संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : धान, धन है या बोझ? धान के कटोरे को काफी कुछ समझने की जरूरत
11-Mar-2025 9:56 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय :  धान, धन है या बोझ?  धान के कटोरे को काफी  कुछ समझने की जरूरत

अपने अस्तित्व में आने के बाद से छत्तीसगढ़ लगातार चावल और धान की अर्थव्यवस्था से लदा हुआ रहा है। कहने के लिए इसे प्रदेश के बाहर धान का कटोरा कहा जाता है, और खुद छत्तीसगढ़ इस बात में बड़ा फख्र हासिल करता है कि वो देश का धान का कटोरा है जहां से बाकी देश की भूख मिटती है, लेकिन जब छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था को देखें तो ऐसे दावे पर दोबारा सोचना पड़ता है कि क्या यह सचमुच सच है? एक वक्त था जब देश के दूसरे कुछ हिस्से की तरह पड़ोस के ओडिशा के कालाहांडी की तरह छत्तीसगढ़ भी भूख का शिकार रहता था, और यहां पर भूख से मौतें कभी-कभी सुनाई पड़ती थीं। लेकिन राज्य बनने के बाद इस राज्य के आय के स्त्रोत यहीं के लोगों के काम आने लगे, और भूखमरी खत्म होने लगी। भूख से मौतें तो बंद हुई ही, कुपोषण भी कम होने लगा। राज्य के दूसरे मुख्यमंत्री, भाजपा के डॉ. रमन सिंह ने कुछ जानकार सलाहकारों की बनाई हुई योजना पर अमल करते हुए प्रदेश में पीडीएस का जो ढांचा खड़ा किया, उसे सर्वोच्च न्यायालय से लेकर मनमोहन सिंह की सरकार तक चारों तरफ वाहवाही मिली, और राज्य में रमन सिंह को अगले दो चुनावों में चाउर वाले बाबा के नाम से ऐतिहासिक जीत भी मिली। छत्तीसगढ़ का पीडीएस बाकी राज्यों के सामने एक मिसाल भी बना, और चुनौती भी। लेकिन कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने किसानों से धान खरीदी के लिए जो अभूतपूर्व ऊंचा रेट तय किया, उसने उन्हें चुनावी घोषणा पत्र के स्तर पर वाहवाही दिला दी थी, और हाल के विधानसभा चुनाव में भूपेश का धान का रेट विपक्षी भाजपा के सामने सबसे बड़ी चुनौती था, और भाजपा को मानो मजबूरी में ही 3100 रुपए प्रति क्विंटल के रेट पर धान खरीदी का वायदा करना पड़ा, और प्रति एकड़ 21 क्विंटल धान खरीदने का भी। नतीजा यह निकला कि छत्तीसगढ़ी किसान का एक-एक दाना शानदार रेट पर बिक रहा है, और अड़ोस-पड़ोस के राज्यों के लोग भी तस्करी करके अपना धान छत्तीसगढ़ लाकर बेच रहे हैं। लेकिन चुनाव में जीत दिलाने वाला धान क्या सचमुच ही राज्य में धन बन पाया है, या कि यह सिर्फ कर्ज बनकर लोगों के सिर पर बोझ बन रहा है?

 

आज इन आंकड़ों पर बात करना जरुरी इसलिए है कि केंद्र और राज्य सरकार के बीच चावल लेने को लेकर तनातनी ठीक उसी तरह जारी है जिस तरह पिछली भूपेश सरकार के वक्त दिल्ली की मोदी सरकार के कडक़ रुख से चल रही थी। उस वक्त जब भूपेश ने धान के राष्ट्रीय समर्थन मूल्य से अधिक दाम देने की घोषणा की थी तो केंद्र सरकार ने कहा था कि एमएसपी से अधिक पर लिए गए धान का चावल केंद्र सरकार छत्तीसगढ़ से नहीं लेगी। नतीजा यह निकला था कि भूपेश सरकार को अलग-अलग कुछ नामों से, शायद राजीव न्याय योजना के नाम से किसानों को चार किश्तों में बोनस देना पड़ा था। इस बार छत्तीसगढ़ की भाजपा सरकार को केंद्र सरकार से ऐसा अड़ंगा तो नहीं झेलना पड़ा लेकिन करीब डेढ़ लाख टन धान खरीदी हो जाने के बाद अब राज्य को यह सदमा लग रहा है कि केंद्र सरकार 70 लाख टन से अधिक चावल राज्य से नहीं लेगी। अब छत्तीसगढ़ सरकार के सामने 35 लाख टन धान को ठिकाने लगाने की एक बड़ी चुनौती है जो कि महंगी खरीदी के धान को सस्ते में बेचने का एक बड़े घाटे का सौदा भी हो सकता है। छत्तीसगढ़ सरकार अभी जनकल्याण और व्यक्तिगत फायदा पहुंचाने वाली दूसरी योजनाओं के बोझ से कमर सीधी कर भी नहीं पाई है कि खुले आसमान तले धान के पहाड़ का यह बोझ उसके सीने पर और खड़ा हो गया है। आज जब हम यह संपादकीय लिख रहे हैं उस वक्त छत्तीसगढ़ विधानसभा में प्रश्नकाल में विपक्ष सरकार को इस बात के लिए घेर रहा है कि पिछले बरस राइस मिलर्स ने सरकारी धान की मिलिंग में जो घपला किया है, और सैकड़ों मिलर्स ने सरकारी धान लेकर न तो सरकार को चावल जमा किया, और न ही उनके मिलों की जांच में धान या चावल बरामद हुआ, ऐसा करीब पांच लाख टन चावल सरकार को मिलर्स से लेना है, और चूंकि केंद्र सरकार राज्य से चावल वैसे भी इस बरस की धान खरीदी के मुकाबले बहुत कम ले रहा है, इसलिए पिछले बरस का यह बकाया भी सरकार की छाती बर बोझ बनकर बैठे रहेगा। जानकार लोगों का कहना है कि जिन सैकड़ों राइस मिलर्स ने सरकार की अमानत पे खयानत की है जो कि सीधे-सीधे जुर्म है, और जिससे नुकसान न पाने के लिए सरकार बैंक गारंटी ले चुकी है, उस बैंक गारंटी को भुनाने के बजाए, मिलर्स के खिलाफ एफआईआर करने के बजाए सरकार जाने किस वजह से उनसे पुराना चावल ले रही है जो कि केंद्र सरकार को दिया भी नहीं जा सकेगा। पाठकों को याद होगा कि धान खरीदी, और उसकी मिलिंग का काम छत्तीसगढ़ में इतने भ्रष्टाचार से भरा हुआ रहा है कि अभी भी कुछ एक अखिल भारतीय सेवा के अफसर उसकी वजह से जेल में पड़े हैं, और अगर सरकार और जांच एजेंसियां ईमानदारी से कार्रवाई करें तो कई और नेता और अफसर जेल में रहेंगे।

 

अब हम मुद्दे की इस बात पर आना चाहते हैं कि जब केंद्र सरकार राज्य से सीमित मात्रा में ही चावल ले रही है, तब सरकार किसानों से असीमित मात्रा में असाधारण और असंभव किस्म के रेट पर धान खरीद रही है, तो इससे कुल नुकसान जितना बड़ा होगा, उसका हिसाब किसी एक विभाग के खाता-बही में नहीं मिल सकता। इसके लिए सरकार को कई विभागों और एजेंसियों के आंकड़ों को जोडक़र राज्य के लोगों के सामने एक श्वेत पत्र पेश करना चाहिए कि धान की यह खरीदी आखिर प्रदेश को किस रेट पर पड़ रही है। यह अर्थशास्त्र राशन के चावल की लागत से अलग है जो कि राज्य सरकार अपने लोगों को मिट्टी के मोल देती है। आज हालत यह है कि छत्तीसगढ़ में राइस मिलर्स राशन दुकानों के रास्ते से ही चावल की ऐसी ट्रकें खरीदकर उन्हें वापिस सरकार में जमा कर देते हैं, कई जगहों पर तो सिर्फ दो जगहों से ट्रकों के कागज ले लिए जाते हैं, गरीबों का राशन घूम-घूमकर सरकार में मिलर्स के मार्फत जमा हो जाता है, और ऐसे हर फेरे की अंधाधुंध बड़ी लागत सरकार चुकाती है। छत्तीसगढ़ में पिछली सरकार के समय का नान घोटाला अबतक हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के सैंकड़ों घंटे खराब कर चुका है और राज्य के हजारों करोड़ रुपए भी। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि पैसे वालों के सामान में भ्रष्टाचार की सजा तो नहीं मिली, लेकिन जो सबसे गरीब लोगों का भोजन है, उस चावल का घपला भूपेश सरकार को ले डूबा। अब आज की सरकार को बारीकी से यह गौर करना चाहिए कि उस सरकार के समय से सरकार और कारोबार के अब तक कायम जिन लोगों के मुंह खून लगा हुआ था, क्या आज भी वे अपने होठों पर जीभ फिराते हुए उसी अंदाज में कमाई करने के फेर में हैं? सबसे गरीब के हक में लूट-डकैती करने वाले लोग किस तरह अपने अरबपति परिवार को छोडक़र, परिवार की तीन-तीन पीढिय़ों को छोडक़र देश के बाहर कहीं फरारी काट रहे हैं, इसकी दर्दनाक दास्तान अगर सुनना हो तो छत्तीसगढ़ के प्रदेश कांग्रेस कार्यालय जाकर कोषाध्यक्ष रहे एक चावल व्यापारी के बारे में पूछताछ करनी चाहिए। हमारे कम लिखे को सरकार अधिक समझे, वरना चुनाव में बीमार को पार समझे।

 (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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