संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : मौनी अमावस्या पर मौतें, क्या सीएम को सचमुच ही मौन रहने का हक था?
31-Jan-2025 5:05 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : मौनी अमावस्या पर मौतें, क्या सीएम को सचमुच ही मौन रहने का हक था?

उत्तरप्रदेश में चल रहे कुंभ में मौनी अमावस्या की सुबह धार्मिक मान्यताओं के चलते करोड़ों की भीड़ इकट्ठी बताई गई, और उस बीच हुई एक भगदड़ में करीब 30 लोगों की मौत हुई। वहां जैसी भीड़ थी, उसके मुकाबले मौतों का आंकड़ा कुछ भी नहीं था, और पिछले ही बरस इसी यूपी के हाथरस में एक किसी बाबा के प्रवचन में उनके पांवों की धूल लेने के चक्कर में टूट पड़ी भीड़ में कुचलकर करीब सवा सौ लोग मरे थे, इसलिए करोड़ों के भीड़ के बीच भगदड़ का यह आंकड़ा कुछ भी नहीं था। लेकिन इस पर यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने जिस तरह की चुप्पी साध रखी, और मौतों को अपनी जुबान से मंजूर ही नहीं किया, बल्कि बार-बार ये सिर्फ ये कहते रहे कि अफवाहें न फैलाएं, अफवाहों पर भरोसा न करें, उनसे प्रदेश के मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी तबाह हो गई। यह तो ठीक है कि देश भर के टीवी चैनल और अखबार यूपी सरकार के कुंभ-इश्तिहार के बोझतले दबे हुए हैं, और इसलिए जब सबको मौतों के आंकड़े सामने रखने थे, उनमें से अधिकतर लोग इसमें उलझे हुए थे कि मोदी ने योगी से कितने बजे बात की, फिर कितने बजे दुबारा बात की, फिर कितने बजे एक बार फिर बात की, और फिर बाकी नेताओं का भी कि किसने किससे कब-कब फिक्र जाहिर की। मानो मौतों के आंकड़े मायने नहीं रखते थे, महज फिक्र मायने रखती थी। ऐसे माहौल में जब अफवाहें जोर पकड़ती हैं, तो जिम्मेदार लोगों को सामने आकर नैतिक जिम्मेदारी लेनी होती है, और अफवाहों का मुंह बंद करना पड़ता है। यहां तो अफवाहें फैली ही नहीं, और सत्ता का मुंह खुला नहीं। शायद अगले दिन पुलिस के किसी एक अफसर ने 30 मौतों की बात मंजूर की, और बात आई-गई हो गई। कुंभ से उपकृत मीडिया के पास आंकड़े यही रहे कि कितने बजे तक कितने लोगों ने अमृत स्नान किया।

सार्वजनिक जीवन में जनता के ओहदों पर बैठे हुए लोगों में लोगों के गुस्से का सामना करने का हौसला होना चाहिए। और कुंभ में तो किसी भीड़ की पहुंच योगी आदित्यनाथ तक थी भी नहीं, वे किसी भीड़ से घिरे हुए भी नहीं थे, ऐसे में उनका मौत शब्द को भी मुंह पर न आने देना बड़ा अटपटा रहा, और इसने उन्हें एक कमजोर नेता की तरह दिखाया है। दुनिया में धार्मिक भीड़ का इतिहास हादसों से भरा हुआ है, और ऐसे में करोड़ों की भीड़ में कुछ दर्जन मौतें उतना बड़ा कलंक भी नहीं थीं, जितना शायद योगी ने इसे मान लिया, और मौत शब्द को अपनी डिक्शनरी से ही बाहर कर दिया। फिर जब यूपी सीएम मौत के आंकड़े देने तैयार न हों, अफसर चौबीस घंटे बाद मुंंह खोलें, तो केंद्र सरकार के तो कुछ कहने की जिम्मेदारी भी नहीं बनती थी। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या कुंभ में खुद होकर पहुंचने वाले करोड़ों लोगों के बाद अरबों रुपयों के इश्तिहार देकर देश भर से और लोगों को न्यौता देना क्या सचमुच कोई समझदारी का काम था? जिनकी आस्था थी वे तो अपने हिसाब से पहुंचने ही वाले थे, और तीर्थयात्रियों के आने का देश में एक ऐतिहासिक रिकॉर्ड, और एक विश्व रिकॉर्ड बनाना क्या इतना जरूरी था? आज भी हमें लगता है कि करोड़ों लोगों की ऐसी भीड़ सुरक्षित नहीं है। किसी भी एक जगह, एक धार्मिक आस्था से इतने लोगों का पहुंचना, और सीमित जगह पर असीमित भक्ति-भाव से कुछ पारंपरिक रीति-रिवाज निभाना क्या किसी भी सरकार के लिए मानवीय रूप से संभव इंतजाम है? आती हुई जनता को न रोकना एक बात है, लेकिन असंभव किस्म के इंतजाम में भीड़ को और बढ़ाने के लिए रात-दिन इश्तिहार दिखाना, एक खतरनाक राजनीतिक फैसला था, और है। इससे खतरा था, कुछ नुकसान हुआ, और अभी खतरे का एक पूरा पखवाड़ा बाकी है।

भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में आमतौर पर जिला प्रशासन किसी भी भीड़ को झेलने के लिए, उसका इंतजाम करने के लिए कानूनी रूप से जिम्मेदार रहता है। लेकिन करोड़ों की ऐसी भीड़ के लिए तो कई जिला मजिस्टे्रट ड्यूटी पर लगाए गए थे, आसपास के कई जिले भी इस भीड़ की आवाजाही से प्रभावित थे, और क्या सचमुच ही इस पूरे आयोजन के लिए किसी जिला प्रशासन को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? जैसा कि राष्ट्र और प्रदेश स्तर के इस आयोजन को राज्य सरकार के फैसले के मुताबिक किया जा रहा था, क्या प्रयागराज के जिला कलेक्टर इस किस्म की भीड़ के इंतजाम में अपने किसी दिमाग का इस्तेमाल कर सकते थे, या उन्हें राज्य सरकार के फैसलों पर ही मुहर लगानी थी? ऐसे में किसी भी हादसे की जवाबदेही कैसे तय हो सकती है? क्या सचमुच ही कोई जिला कलेक्टर अपने इलाके में एक दिन एक वक्त दस करोड़ लोगों के जुटने की इजाजत दे सकते हैं? क्या कोई अफसर इसे न्यायोचित ठहरा सकते हैं कि ऐसी दस करोड़ की भीड़ के लिए उनके पास पर्याप्त सुरक्षा इंतजाम थे?

यह आयोजन बिना किसी बड़े हादसे के पूरा हो जाए, इसके लिए हमारी शुभकामनाएं हैं। लेकिन सच तो यह है कि ऐसी भीड़ के बावजूद अगर कोई अनहोनी नहीं होती है, तो वह किसी योजना की वजह से न हुई हो, ऐसा नहीं लगता, ऐसा लगता है कि और कोई बड़ा हादसा न होना बस अपने-आप टल गया हो। हमारा तो यह मानना है कि राज्य शासन और स्थानीय प्रशासन इन दोनों के नजरिए से इतनी बड़ी भीड़ को और बढ़ाने का काम नहीं करना चाहिए था। दुनिया का सबसे अच्छा इंतजाम भी लोगों की इतनी बड़ी गिनती के सामने बेअसर हो सकता है। अपनी आस्था से जो लोग वहां पहुंचते, वे अपने-आपमें एक बड़ी चुनौती थे, उन पर, और उनकी वजह से औरों पर होने वाले खतरे को पूरी तरह अनदेखा करना ठीक फैसला नहीं रहा। यह पूरा आयोजन बिना किसी और बड़े हादसे के निपट जाए, उससे भी भीड़ को बढ़ाने को सही कहना समझदारी नहीं होगा। लोकतंत्र में सत्ता को ऐसे फैसले लेने की ताकत तो रहती है, लेकिन इनसे बचना ही बेहतर रहता।

चलते-चलते अभी शंकराचार्य स्वामी अविमुक्तेश्वरानंद सरस्वती का यह बयान देखने मिल रहा है जिसमें उन्होंने कहा है-मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हमें धोखे में रखा कि घटना में कोई मौत नहीं हुई है। आज हमारी सबसे बड़ी पीड़ा है कि हमारा सीएम झूठा है। हमारी जो मृत आत्माएं हैं, उनके प्रति संवेदना व्यक्त करने और उपवास करने के लिए भी सीएम ने मौका नहीं दिया। मौतों के बाद सीएम का बयान आया कि कुछ लोग घायल हुए हैं, उन्होंने किसी मौत का जिक्र नहीं किया। हिंदू धर्म में ये नियम है कि जब परिवार में किसी की मौत हो जाती है, विशेष रूप से इस तरह की परिस्थितियों में तो कोई भोजन नहीं करते। शंकराचार्य ने कहा कि सीएम ने ऐसा आभास करा दिया कि सिर्फ अफवाह चल रही है, और कोई मौत नहीं हुई है। उन्होंने इसे संतों, और सनातनियों के साथ बहुत बड़ा धोखा कहा है और तकलीफ जाहिर की है कि मौतों के बाद का भोजन पूरी जिंदगी पीड़ा देगा। उन्होंने कहा कि समय रहते मौतों का पता लग रहता तो वे एक दिन का उपवास करते, लेकिन इस सच्चाई को योगी आदित्यनाथ ने छुपाकर रखा।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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