(प्रतीकात्मक फोटो)
पश्चिम बंगाल की एक रिपोर्ट एक प्रमुख समाचार प्लेटफॉर्म, डाइचे वैले पर आई है जिसमें बताया गया है कि वहां तीन हजार से ज्यादा ऐसे सरकारी स्कूल चल रहे हैं जिनमें 23-24 शैक्षणिक सत्र में एक भी छात्र-छात्रा की भर्ती नहीं हुई। और इन स्कूलों में 14 हजार से अधिक शिक्षक हैं जो बिना काम तनख्वाह पाते रहे, और प्रदेश में 6 हजार से ज्यादा ऐसे स्कूल हैं जहां सिर्फ एक-एक शिक्षक हैं। देश में और राज्यों में भी आगे-पीछे इसी तरह की हालत है, बस यही कि पढ़ाई-लिखाई के लिए जाने जाने वाले बंगाल की यह बदहाली हो गई है। लोगों को याद होगा कि इस राज्य में शिक्षक भर्ती घोटाला में हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक की दखल से एक मंत्री सहित बहुत से दूसरे लोग गिरफ्तार हैं, और कोई हैरानी नहीं है कि स्कूलों की दर्ज संख्या गिरती जा रही है। वैसे स्कूलों में दर्ज संख्या के मामले में देश के बाकी राज्य भी बदहाली झेल रहे हैं, आबादी बढ़ती जा रही है, लेकिन बच्चे स्कूल नहीं पहुंच रहे हैं। देश का कानून बाल मजदूरी के खिलाफ है, इसलिए यह भी नहीं कहा जा सकता कि बच्चे पढ़ाई छोडक़र मजदूरी कर रहे हैं, लेकिन वे पढ़ाई की तरफ अधिक नहीं आ रहे हैं, यह तो एक सच्चाई है ही। दूसरी तरफ अनौपचारिक तौर पर यह पता लगता है कि बच्चे स्कूल आना बंद कर देते हैं तो भी जवाब-तलब से बचने के लिए स्कूल के शिक्षक और हेडमास्टर उनके नाम रजिस्टर से नहीं हटाते ताकि सरकार से कोई नोटिस न झेलना पड़े, और उन छात्रों के नाम से दोपहर के भोजन का खर्च, यूनिफॉर्म, और किताबें सब मिलते रहते हैं जो कि स्कूल के प्रभारी लोगों की ऊपरी कमाई हो जाती है। ऐसे में सरकार के दर्ज संख्या के आंकड़े बहुत विश्वसनीय नहीं हैं क्योंकि उन्हें बढ़ा-चढ़ाकर बताने में सबकी चमड़ी बची रहती है, और दमड़ी (पैसे) भी मिलते रहती है।
हिन्दुस्तान की हालत देखें तो आज ही सोशल मीडिया पर एक गंभीर व्यक्ति ने यह लिखा है कि हिन्दुस्तानी कामगार काम नहीं करते, नौकरी करते हैं। अब यह सोच निजी कंपनियों और संस्थाओं के कर्मचारियों के बारे में शायद सच न हो, क्योंकि वहां अधिक जवाबदेही रहती है, लेकिन सरकारी नौकरियों के बारे में तो यह सच है ही क्योंकि वहां नौकरी पाने के बाद रिटायर होने तक की एक ऐसी हिफाजत हासिल हो जाती है कि काम करें या न करें, तनख्वाह तो मिलते ही रहेगी। हम छत्तीसगढ़ में ही स्कूलों का हाल देखते हैं तो जगह-जगह मास्टर शराब पीकर पहुंचते हैं, स्कूल पहुंचकर शराब पीते हैं, स्कूल में फर्श पर पड़े रहते हैं, कुछ जगहों के वीडियो सामने आए जिनमें क्लास के बच्चों और प्रधानपाठिका के सामने बैठकर एक मास्टर दारू पीते रहा, हर दिन नशे में पहुंचने वाले एक मास्टर को स्कूल के छोटे बच्चे चप्पल मार-मारकर भगा रहे हैं, एक जगह मास्टर बंदूक लेकर प्रधानपाठिका को धमकाने पहुंच गया, एक जगह मास्टर शिक्षा विभाग की महिला अधिकारी का गला घोंटने लग गया, कोई हफ्ता ऐसी खबरों के बिना नहीं निकलता। जिन लोगों का बदअमनी का यह हाल है, वे वीडियो और खबरों से परे भी क्या पढ़ा लेते होंगे? छत्तीसगढ़ में भी राज्य छोटा होने के बावजूद सैकड़ों स्कूलें ऐसी है जहां एक-एक शिक्षक पांच-पांच क्लास पढ़ा रहे हैं, और शिक्षक संघों के दबाव में लोगों के तबादले नहीं हो पा रहे हैं।
जब देश में बुनियादी प्राथमिक शिक्षा का यह हाल है, तो इस बुनियाद पर खड़ी इमारत कैसी होगी? यहीं पर आकर दक्षिण भारत के राज्य उत्तर भारत को मीलों पीछे छोड़ देते हैं, और बाकी हिन्दी प्रदेशों को भी। स्कूल से लेकर कॉलेज तक पढ़ाई की उत्कृष्टता पर दक्षिण में जो जोर दिया जाता है, उसी का नतीजा है कि बाकी दुनिया में सबसे अधिक हिन्दुस्तानी दक्षिण भारतीय राज्यों से ही जाते हैं। हिन्दी के तो अधिकतर राज्यों के अधिकतर लोग अपने ही राज्यों में बेरोजगार होने का गौरव हासिल करते हैं क्योंकि न तो सरकार उन्हें तैयार करती, और न ही सामाजिक रूप से उनके सामने अपने सीनियर छात्र-छात्राओं की कोई अच्छी प्रेरणा देने वाली मिसाल ही रहती। जिन राज्यों में पीढिय़ों से लोगों को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मुकाबलों के लिए तैयार किया जा रहा है, वहां छात्रों की हर बैच के सामने दूसरे होनहार और कामयाब छात्र-छात्राओं की एक मिसाल रहती है, और यह मिसाल चुनौती की तरह भी रहती है। हिन्दी हिन्दुस्तान में ऐसी किसी चुनौती का दबाव नहीं रहता, और हर पीढ़ी के पास अपने से पहले की पीढ़ी के निठल्ले और बेरोजगार होने की बड़ी सहूलियत की मिसाल रहती है। हिन्दी के राज्यों से देश-विदेश में जाकर कामयाबी पाने की गिनी-चुनी कहानियां तो कोई सुना सकते हैं, लेकिन कोई संख्या नहीं बताई जा सकती, ये कहानियां उंगलियों पर गिनने जितनी ही रहती हैं।
पूरी विकसित दुनिया के सभ्य लोकतंत्र जिन दो चीजों पर सबसे अधिक गंभीरता से ध्यान देते हैं, वे प्राथमिक शिक्षा, और स्वास्थ्य हैं। भारत के जिन राज्यों में प्राथमिक शिक्षा की बुनियाद मजबूत रहती है, वहां पर लोग बड़े होने पर भी अधिक कामयाब होते हैं। लेकिन केन्द्र सरकार के किए हुए कई सर्वे बताते हैं कि छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में मिडिल स्कूल में पहुंच चुके छात्र-छात्राओं को भी अपने से तीन-चार साल छोटी क्लास का जोड़-घटाना भी नहीं आता। स्कूलों से जो बच्चे कॉलेजों में पहुंचते हैं, वे कॉलेज की पढ़ाई शुरू करने लायक नहीं रहते। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य को छत्तिसगढिय़ा सबले बढिय़ा जैसे आत्ममुग्ध नारों से मुक्ति पानी चाहिए, और हकीकत की कड़ी जमीन पर नंगे पैर खड़े होकर अपने आपको तौलना चाहिए कि राष्ट्रीय पैमानों पर दूसरे राज्यों के मुकाबले उसकी स्थिति क्या है। खदान की कमाई से खेतों को अनुदान देते चलने से हर बरस का काम तो चल रहा है, लेकिन अगर नौजवान पीढ़ी को देश के दर्जन भर विकसित राज्यों के बच्चों के मुकाबले तैयार नहीं किया जाएगा, तो दस-बीस बरस में इस राज्य की नई पीढ़ी हर किस्म के राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मुकाबले से बाहर रहेगी। जब कभी किसी दूसरे राज्य की खामियां सामने आती हैं, तो बाकी राज्यों को भी अपने आपको तौल लेना चाहिए, ऐसी समझदारी दिखाए बिना खुद ठोकर खाकर संभलने तक तो बड़ी देर हो चुकी रहती है, और बड़ा नुकसान हो चुका रहता है। छत्तीसगढ़ सरीखे हर राज्य को नारों से परे अपने आपको सचमुच ही बेहतर बनाने की जरूरत है, वरना हर बरस ये राज्य दक्षिण से कुछ और मील पीछे जाते रहेंगे। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)