तलाक के एक मामले में छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने अभी पति के पक्ष में फैसला दिया है, और कहा है कि जिन मां-बाप ने बेटे को पाल-पोसकर बड़ा किया, और पढ़ाया, उसका नैतिक और कानूनी दायित्व है कि मां-बाप के बूढ़े होने पर उनकी देखभाल करे, और उनका इंतजाम करे। दो जजों की बेंच ने पत्नी के बारे में भी भारतीय सामाजिक मूल्यों के मुताबिक कहा है कि उससे भी पति के परिवार का हिस्सा बनने की उम्मीद की जाती है। ऐसे में अगर वह अलग रहने की जिद करती है, तो बेटे पर अपने मां-बाप की जिम्मेदारी भी रहती है, और यह तलाक का एक आधार बन सकता है। हम उस मामले पर अधिक लिखना नहीं चाहते जिसे लेकर अदालत का यह फैसला सामने आया है, और तलाक के लिए पहुंचे हुए पति को अदालत ने राहत दी है। हम यहां पर महिला की किसी गलती रहने या न रहने पर टिप्पणी नहीं कर रहे, क्योंकि बहुत से मामले ऐसे भी रहते हैं जिनमें पत्नी की प्रताडऩा होती है, और अभी पिछले एक हफ्ते में ही अपने आसपास हमें दो-तीन ऐसे मामले दिखे हैं। लेकिन मां-बाप के साथ बच्चों का कैसा रिश्ता रहना चाहिए, इस मुद्दे पर हम यहां चर्चा करना चाहते हैं।
इससे बिल्कुल ही अलग एक दूसरा समाचार मध्यप्रदेश का आज ही छपा है जिसमें टीकमगढ़ में एक व्यक्ति की मौत के बाद उसके बेटों में इस बात को लेकर झगड़ा हुआ कि पिता का अंतिम संस्कार कौन करे। और जब बातचीत से यह नहीं सुलझा तो पिता की लाश घर के बाहर पड़ी रही, और बेटे झगड़ते हुए इस सहमति पर पहुंचे कि लाश के दो टुकड़े कर लेते हैं, और आधे-आधे टुकड़े का अंतिम संस्कार दोनों बेटे कर लेंगे। इस पर समाज के लोगों ने उन्हें समझाया लेकिन उनकी जिद को देखते हुए लोगों ने पुलिस को खबर की, और पुलिस ने आकर रिश्तेदारों-घरवालों को समझाईश देकर छोटे बेटे से अंतिम संस्कार करवाया, और बड़ा बेटा लाश के टुकड़े करके एक टुकड़े का अंतिम संस्कार करने की हसरत के साथ वहां रह गया। लोगों को याद होगा कि इसी मध्यप्रदेश में अभी कुछ हफ्ते पहले ही दो भाईयों ने मिलकर बूढ़ी और बीमार मां को गला घोंटकर मार डाला था, क्योंकि उसकी देखभाल करनी होती थी। एक दूसरे मामले में एक आदमी बूढ़ी और बीमार मां को बिना दवा-खाने के घर में बंद करके पत्नी और बच्चे सहित उज्जैन चले गया था, और पीछे से मां के मर जाने के बाद जब लाश की बदबू फैली तब पड़ोसियों ने पुलिस को बुलाया, और यह मामला खुला। ऐसे बहुत से मामले होते हैं जिनमें कोई ईमानदार और वफादार औलाद बूढ़े मां-बाप की जिंदगी भर देखरेख करने के लिए अपनी जिंदगी का सुख-चैन भूल जाती हैं, वहीं दूसरी ओर मां-बाप को मार डालने वाले लोग भी कम नहीं रहते हैं।
देश के कानून में यह तो साफ कर दिया है कि मां-बाप की देखरेख करना औलाद की जिम्मेदारी है, और अगर वे इसे पूरा नहीं करेंगी तो अदालत उनसे मां-बाप को गुजारा भत्ता दिलवा सकती है। बिना किसी अपवाद के, सारे ही मां-बाप अपने बच्चों को बड़ा करते हैं, और उनके जवान होने तक उन पर खर्च करते हैं, पढ़ाते-लिखाते हैं, और उनकी शादी करने से लेकर उनके बच्चों तक की देखभाल करते हैं। मां-बाप की इस पूरी लागत में से अगर सिर्फ आर्थिक हिस्से का हिसाब लगाया जाए, तो भी कमाऊ होने के बाद आल-औलाद को मां-बाप की बकाया जिंदगी उनका ख्याल रखना चाहिए, तभी वे मातृ-पितृ ऋण से उऋण हो सकेंगे। लेकिन हर औलाद अच्छी इंसान हो, यह जरूरी तो है नहीं, हम अपने आसपास ऐसी बहुत सी औलादें देखते हैं जो कि मां-बाप को मारपीट कर उनके पैसे छीनकर नशा करती हैं, और बूढ़े मां-बाप इस आस में मजदूरी करके ऐसी नालायक और हरामखोर औलाद को पालते हैं कि कम से कम वह जिंदा तो रहे।
छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट ने बेटे पर मां-बाप की देखरेख की जो जिम्मेदारी गिनाई है, वह कानून की तंग परिभाषा से परे भी इंसानियत की बात है, और समाज को भी जवान लोगों पर मां-बाप की देखरेख का दबाव बनाकर रखना चाहिए। लेकिन इससे परे भी हमारा ऐसा ख्याल है कि मां-बाप को अपनी औलाद को बिगडऩे न देने के लिए फिक्र करनी चाहिए, और जवान बच्चों को गोद के दुधमुंहों की तरह संभालकर नहीं रखना चाहिए। उन्हें अपनी बचत में से औलादों को एक सीमा से अधिक मदद भी नहीं करनी चाहिए, उन्हें अपने दम पर अपने पैरों पर खड़े होने की राह दिखानी चाहिए। आज हिन्दुस्तानी मां-बाप आल-औलाद के मोह में अपनी पूरी दौलत गंवा बैठते हैं, और दौलत जाने के साथ-साथ औलाद की जिंदगी से मां-बाप का महत्व भी चले जाता है। यह सिलसिला शुरू ही नहीं होने देना चाहिए। संतानमोह, और खासकर पुत्रमोह में मां-बाप उसे खूब निकम्मा हो जाने देते हैं, और अपना सब कुछ गंवा बैठते हैं। हमारा मानना है कि सरकार को एक कानून बनाकर बूढ़े मां-बाप की दौलत औलाद तक जाने के नियम तय करने चाहिए। बूढ़े मां-बाप की बकाया उम्र का हिसाब लगाकर जमीन-जायदाद या दौलत का एक पर्याप्त हिस्सा उन्हीं के नाम पर आखिर तक रखना चाहिए, और आल-औलाद के नाम इस पर्याप्त हिस्से का ट्रांसफर नहीं होने देना चाहिए। यह किसी भी जनकल्याणकारी सरकार की जिम्मेदारी है कि वह बूढ़े, बीमार, या असहाय लोगों को भावना में बहकर, या पारिवारिक दबावतले पिसकर आत्मघाती बंटवारा न करने दे, या दौलत न गंवाने दे। हमने पहले भी इस मुद्दे पर लिखते हुए इस बात का जिक्र किया था कि बुजुर्ग लोग अपनी जायदाद पर बैंकों से एक रिवर्स लोन ले सकते हैं, जिसके तहत बैंक एक हिसाब लगाकर बुजुर्गों को हर महीने गुजारे के लिए रकम देती है, और उनके गुजर जाने के बाद इस दी गई रकम और ब्याज का हिसाब लगाकर उनकी आल-औलाद को उस दाम पर जमीन-जायदाद दे देती है, या बेचकर अपनी रकम निकालकर बाकी रकम वसीयत के मुताबिक उनके बच्चों को दे देती है।
परिवार और समाज का दबाव बूढ़े मां-बाप झेल नहीं पाते, इसलिए सरकार को ही ऐसा कानून बनाना चाहिए ताकि लोग मौत आने तक गरिमामय तरीके से जी सकें। कल ही हमने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के आधार पर केरल और कर्नाटक सरकारों के बनाए हुए नियम पर इसी जगह लिखा था कि वहां लाइलाज मरीजों को गरिमामय तरीके से मरने देने की कैसी कानूनी छूट दी जा रही है। आज उसी से मिलती-जुलती बात हम गरिमामय तरीके से बुढ़ापा गुजारने के बारे में कह रहे हैं कि आल-औलाद के रहमोकरम पर जीने के बजाय लोगों को अपने खुद के बुढ़ापे के लिए बचत करके रखनी चाहिए, और अपने इंतजाम के बाद ही अगर कुछ बचे तो उसे आल-औलाद को देना चाहिए, या उन पर खर्च करना चाहिए। भावनाओं में बहकर बच्चों के लिए कुछ भी करना उन्हें भी बर्बाद करने से कम नहीं रहता है। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)