विचार / लेख

कुछ केजरीवाल, कुछ प्रशांत किशोर की
11-Feb-2025 2:42 PM
कुछ केजरीवाल, कुछ प्रशांत किशोर की

-हेमंत कुमार झा

अरविंद केजरीवाल की ‘वैकल्पिक राजनीति’ का हश्र प्रशांत किशोर देख रहे होंगे जो आजकल बिहार में तंबू टांग कर नई पीढ़ी को सत्याग्रह का प्रशिक्षण दे रहे हैं। वे हाल फिलहाल तक अपने ‘जन सुराज’ और अनशन को लेकर मीडिया में बहुत चर्चा पाते रहे थे। फिर, नित नई खबरों के रेले में कहीं गुम से हो गए हैं।

वे रणनीतियां बनाने में माहिर बताए जाते हैं इसलिए कोई आश्चर्य नहीं कि वे फिर कुछ ऐसा शुरू कर सकते हैं जिससे उन्हें मीडिया अटेंशन मिलने लगे। वैसे भी, बिहार में चुनाव होने वाले हैं और प्रशांत किशोर इसमें अपनी भूमिका तलाशने वाले हैं।

अरविंद केजरीवाल राजनीति में आए, छा भी गए, दस साल मुख्यमंत्री भी रह लिए लेकिन आज तक उनसे यह सवाल अनुत्तरित ही रहा कि ‘पार्टनर, आखिर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?’

भले ही उन्हें भाजपा से महज दो तीन प्रतिशत कम, लगभग 43 प्रतिशत वोट मिले लेकिन जिन कारणों से वे पराजित हुए हैं वे दोबारा उन्हें उबरने देंगे इसमें गहरे संदेह हैं।

बिना किसी स्पष्ट वैचारिक आधार के ‘सब चोर हैं जी’...और...‘सब मिले हुए हैं जी’ जैसी बातें पब्लिक के बीच उछाल कर केजरीवाल ने राजनीति में अपनी जगह तो बना ली लेकिन उनके पास ऐसा कुछ नया नहीं था जो उन्हें प्रासंगिक बनाए रख सकता था।

जहां विचारधारा की अनुपस्थिति है वहां मूल्य पनप नहीं सकते। यही कारण है कि अन्ना आंदोलन के अति उत्साह से निकला कोई राजनीतिक दल अरविंद केजरीवाल की जेबी पार्टी बन कर रह गया जिसमें असहमतियों का कोई स्थान नहीं था, जिसके कोई राजनीतिक मूल्य नहीं थे।

आम आदमी पार्टी कभी आरोपों के इस साये से बाहर नहीं निकल सकी कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष आनुषंगिक उपकरणों की एक कड़ी मात्र है। यही कारण है कि बहुत सारे ऐसे लोग भी, जो भाजपा के घोर विरोधी हैं, आज केजरीवाल के पराभव से खुश हैं।

विपक्षी दलों का गठबंधन, जो ‘इंडिया गठबंधन’ कहा जा रहा है, महज एक राजनीतिक गठबंधन ही नहीं बल्कि एक वैचारिकी का प्रवक्ता भी है। यह वैचारिकी भाजपा के राजनीतिक सिद्धांतों के स्पष्ट विरोध में खड़ी है। केजरीवाल की आम आदमी पार्टी को इसमें शामिल करने की सोच रखने वाले नेताओं की समझ की बलिहारी है कि आखिर वे समझ क्या रहे थे। अगर केजरीवाल आगे भी इंडिया गठबंधन में शामिल रहते हैं, जिसकी कि पूरी संभावना है, तो यह सवाल आगे भी पूछा जाता रहेगा।

अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी तो तब भी अन्ना आंदोलन की पृष्ठभूमि के साथ राजनीति के मैदान में उतरी थी। खुद केजरीवाल भी सामाजिक कार्यों के लिए मैग्सेसे पुरस्कार प्राप्त एक समर्पित और ईमानदार समाजसेवी की छवि के साथ अपनी पार्टी के नेतृत्व की भूमिका में आए थे।

प्रशांत किशोर तो खुद अपने अन्ना हैं और खुद ही केजरीवाल भी है। उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी बनाई, गांव गांव पदयात्राएं की, उसके बाद छात्रों के एक आंदोलन में शामिल हुए। खूब मीडिया कवरेज मिला। लोगों के बीच चर्चा भी हुई। उनके अनशन को लेकर उनके समर्थकों ने स्लोगन दिया ‘बिहार की ध्वस्त शिक्षा और भ्रष्ट परीक्षा के खिलाफ प्रशांत किशोर का आमरण अनशन।’

ठीक है कि आमरण अनशन को खत्म होना ही चाहिए था क्योंकि स्वस्थ प्रशांत किशोर बिहार के अधिक काम आ सकते हैं। लेकिन, सवाल यह है कि बिहार की जिस ‘ध्वस्त शिक्षा’ की बात वे कर रहे थे उस मुद्दे पर बीते एक महीने से उन्होंने क्या किया है। पटना में एक तंबू नगर स्थापित कर लोगों को सत्याग्रह का प्रशिक्षण देते वक्त वे क्या बता रहे हैं लोगों को?

बिहार की ध्वस्त शिक्षा पर तो सवाल उठाने वाले लोग ही नहीं मिल रहे। प्रशांत किशोर ने अगर यह सवाल उठाया था तो इतने दिन बीतने के बाद भी उन्होंने अब तक कोई रिपोर्ट क्यों नहीं जारी की जिसमें बिहार की शिक्षा के ध्वस्त होने के कारणों और जिम्मेदार लोगों की बातें होती?

बिहार की नई पीढ़ी की नसों में बिहार की भ्रष्ट और ध्वस्त शैक्षणिक संरचना रोज जहर के इंजेक्शन डाल रही है और प्रति वर्ष हजारों की संख्या में अकादमिक रूप से पंगु नौजवान डिग्रियां लेकर सडक़ पर आ रहे हैं।

जिस राज्य के विश्वविद्यालय और उनसे जुड़े संस्थानों के शीर्ष भ्रष्ट और पतित बुद्धिजीवियों की जमात से घिर गए हों, जहां के अधिकतर संस्थानों में संगठित लूट के सिवा और कुछ भी नहीं हो रहा हो, वहां शिक्षा का ध्वस्त होना और परीक्षा का मजाक बनना स्वाभाविक है। इनसे निकले नौजवान कौन सी दृष्टि, कैसी पृष्ठभूमि के साथ रोजगार के बाजार में उतरते होंगे?

बिहार के सामने हजारों दुश्वारियां हैं, न जाने कितनी चुनौतियां हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यही है कि आखिर बिहार के विश्वविद्यालयों की दुर्दशा पर इतनी चुप्पी क्यों। यह चुप्पी पीढिय़ों को बर्बाद कर रही है।

जब कोई सवाल नहीं उठा रहा था तब प्रशांत किशोर ने इन नपुंसक चुप्पियों के बीच बिहार की शिक्षा को विमर्शों के बीच लाया। फिर, वे भी चुप से हो गए। आजकल वे अपने साक्षात्कारों में नीतीश कुमार के स्वास्थ्य की चिंता अधिक करते देखे सुने जाते हैं। उन्हें राजनीति करनी है तो वे बहुत सारी बातें एक साथ करेंगे ही। लेकिन, शिक्षा अब उनके एजेंडा में कहीं हाशिए पर चली गई है शायद। संभव है, सत्याग्रह प्रशिक्षण में वे अपने अनुयायियों के सामने इस विषयक कुछ प्रवचन देते हों।

प्रशांत किशोर ने जब जन सुराज की स्थापना की थी तब उनके मन में निश्चित ही अरविंद केजरीवाल और आम आदमी पार्टी का उदाहरण होगा। केजरीवाल की शोशेबाजियों ने तो तब भी कुछ मुकाम हासिल किया। काठ की हांडी एक बार तो अच्छे से रसोई पका ही देती है। लेकिन, उनकी विचारहीनता और मूल्यहीनता दोबारा उन्हें शायद ही अब उठने दे।

प्रशांत किशोर को यह उदाहरण समझना होगा। उनकी विचारधारा का कोई स्पष्ट दृश्य सामने अभी तक नहीं आया है। लेकिन, उसकी एक झलक हाल में हुए बेलागंज विधानसभा उप चुनाव में दिखी। बिहार के सरकारी स्कूलों की बदहाली पर उन्होंने वहां कहा, ‘सरकारी स्कूलों को तुरंत नहीं सुधारा जा सकता इसलिए हमारी जन सुराज पार्टी जब सत्ता में आएगी तो गरीबों के बच्चों का दाखिला प्राइवेट स्कूलों में करवाया जाएगा जिनकी फीस सरकार देगी।’

क्या यही उनकी वैचारिकी है? यह तो नरेंद्र मोदी के नीति आयोग के उस सी ई ओ की उन बातों की याद दिला देता है जिसने आयोग की एक बैठक में कहा था, ‘सरकारी स्कूलों को प्राइवेटाइज कर देना चाहिए और निर्धन बच्चों की फीस सरकार को भरनी चाहिए।’ अगर यही प्रशांत किशोर का विजन है तो भगवान उनसे बिहार को बचाए।

बिहार दिल्ली नहीं है जिसने एक दौर में केजरीवाल को सिर पर उठा लिया था। वह दौर था और उस दौर की कुछ परिस्थितियां थी। प्रशांत किशोर के सामने वैसा राजनीतिक मैदान और वैसी परिस्थितियां नहीं हैं। न वे स्वयं अब तक कुछ भी साबित कर सके हैं। शिक्षा को लेकर उन्होंने जो सवाल उठाए वे सवाल किसी बियाबान में गुम हैं। अगर इसी सवाल को वे मशाल बना लेते तो बिहार की नौजवान पीढ़ी उनमें कुछ उम्मीदें ढूंढती। पता नहीं, शायद वे अपने सत्याग्रह प्रशिक्षण कार्यक्रम में इस पर कुछ बातें कर रहे हों।

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