संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : कुछ मुजरिम सरकार के और कुछ समाज के भी, किसका क्या जिम्मा?
24-Jan-2025 5:48 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : कुछ मुजरिम सरकार के और कुछ समाज के भी, किसका क्या जिम्मा?

तस्वीर / सोशल मीडिया

हर दिन के अखबार ऐसी खबरों से पटे रहते हैं कि जिसकी जो सरकारी जिम्मेदारी रहे, उसके ठीक खिलाफ जाकर लोग जुर्म करते दिखते हैं। आज ही की कुछ खबरों को लें, तो लोगों को ठगने के लिए, ठगी का पैसा कुछ फर्जी बैंक खातों में डालकर उसे कहीं और पहुंचा देने के लिए इस्तेमाल हो रहे सैकड़ों बैंक खाते पकड़ाए हैं, और इनमें बैंक अफसरों की मिलीभगत (वैसे मिलीमौलाना, या मिलीपादरी कहना चाहिए क्या?) सामने आई है। जिन लोगों को बैंक के काम के लिए तनख्वाह मिलती है, वे बैंक को लुटेरों के हाथ बेच रहे हैं। कल ही छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर की एक सडक़ का वीडियो सामने आया जिसमें बिना वर्दी के एक पुलिस अधिकारी सडक़ के बीच मोटरसाइकिल का यूटर्न ले रहा है, और पीछे से आ रही एक दुपहिया आकर उससे टकरा जाती है। दुपहिया चला रही महिला को यह पुलिसवाला घूंसे मारता है, और गालियां देता है, इसके बाद वहां से चले जाता है। जिस पुलिस के जिम्मे कानून व्यवस्था रहती है, वह इस किस्म की असभ्य और गैरकानूनी हरकत करता है। एक और खबर बताती है कि टोल टैक्स नाके पर सरकार और नाका ठेकेदार के लिए नगद वसूली सॉफ्टवेयर बनाने वाला उसमें ऐसी गड़बड़ी करता है कि नगद वसूली की फर्जी रसीद निकलती है, और सरकार का हिस्सा उसे जाता ही नहीं, पूरा पैसा टोल नाका ठेकेदार कंपनी को चले जाता है, और यह धोखाधड़ी सौ करोड़ से अधिक की हुई है। जिस सॉफ्टवेयर बनाने वाले को सरकारी टैक्स की हिफाजत का ध्यान रखना था, उसने धोखाधड़ी और जालसाजी का पुख्ता इंतजाम रखा। ऐसे मामले हर दिन सामने आते हैं जिनमें दिखता है कि बाड़ ही खेत खाने लगी है, किसी बाहरी की जरूरत नहीं रह गई है। ऐसे लोगों का क्या किया जाना चाहिए?

जब दुश्मन घर के भीतर हो, जब चौकीदार ही चोर बन जाए, जब जनता के पैसों पर पलने वाले अधिकारी-कर्मचारी जनता के हक के साथ धोखाधड़ी, और जालसाजी करने लगें, तो क्या ऐसे लोगों को सजा देने के लिए अलग से कुछ कानून नहीं बनना चाहिए? क्या मौजूदा कानून में और अधिक कड़ाई नहीं बरतना चाहिए? क्या ऐसे लोगों की जमीन-जायदाद को जब्त करके सरकार को लगाए गए चूने की रिकवरी नहीं करनी चाहिए? ऐसे बहुत से सवाल इस देश में रोजाना हो रहे जुर्म को लेकर उठते हैं। कहीं राह चलता कोई आदमी किसी महिला से बलात्कार करे, तो उस पर जितनी सजा का इंतजाम हो, उससे कई गुना अधिक सजा ऐसे लोगों को होनी चाहिए जो कि शिक्षक होते अपनी छात्राओं से ऐसा करें, या खेल प्रशिक्षक होते हुए अपनी खिलाड़ी के साथ ऐसा करें। जिन लोगों के हवाले सरकारी कामकाज और उनसे जुड़े हुए अधिकार रहते हैं, उनके किए हुए जुर्म अधिक सजा के हकदार रहने चाहिए।

भारत में पता नहीं कैसे लोगों के मन में इस किस्म के जुर्म के लिए खौफ एकदम ही खत्म हो गया है। कहने के लिए तो देश की आबादी का तकरीबन पूरा ही हिस्सा अपने को धर्मालु मानता है, तरह-तरह के धार्मिक पाखंड भी करता है, नैतिकता की बातें कहने वाले प्रवचनकर्ताओं को सुनने के लिए घंटों बैठता भी है, धार्मिक प्रतीक पहनता है, पापमुक्ति के हर किस्म के औजारों का इस्तेमाल भी करता है, लेकिन फिर अपनी हर किस्म की ताकत को हथियार की तरह इस्तेमाल करके जुर्म भी करता है। धर्म और जुर्म का यह तालमेल गजब की संगत दिखाता है। जिस तरह संगीत में दो अलग-अलग वाद्ययंत्रों के बीच जुगलबंदी होती है, ऐसे ही हिन्दुस्तान में (और बाकी दुनिया में भी) जुर्म और धर्म की जुगलबंदी देखने लायक रहती है। गॉड फादर जैसी फिल्म देखें, तो माफिया सरगना धार्मिक भावना से लबालब दिखते हैं, चर्च जाते हैं, अपने ही किए हुए कत्ल की लाश के कफन-दफन के वक्त धार्मिक संस्कार के लिए मौजूद रहते हैं, और ईसा मसीह को याद करते हैं। छत्तीसगढ़ में दो दिन पहले एक ही दिन में दो अलग-अलग जगहों पर दो पतियों ने अपनी-अपनी पत्नियों को मार डाला, दोनों पतियों के नाम में राम का नाम था, और उनके पिताओं के नाम में भी राम का नाम था। राम के नाम ने किसी भी जुर्म से नहीं रोका। इसी तरह सरकारी नौकरी के नियम किसी को भ्रष्टाचार से नहीं रोक रहे, और रिश्वत जैसे जुर्म से बहुत आगे बढक़र जो लोग धोखाधड़ी और जालसाजी के दर्जे की साजिश तैयार करते हैं, उनके मन में भी न सरकारी नियमों का खौफ रहता, न अदालती सजा का, और न ही अपने धर्म का। बल्कि धर्म तो अधिकतर मामलों में लोगों को पाप और बुरे काम करने का हौसला देता है क्योंकि वह पापमुक्ति से लेकर प्रायश्चित तक के लिए तरह-तरह के इलाज और समाधान सुझाता है। कहीं गंगा में डुबकी लगाई जा सकती है, कहीं चर्चा में जाकर कन्फेशन चेम्बर में अपराध माना जा सकता है, और कहीं मस्तान भी हाजी बनकर जुर्म जारी रख सकता है। तकरीबन तमाम धर्म ऐसी लॉंड्री सेवा मुहैया कराते हैं। इसलिए किसी भी सरकारी कर्मचारी या अधिकारी से किसी धार्मिक सीख या नसीहत की वजह से बेहतर इंसान बनने की उम्मीद नहीं की जा सकती, और कानूनी बंदिशों को तोड़ते हुए जुर्म करने, और बच जाने की सहूलियतों पर लोगों का अपार भरोसा भी है।

ऐसे में समाज और सरकार दोनों के लिए यह जरूरी हो जाता है कि मुजरिम और पापी के लिए कुछ खास इंतजाम किया जाए। सरकार तो सिर्फ जुर्म पर सजा दे सकती है, लेकिन धर्म के ठेकेदार पापियों के लिए भी कुछ रोक-टोक तय कर सकते हैं। बहुत से मामलों में इन दोनों की जरूरत है। कानून अपना काम करे, और धर्म अपना। हम रोज ही सडक़ों पर ऐसे बहुत से लोगों को नियम-कानून तोड़ते, और जुर्म करते देखते हैं जो कि अपनी गाडिय़ों पर धर्म के निशान लगाकर चलते हैं, धार्मिक नारे लिखवाकर चलते हैं, या अपने बदन पर धार्मिक प्रतीक पहने रहते हैं। जाहिर है कि उनके हर गलत काम से उनके धर्म की भी बदनामी होती है, और देश-प्रदेश के कानून तो टूटते ही हैं। धर्म के ठेकेदारों को भी अपने लोगों के गलत काम और जुर्म पर सार्वजनिक रूप से जवाब देना चाहिए, और उन पर सार्वजनिक रोकटोक भी लगानी चाहिए। किसी धर्म और उसके ईश्वर का सम्मान भला कहां बच जाता है जब पुख्ता साबित हो चुके मुजरिमों के लिए भी उनके दरवाजे खुले रहते हैं? जिस तरह किसी भ्रष्ट को सरकारी सेवा से निकालने का कानून है, उसी तरह बुरे मुजरिमों को धर्म से बाहर करने का भी एक रिवाज होना चाहिए। इटैलियन माफिया के बारे में पोप सोच लें, इस्लामी आतंकी हत्यारों के बारे में कोई इमाम सोच ले, और पत्नी को मारकर टुकड़े करके कुकर में पकाने वाले हिन्दू के बारे में शंकराचार्य सोच ले, क्योंकि ये लोग सेवा नियमों से बंधे हुए सरकारी कर्मचारी तो हैं नहीं, धर्मालु मुजरिम जरूर हैं। सरकार और समाज दोनों ही अपने-अपने पैमाने कड़ाई से लागू न कर पाएं, तो फिर उनकी सत्ता ही क्या है, क्या ख्याल है? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)  

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