सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु की राज्य सरकार और वहां के राज्यपाल के बीच चल रहे एक टकराव पर हैरानी जाहिर की है कि और कहा है कि अगर राज्यपाल विधानसभा से पारित विधेयकों पर सरकार को कोई सूचना दिए बिना उन्हें अंतहीन रोककर रखते हैं, तो इस गतिरोध का क्या समाधान होगा। सुप्रीम कोर्ट के दो जजों के बेंच ने कहा कि राज्यपाल किसी विधेयक से असहमति के आधार पर सरकार को अपनी राय बताए बिना उसे इस तरह रोक नहीं सकते। जजों ने कहा कि राज्यपाल को तुरंत ही सरकार को अपनी असहमति या आपत्ति बतानी चाहिए क्योंकि सरकार को खुद होकर कैसे पता लगेगा कि राज्यपाल उसे क्यों रोककर बैठे हैं। अदालत ने याद दिलाया कि संविधान के अनुच्छेद 200 के पहले ही प्रावधान के मुताबिक राज्यपाल को असहमत होने पर विधेयक विधानसभा को जल्द से जल्द वापिस करना चाहिए। उल्लेखनीय है कि 2023 में तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में यह याचिका दायर की थी कि राज्यपाल के पास एक दर्जन विधेयक पड़े हुए हैं जिन्हें वे मंजूरी नहीं दे रहे, इनमें से एक विधेयक तो जनवरी 2020 से पड़ा हुआ है। कई बरस तक विधायकों को रोकने के बाद राज्यपाल ने घोषणा की कि वे 10 विधेयकों को मंजूरी नहीं दे रहे, और रोक रहे हैं। इसके बाद राज्य सरकार ने विधानसभा में इन्हीं विधेयकों को फिर से पारित किया, और इनमें से कुछ विधेयक सीधे राष्ट्रपति को भेजे गए।
यह राष्ट्रपति और राज्यपाल को संविधान में मिले हुए अधिकारों का साफ-साफ बेजा इस्तेमाल है। और ऐसा बहुत से दूसरे राज्यों में भी हुआ है, पंजाब में भी अभी कुछ महीने पहले ही राज्यपाल को अदालती फटकार लगी थी। देश के कई राज्यों में अलग-अलग समय पर सरकारों को राज्यपाल के खिलाफ अदालत तक जाना पड़ा है। अधिकतर मामलों में यह देखा गया है कि जब केन्द्र और राज्य में अलग-अलग पार्टियों या गठबंधनों की सरकारें रहती हैं, तब यह टकराव खड़ा होता है। किसी राज्यपाल का विवेक उस वक्त नहीं जागता जब उसे मनोनीत करने वाले गठबंधन या पार्टी की ही सरकार राज्य में भी रहती है। यह सिलसिला भारत के संविधान में की गई एक निहायत गैरजरूरी व्यवस्था की वजह से चल रहा है जिसे राज्यपाल कहते हैं। दुनिया के बहुत सारे लोकतंत्रों को देखें तो वहां संविधान प्रमुख नाम की कोई चीज नहीं है। न राष्ट्रपति हैं, और न राज्यपाल। वहां सिर्फ शासन प्रमुख हैं जिन्हें कहीं राष्ट्रपति कहा जाता है, और कहीं प्रधानमंत्री। जब भारतीय लोकतंत्र में कार्यपालिका, न्यायपालिका, और विधायिका के बीच शक्तियों और संतुलन का एक पर्याप्त कारगर ढांचा बना हुआ है, उस वक्त केन्द्र पर सत्तारूढ़ पार्टी या गठबंधन की राजनीतिक साजिशों को चलाने के लिए राज्यपाल की व्यवस्था और उसका इस्तेमाल लोकतंत्र के लिए शर्मनाक है, और इसे संवैधानिक व्यवस्था कहा जाता है। दुनिया के बाकी बहुत से सभ्य लोकतंत्रों में इस व्यवस्था के बिना मुख्य न्यायाधीश शपथ दिलाने का काम कर देते हैं, जो कि हिन्दुस्तान में भी जारी व्यवस्था है, यहां भी राष्ट्रपति या राज्यपाल को देश और प्रदेश के मुख्य न्यायाधीश ही शपथ दिलाते हैं। अब जो राष्ट्रपति और राज्यपाल को शपथ दिलाते हैं, वे प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को शपथ क्यों नहीं दिला सकते?
फिर जहां तक किसी पार्टी या गठबंधन को सरकार बनाने का न्यौता देने की बात है, तो हमने देखा है कि न सिर्फ राज्यपाल, बल्कि जिसे तटस्थ रहना चाहिए, वह विधानसभा अध्यक्ष भी राजनीतिक साजिशों में खिलाड़ी की तरह शामिल हो जाते हैं। महाराष्ट्र के राज्यपाल और विधानसभा अध्यक्ष दोनों के बारे में अभी पिछले ही बरस सुप्रीम कोर्ट को क्या-क्या नहीं कहना पड़ा था। हो सकता है कि अंग्रेजों को इस तरह की व्यवस्था ठीक लगी हो क्योंकि उन्हें दूर बैठकर इस देश पर सरकार चलाना था, लेकिन भारतीय संविधान बनाने वाले लोगों को इस बात का शायद अंदाज नहीं था कि संवैधानिक पदों पर बैठे हुए लोग भी घटिया दर्जे की राजनीति के खिलाड़ी बनकर अगला कार्यकाल और गर्व दोनों पाने लगेंगे।
राष्ट्रपति और राज्यपाल अगर सरकारों पर हावी हो जाते हैं, तो यह जनता की चुनी गई सरकारों की हेठी भी है। हमने मणिपुर की हिंसा के दौरा में बार-बार इस बात को उठाया था कि एक आदिवासी महिला के राष्ट्रपति रहते हुए भी मणिपुर में आदिवासियों के बड़े पैमाने पर कत्लेआम पर भी उनका मुंह नहीं खुला था, उन्होंने सरकार से जवाब-तलब नहीं किया था, वहां जाने की जहमत भी नहीं उठाई थी। ऐसे राष्ट्रपति पद की देश में जरूरत क्या है? कहने के लिए यह कहा जा सकता है कि राष्ट्रपति सरकार, अदालत, और संसद से परे हैं, लेकिन राष्ट्रपति के अधिकारों को देखें तो वह एक किस्म से केन्द्र सरकार के रबर स्टैम्प से अधिक कुछ नहीं है। इसके अलावा जितने किस्म के मनोनयन के अधिकार राष्ट्रपति के पास रहते हैं, उन सबका इस्तेमाल केन्द्र सरकार ही करती है। इसी तरह राज्यों में विश्वविद्यालयों के कुलपति बनाने का जो अधिकार राज्यपाल के पास है, वह केन्द्र की सत्तारूढ़ सरकार की मर्जी से किए जाने वाले मनोनयन का रहता है, और जो राज्य सरकार से टकराव के साथ चलता है। लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार पर संवैधानिक लगाम के नाम पर देश और प्रदेश के संवैधानिक प्रमुख का यह सिलसिला निहायत बोगस है। इसे खत्म करने के लिए हमारी सरीखी सोच वाले कुछ ऐसे लोगों की जरूरत है जो अंग्रेजों की गुलाम मानसिकता से परे यह सोच सकें कि हर तरह का फेरबदल हो सकता है। बिना राष्ट्रपति और राज्यपाल के दुनिया का सबसे ताकतवर देश अमरीका चलते आया है, और वहां इन दोनों दफ्तरों पर कानूनी लगाम लगाने के लिए अदालतें अपना काम करती रहती हैं, वहां की संसद अपना काम करती है।
अलग-अलग लोकतंत्रों में व्यवस्थाएं अलग-अलग रहती हैं, लेकिन निर्वाचित सरकार के हाथ-पैर बांध देने वाला राजभवन सबसे ही बोगस व्यवस्था है, और इसे बिना देर किए खत्म किया जाना चाहिए। पिछले दशकों में अलग-अलग केन्द्र सरकारों ने एक से बढक़र एक रद्दी लोगों को राज्यपाल बनाने का काम किया है, और अगर लोग घटिया नहीं भी थे तो भी उन्होंने राजभवन के सुख को पाने के लिए, या उससे बड़े राजभवन में जाने के लिए केन्द्र सरकारों के तलुए सहलाते हुए लोकतंत्र विरोधी काम करके दिखाया है। राज्यपालों के शर्मनाक काम इतने अधिक हो चुके हैं कि किसी इज्जतदार व्यक्ति को राज्यपाल बनना भी नहीं चाहिए। चूंकि राजनीतिक दलों को अपने ढाई दर्जन लोगों को खपाने के लिए राजभवन एक अच्छा डेरा है, इसलिए कोई राजनीतिक दल इस व्यवस्था को खत्म करना नहीं चाहते, लेकिन लोकतंत्र में जनता की तरफ से यह आवाज उठनी चाहिए कि उसने जिस सरकार को चुना है उसके सिर पर ऐसा मनोनयन क्यों थोपा जा रहा है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)