-ध्रुव गुप्त
आमतौर पर लोगों द्वारा प्रेम को स्त्री-पुरूष के बीच आकर्षण और समर्पण के संकुचित अर्थ में लिया जाता रहा है। सच यह है कि प्रेम हमारा स्वभाव है जिसे कुरेदकर जगाने में सबसे बड़ी भूमिका हमारे जीवन में विपरीत सेक्स की होती है। एक पुरुष का स्त्री से या स्त्री का पुरुष से प्रेम बहुत स्वाभाविक है। लेकिन यह प्रेम के उत्कर्ष तक पहुंचने का रास्ता भर है, मंजिल नहीं। एक बार प्रेम में पड़ जाने के बाद प्रेम व्यक्ति-केंद्रित नहीं रह जाता। वह हमारी मन:स्थिति बन जाता है। हमारा स्वभाव। आप एक बार आप प्रेम में हैं तो आप हमेशा के लिए प्रेम में हैं। आप एक के प्रेम में पड़े तो आप सबके प्रेम में पड़ जाते हैं। समूची मानवता के प्रेम में। सृष्टि के तमाम जीव-जंतुओं के प्रेम में। प्रकृति के प्रेम में। जमीन से आकाश तक आपको हर तरफ प्रेम ही प्रेम नजर आएगा। ऐसा बिल्कुल नहीं हो सकता कि आप किसी एक से प्रेम करें और कुछ दूसरों से नफरत। प्रेम विस्तार मांगता है। वह अगर फैले नहीं तो सड़ जाता है। प्रेम की इस प्रकृति के बारे में शायर जिगर मुरादाबादी ने खूब कहा है-इक लफ्ज़-ए-मोहब्बत का अदना ये फ़साना है / सिमटे तो दिल-ए-आशिक़ फैले तो ज़माना है ! प्रेम आपको बदलता है। इस प्रेम से आप अपने आसपास की दुनिया को बदलने की कोशिश में लग जाएं। यही प्रेम की सार्थकता है। यही प्रेम का गंतव्य।
आप मित्रों को प्रेम दिवस (Valentine Day) की बधाई और शुभकामनाएं, मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियों के साथ:-
प्रेम, तुम रहना
तुम्हारे रहने से स्मृतियां रहती हैं उनकी
जिनसे मिलना स्थगित रहा अरसे से
उन चि_ियों की जो रह गईं अनुत्तरित ही
उन अजाने रास्तों की
जिनकी ऊष्मा से सिहरे नहीं पांव
उन नदियों की
जिनके जल से भींगी नहीं देह
और उन तमाम अदेखे, अनजान लोगों
पशु-पक्षियों की
जिन्हें देख सकतीं मेरी आंखें
तो शायद कुछ और बड़ा होता
मेरी इच्छाओं का छोटा सा संसार