भारत में इन दिनों चल रहा पूर्ण कुम्भ दुनिया का सबसे बड़ा धार्मिक जलसा है। इस मेले में दसियों करोड़ लोगों के पहुंचने का आसार है, और हिन्दू मान्यताओं के मुताबिक इस बार का कुम्भ 144 बरस में एक बार होता है, इसलिए भी केन्द्र और राज्य सरकार ने इस धार्मिक आयोजन पर हर किस्म का खर्च करना तय किया है। यहां दसियों करोड़ लोग पहुंचेंगे, इसलिए कुछ गिने-चुने लोगों के बर्ताव से इसकी सफलता या असफलता, इसके अच्छे या बुरे होने का फैसला नहीं करना चाहिए, लेकिन यहां की जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उनसे कुछ लोगों के चाल-चलन पर तो रौशनी पड़ती ही है। वहां से जितने किस्म के वीडियो निकलकर बाहर आ रहे हैं, वे पूरी तरह गढ़े हुए नहीं हैं, और अब तक ऐसी कोई शिकायतें भी सामने नहीं आई हैं कि लोगों ने कोई नाटक रचकर कुम्भ को बदनाम करने की कोशिश की हो। हर दिन दस-बीस ऐसे नए वीडियो देखने मिल रहे हैं जिनमें साधू दिखने वाले लोग कुम्भ की सार्वजनिक जगहों पर, और लोगों के बीच खुलकर गालियां बक रहे हैं। वे कैमरों के सामने गालियां दे रहे हैं, अपने चिमटे लेकर लोगों को दौड़ाते हुए गालियां दे रहे हैं, किसी मुस्लिम फेरीवाले को कई साधू लात मार-मारकर भगा रहे हैं कि मुस्लिम यहां पर आया कैसे?
अब सवाल यह उठता है कि अपने आपको साधू या संन्यासी कहने और दिखाने वाले लोग जो कि कहने के लिए पारिवारिक और सांसारिक जीवन की मोह माया से मुक्त हो चुके हैं, वे किस तरह नाराज होने पर पल भर में दूसरों की मां-बहन से अपना रिश्ता जोडऩे की गालियां देने लगते हैं? वैराग्य से पल भर में सेक्स तक पहुंच जाने की उनकी जुबान उन्हें क्या साबित करती है? हम यहां पर साधुओं के हुलिए में गांजा पीते दिखने वाले अनगिनत लोगों की बात नहीं करते, क्योंकि हिन्दुस्तान में गांजा चाहे जितना भी गैरकानूनी क्यों न हो, वह अनंतकाल से प्रचलन में रहा है, और हिन्दू धर्म से जुड़े हुए संन्यासी-बैरागी सार्वजनिक जगहों पर, मठ-मंदिर में, और चबूतरों पर खुलेआम गांजा पीते दिखते हैं, और इसे हिन्दू धर्म के रीति-रिवाज का एक हिस्सा मान लिया गया है। वैसे भी हम बीच-बीच में यह सवाल उठाते रहते हैं कि क्या शराब के अतिसंगठित कारोबार की पकड़ और जकड़ से बाहर निकलकर सरकार को गांजे जैसे कम नुकसानदेह और सस्ते नशे को कानूनी नहीं बनाना चाहिए?
खैर, हम कुम्भ की चर्चा को गांजे तक केन्द्रित रखना नहीं चाहते हैं क्योंकि यह ऐतिहासिक मौका ऐसे किसी एक मुद्दे के मुकाबले बहुत अधिक बड़ा है, बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। कुछ लोगों का यह भी मानना है कि यूपी की भाजपा सरकार के हिन्दुत्व के एजेंडे से परे उत्तरप्रदेश ने कुम्भ का इस्तेमाल दुनिया भर से एक धार्मिक पर्यटन को जुटाने में भी किया है। कुछ अरसा पहले यूपी के अयोध्या में शुरू हुए राम मंदिर ने प्रदेश को करोड़ों नए पर्यटक दिए हैं, और कुम्भ दसियों करोड़ नए पर्यटक दे रहा है। यह बात तो समझना बड़ा आसान है कि अयोध्या या कुम्भ जाने वाले धर्मालु पर्यटक या सैलानी इन जगहों से परे भी कुछ दूसरी जगहों पर जाते होंगे, राज्य के बने हुए बहुत किस्म के सामान खरीदते होंगे, जिससे राज्य की अर्थव्यवस्था को एकदम से छलांग लगाकर आगे बढऩे में मदद मिलेगी, मिल रही है। उत्तरप्रदेश सरकार अपने राजनीतिक और धार्मिक मकसद में बहुत हद तक कामयाब रही है कि बिना किसी बहुत बड़े हादसे के अब तक दस करोड़ या उससे अधिक लोग वहां आकर लौट चुके हैं।
ऐसे में सरकार के इंतजाम में तो लोगों को बदनामी नहीं दिलाई, जिन लोगों को कुम्भ में स्वाभाविक भागीदार माना जाता है, वैसे भगवाधारी कुछ लोगों ने वीडियो बनाने वाले लोगों की मौजूदगी में जैसी गंदी जुबान इस्तेमाल की है, जैसी साम्प्रदायिकता दिखाई है, उससे वैराग्य के पाखंड का भांडाफोड़ होता है। आज भगवा पहने किसी को भी इस देश में साधू-संन्यासी मान लिया जाता है, और उसे बाबा कहना शुरू कर दिया जाता है। उनके मुंह से जब मां-बहन की गालियां झड़ते वीडियो रिकॉर्ड होते हैं, तो समझ पड़ता है कि इनकी दाढ़ी-मूंछ, भगवा और भभूत, रूद्राक्ष और चिमटा-कमंडल के पीछे इनकी वही आदिम हिंसा कायम है, और जरा सा मौका मिलते ही वह भभूत चीरकर सतह पर आ जाती है। इसलिए किसी भी कुम्भ के मुकाबले इस बार वीडियो-कैमरे कुछ अधिक हैं, अधिक यूट्यूब चैनल हैं, और सोशल मीडिया पर बनने और फैलने वाली रील्स भी एक नई पेशकश है। इसलिए हो सकता है कि हमेशा से साधू-संन्यासियों के चोले में कई ऐसे लोग रहते आए हों, लेकिन अब वे वीडियो पर अधिक कैद हो रहे हैं, और उनके वीडियो अधिक फैल रहे हैं। यह एक किस्म से अच्छी बात इसलिए है कि लोगों की पोशाक से उनके बारे में धारणा बनाई जाती है, वह इससे टूट रही है, और सकारात्मक या नकारात्मक, किसी भी तरह के मजबूत पूर्वाग्रह रहने भी नहीं चाहिए।
फिलहाल एक सामान्य सी जिज्ञासा यह पैदा होती है कि प्रचलित धारणा के मुताबिक अगर कुम्भ के त्रिवेणी संगम में डुबकी लगाने से लोगों के पाप धुल जाते हैं, तो फिर संगम में तो अब पानी बचना ही नहीं चाहिए था, पाप ही पाप रह जाना था, और बाद में वहां पहुंचने वाले लोगों को सिर्फ पाप में ही डुबकी लगाना नसीब होना था। लेकिन धर्म पापमुक्ति को जितनी आसान बताता है, वह उतनी आसान रहती नहीं है। इसलिए किसी डुबकी लगाने से पाप धुल जाएंगे ऐसी सोच लोगों को आगे पाप करने का एक हौसला दे सकती है, कुम्भ जैसे आयोजनों के साथ जुड़ी ऐसी जनमान्यताओं से उबरने की भी जरूरत है। तमाम धर्मों में ऐसी मान्यताएं बुरा काम करने वाले लोगों को आत्मा धोने की सहूलियत देती हैं, लेकिन समझदारों को कुम्भ के ऐसे किसी संभावित इस्तेमाल पर भरोसा नहीं करना चाहिए। दुनिया का कोई भी धर्म ऐसी कोई भी सी सहूलियत नहीं दे सकता, और धर्म के नाम पर कारोबार करने वाले लोग जरूर ऐसा झांसा बनाए रखते हैं। इसलिए कुम्भ जाने वाले लोग धार्मिक आस्था से जरूर जाएं, या सैलानी की जिज्ञासा से पहुंचें, लेकिन एक डुबकी से पापमुक्ति जैसे झांसे में न आएं, अपने कर्म ही ठीकठाक रखें।