-नमिता भंडारे
भारत में सबसे अधिक लैंगिक समानता वाले राज्य में भी सबसे वरिष्ठ नौकरशाह को रंग की वजह से कटाक्ष झेलने पड़ते हैं, आखिर क्यों? श्रीमती शारदा मुरलीधरन, मुख्य सचिव केरल राज्य के साथ पिछले दिनों कुछ ऐसा ही घटित हुआ है ।
सोशल मीडिया पर यह एक टिप्पणीकार ने लिख दिया कि आपका कार्यकाल आपकी तरह उतना ही काला है, जितना आपके पति का गोरा था। टिप्पणी भले ही मजाक के रूप में की गई, पर वरिष्ठ अधिकारी शारदा मुरलीधरन इसे चुपचाप नहीं सहने वाली थीं और उन्होंने जवाब दिया।
बताते चलें कि मुरलीधरन ने सितंबर 2024 में केरल के मुख्य सचिव का पदभार संभाला था, जब उनके पूर्ववर्ती वी वेणु, 1990 बैच के आईएएस अधिकारी (संयोग से उनके पति) सेवानिवृत्त हुए थे। वह राज्य नौकरशाही के शीर्ष पद पर पहुंचने वाली पहली महिला हैं। ध्यान रहे, केरल महिला बहुल राज्य है और यहां साल 2011 की जनगणना के अनुसार, प्रति 1,000 पुरुषों पर 1,084 महिलाएं हैं।
मुरलीधरन का करियर बेहद प्रभावशाली रहा है । वह अनेक ऊंचे और जिम्मेदार पदों पर रही हैं। एक उच्चाधिकारी के रूप में उन्होंने बहुत अच्छा काम किया है। फिर भी, उन्हें पेशेवर उपलब्धियों से नहीं, बल्कि उनकी त्वचा के रंग से आंका जा रहा है ।
मुरलीधरन की एक लंबी पोस्ट में उनके बचपन के उस आघात का जिक्र है, जो उन्हें रंग साफ न होने की वजह से झेलना पड़ा था। चार साल की उम्र में ही उन्हें अपनी त्वचा के रंग के बारे में पता चल गया था। उन्होंने अपनी मां से पूछा था, मां, क्या आप मुझे वापस अपने गर्भ में रख सकती हैं और मुझे गोरी व सुंदर बना सकती हैं? यह दर्द उन्होंने साझा किया। वह बताती हैं, मैं 50 से अधिक वर्ष तक रंग की इसी व्यथा-कथा तले दबी रही कि मेरा रंग अच्छा नहीं है। बाद में, बच्चों ने एहसास दिलाया कि उन्हें अपनी सांवली विरासत पर गर्व है। सांवलापन या काला सुंदर है।
वैसे, काले-गोरे का यह विवाद नया नहीं है। साल 2023 में प्रियंका चोपड़ा ने स्वीकार किया था कि उन्हें अपने करियर की शुरुआत में ‘हानिकारक’ फेयरनेस क्रीम के विज्ञापनों का हिस्सा बनने का पछतावा है।
वैसे, अपने भारत में औपनिवेशिक स्वामियों और ‘गोरी’ त्वचा के प्रति भारतीयों का जुनून नया नहीं है और यह जुनून केवल भारत तक सीमित नहीं है। एशिया, अफ्रीका और भारत में कथित ‘फेयरनेस क्रीम’ का प्रसार इस बात का प्रमाण है कि गोरेपन का मतलब सुंदर होना है। 1975 में हिन्दुस्तान यूनिलीवर द्वारा फेयर ऐंड लवली के लॉन्च के बाद इसी तरह के उत्पादों की बाढ़ आ गई, जिसमें पुरुषों के लिए भी उत्पाद शामिल थे। 2019 में भारत में फेयरनेस क्रीम का बाजार 3,000 करोड़ रुपये का होने का अनुमान लगाया गया था।
सोशल मीडिया, सुंदरता के वैश्विक विचार और मनोरंजन उद्योग ने यह सुनिश्चित किया कि गोरेपन का बोलबाला रहे। गोरी त्वचा का विचार इतना गहरा है कि अब छोटे शहरों में भी मेकअप आर्टिस्ट दुल्हनों को गोरा दिखाने के लिए मेकअप की अनेक परतों का इस्तेमाल करते हैं। गोरेपन की ओर झुकी प्रवृत्ति का विरोध भी खूब हुआ है। उदाहरण के लिए, फैशन डिजाइनर सब्यसाची मुखर्जी ने अपने अभियानों में गहरे रंग की और प्लस साइज वाली मॉडलों का खूब इस्तेमाल किया है। 2013 में अभिनेत्री नंदिता दास ने इस धारणा को चुनौती देने के लिए डार्क इज ब्यूटीफुल अभियान शुरू किया था कि सफलता और सुंदरता त्वचा के रंग से ही तय नहीं होती है। साल 2020 में, बदलते दौर को देखते हुए, फेयर एंड लवली क्रीम का नाम बदलकर ग्लो एंड लवली कर दिया गया। फेयरनेस क्रीम के बाजार में तीन प्रतिशत की गिरावट भी आई है।
मुरलीधरन की पोस्ट से कई सवाल उठे हैं। महिलाओं को उनकी उपलब्धियों के बजाय उनके दिखने के तरीके से क्यों आंका जाना चाहिए? एक महिला का दिखना- छोटी, लंबी, गोरी, काली, मोटी, पतली - लोगों के लिए टिप्पणी करने का विषय क्यों होना चाहिए? लोगों को यह अधिकार कौन देता है? वास्तव में, किसी भी महिला को उसके काम से आंकना चाहिए, उसके रंग से नहीं और इस विषय पर संवाद का स्वागत होना चाहिए, तभी समाज बदलेगा।