। छत्तीसगढ़ में ही हम देखते हैं कि सडक़ों पर जानवरों को लेकर, सडक़ों की खस्ताहाल को लेकर तरह-तरह के नोटिस हाईकोर्ट सरकार के लिए जारी करती रहती है, और सरकारी अफसर बेफिक्र रहते हैं कि इनमें से किसी को भी सुनना और मानना उनके लिए जरूरी नहीं है, फिर चाहे हाईकोर्ट हलफनामा ही क्यों न लेता रहे। अब तीन सवारी वाले ऑटोरिक्शा में दर्जनभर लोगों की आवाजाही पूरे शहर में देखने मिलती है, और अगर किसी को यह नहीं दिखता, तो वह ट्रैफिक पुलिस है। हर तरह की गाडिय़ां सडक़ों के मालिक की तरह बर्ताव करती चलती हैं, और ताकतवर मंत्रियों के इलाकों में मालवाहक गाडिय़ां इंसानों को बोरियों और टोकरों की तरह, जानवरों की तरह लादकर चलती हैं, पलटती हैं, और फिर जख्मियों और मुर्दों को दूसरी मालवाहक गाडिय़ां ढोती हैं। सरकार को सडक़ पर लोगों की हिफाजत की अपनी बुनियादी जिम्मेदारी इसलिए भी पूरी करनी चाहिए कि जो नौजवान पीढ़ी सडक़-नियमों को तोडऩे में अपनी शान समझती है, वह इस पहले जुर्म के बाद इससे मिले आत्मविश्वास से इससे बड़े-बड़े कई जुर्म करती चलती है। हिन्दुस्तान में अधिकतर मुजरिमों का पहला जुर्म सडक़ के नियमों को तोडऩा रहता है।  (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

   

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