-ओम थानवी
विदाई में मनोज कुमार को देशभक्ति की फि़ल्मों के याद किया जा रहा है। उन्होंने इसमें महारत हासिल कर ली थी। भावना का ज्वार अपूर्व कामयाबी लेकर आया। ‘पूरब और पश्चिम’ ने तो प्रवासियों तक को झकझोर दिया था। फि़ल्म ने विदेश में कीर्तिमान बनाया। हालाँकि आगे लोगों को वही दुनिया ख़ूब रास आई, जिसे वह फि़ल्म अपने पश्चिमी ठप्पे से ख़ारिज कर आई थी।
भावना और हक़ीक़त में नाज़ुक फ़ासला होता है। मनोज कुमार दीवारों पर गांधी-नेहरू की तसवीरें दिखाते थे। ‘है प्रीत जहाँ की रीत सदा’ में ‘काले-गोरे का भेद नहीं’ याद दिलाते थे। मगर फि़ल्मी भावुकता दर्शक को भीतर से नहीं हिलाती। लोग हॉल से बाहर निकल कर वही हो रहते।
‘मेरे देश की धरती’ ख़ूब गाया गया, ‘उपकार’ सुपरहिट हो गई, ढेर सारे अवार्ड मिले। पर उस ‘भारत’ के गौरव-गान में सिनेमाई भावोत्तेजना काम न आई। किसानों के प्रति नज़रिया आज तक नहीं बदल पाया है। न लोगों का, न राज का।
‘शहीद’ को छोड़ दें तो मेरी समझ में मनोज कुमार की बेहतर फि़ल्में वे थीं जो विशुद्ध रूमानी थीं। ओढ़ी हुई रूमानियत से अलग। ‘चाँद-सी महबूबा हो मेरी ऐसा मैंने कब सोचा था’ जैसे गानों में भले गायकों का जादू था, लेकिन मनोज कुमार के अपने अंदाज़ थे। हल्के स्वर में बोलना, आती-जाती मुस्कान में गर्दन ऊपर-नीचे कर अचानक आँखें मूँद लेना, गर्दन घुमाना और एक हाथ से मुँह ढाँप लेना।
वे सामान्य अभिनेता थे, पर सुदर्शन थे। जॉय मुखर्जी की तरह लिजलिजे नहीं थे। हरियाली और रास्ता, वो कौन थी, दो बदन, गुमनाम, हिमालय की गोद में, सावन की घटा, पत्थर के सनम, नीलकमल; अनीता (साधना के साथ) चली नहीं, पर मुझे अच्छी लगी थी। तब हम लोग सस्ते टिकट खऱीद कर फि़ल्में बार-बार देख आते थे।
कहने का सबब यह कि कोरी जज़्बाई विदाई काफ़ी नहीं। जाने वाले को आगे-पीछे दूसरे पहलू से भी देखना चाहिए।