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माधो सिंह : बलिदान की प्रतिमूर्ति
10-Jan-2025 3:32 PM
माधो सिंह : बलिदान की प्रतिमूर्ति

घेस के जमींदार माधो सिंह और उनके परिवार के बलिदान का वीर गठन न केवल सनसनीखेज था बल्कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक अविस्मरणीय अध्याय था। घेस के पांचवें जमींदार अर्जुन सिंह के पुत्र माधो सिंह को घेस की छोटी सी जमींदारी विरासत में मिली थी जिसमें बीस गांव शामिल थे। घेस जमींदारी, बोड़ासांभर जमींदारी का एक हिस्सा है जिसे 16वीं शताब्दी में बिनोद सिंह ने बनाया था और इसके वे पहले जमींदार थे। घेस के जमींदार बिंझाल (बिंझवार) जनजाति के थे जो विंध्य कुल के कई आदिम स्थानीय आदिवासी समूहों में से एक है। अन्य आदिवासी समूहों की तरह बिंझाल भी किसी भी कीमत पर अपनी राजनीतिक और सांस्कृतिक व्यवस्था की रक्षा करने और उसे बचाने की प्रवृत्ति रखते हैं। वे अपनी सांस्कृतिक पहचान के लिए किसी भी बाहरी सूत्र के आगमन पर ऐतिहासिक काल में एकजुट रहे।

प्राचीन काल से ही छत्तीसगढ़ और पश्चिमी ओडिशा के इस क्षेत्र में बिंझाल (बिंझवार), गोंड, कोंध, बैगा, सबरा (संवरा), ओरांव आदि अनेक मूल आदिवासी जनजातियाँ निवास करती रही हैं। इतिहास के आरंभिक काल में दुर्गम वन भूमि की इन जनजातियों ने अनेक रियासतें और राज्य व्यवस्थाएँ बनाई थीं। समय बीतने के साथ-साथ, जातिगत हिंदू प्रवासियों और उनके नेताओं के इस क्षेत्र में आने से इन जनजातियों की सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था नष्ट होने लगी और परिणामस्वरूप वे प्रवासी शासक शक्तियों के अधीन हो गए। लेकिन विजयी प्रवासी शक्तियों ने अपनी श्रेष्ठ सैन्य कुशलता और शक्ति के साथ कभी भी आदिवासी समूहों के सामाजिक-सांस्कृतिक लोकाचार को बाधित करना या उनका अनादर करना बुद्धिमानी नहीं समझा। बल्कि उन्होंने आदिवासी आस्था और विश्वासों को अपने में समाहित करके आदिवासियों को खुश करने का प्रयास किया। इस प्रकार आदिवासी देवता अपने अनुष्ठानों के साथ राजकीय दरबार में समाहित रूप में प्रवेश कर गए और उन्हें राजकीय संरक्षण प्राप्त हुआ।  आदिवासी सुरक्षित महसूस करते थे, गैर-आदिवासी जाति हिंदू शासकों के आधिपत्य में भी उनकी सांस्कृतिक विशेषताएं अपरिवर्तित रहीं और यह सदियों तक जारी रहा।

लेकिन 19वीं सदी के शुरुआती सालों में चीजें बदलने लगीं जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने 18 गढज़ात  रियासतों वाले संबलपुर राज्य को अपने अधीन कर लिया। व्यापारिक कंपनी जो भारत की राजनीतिक मालिक बन गई और उनकी मातृभूमि यानी ब्रिटेन को खिलाने के लिए हमारे देश के सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संसाधनों का दोहन करना शुरू कर दिया। इसका परिणाम 1857 के महान विद्रोह के रूप में भारतीय आक्रोश का विस्फोट था, जिसे भारतीय स्वतंत्रता के पहले युद्ध के रूप में भी जाना जाता है। इसी पृष्ठभूमि में हम संबलपुर में वीर सुरेंद्र साय और उनके साथी देशभक्तों जैसे घेस के माधो सिंह और उनके बहादुर बेटों के अलावा कई आदिवासी जमींदारों और उनके किसानों द्वारा ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रतिरोध और सशस्त्र संघर्ष की निडर भावना को देखते हैं।

जुलाई 1857 में हजारीबाग जेल से देश प्रेमी सिपाहियों द्वारा मुक्त किए जाने के बाद सुरेन्द्र साय संबलपुर पहुंचे और माधो सिंह की मदद से आदिवासी सरदारों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की रणनीति बनाई। नागपुर-रायपुर और कटक के बीच ब्रिटिश प्रशासन के लिए संचार की रेखा को काटने के लिए एक रणनीति तैयार की गई थी। जब सुरेन्द्र साय को बारापहाड़ पहाड़ी को गंधमर्दन पर्वत से जोडक़र अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध क्षेत्र बनाने की योजना में बोरसांबर जमींदार से समर्थन नहीं मिल सका तब माधोसिंह और उनके बेटे हट्टे सिंह, कुंजल सिंह, बैरी सिंह और ऐरी सिंह आगे आए और इस नेक काम के लिए उनका पूरा समर्थन और सहायता की।

माधोसिंह ने अपनी प्रजा के दिल में आजादी की भावना जगाई और केईसीपाटी, पाटकुलंदा, भेड़ेन, पदमपुर, सोनाखान के गोंड और बिंझाल जमींदारों को संगठित कर अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चा तैयार किया।  उन्होंने और उनके बहादुर बेटों ने सिंघोड़ा घाटी , निसा घाटी, शिशुपालगढ़ बरिहाडेरा, बड़पति, गुडगुडा घाटी, मानिकगढ़ और जूनागढ़ घाटी जैसे रणनीतिक पहाड़ी घाटियों की रक्षा की और ब्रिटिश सेना पर कहर ढाया। सबसे प्रसिद्ध सिंघोड़ा घाटी घेस क्षेत्र की रक्षा के लिए एक प्राकृतिक ढाल था। माधो सिंह और उनके बेटों ने इसे पूरी तरह से अपने नियंत्रण में ले लिया और नागपुर और संबलपुर के बीच सभी तरह के संपर्क काट दिए, जिसके लिए ब्रिटिश प्रशासन को अनगिनत दुर्दशा का सामना करना पड़ा। अंग्रेजों को मध्य भारत से पूर्वी भारत में प्रवेश करने से पूरी तरह से रोक दिया गया था।

ब्रिटिश प्रशासन के लिए संबलपुर में बिना किसी बाधा के जरूरी रसद और सैन्य सहायता की आपूर्ति सुनिश्चित करना अनिवार्य हो गया, जिसके लिए सिंघोड़ा घाटी का अधिग्रहण करना अत्यंत आवश्यक था। इस संबंध में ब्रिटिश सत्ता के बार-बार के प्रयासों से कोई परिणाम नहीं निकला। 26 दिसंबर, 1857 को कैप्टन वुड के नेतृत्व में रायपुर और नागपुर से ब्रिटिश सेनाओं ने सिंघोड़ा घाटी पर हमला किया। भीषण युद्ध में माधो सिंह की सेना ने कई ब्रिटिश सैनिकों को मार डाला और कैप्टन वुड गंभीर रूप से घायल होकर संबलपुर भाग गए। इस घटना से ब्रिटिश खेमे में सनसनी फैल गई। गुरिल्ला युद्ध की कला में निपुण घेस की सेना ने ब्रिटिश सेनाओं पर कहर बरपाया क्योंकि उन्हें (ब्रिटिश सेना) इस क्षेत्र की भूगोल जानकारी नहीं थी। घेस जमींदार के अभियान ने पहाड़  और घाटी के ऊपर से बड़े-बड़े पत्थर लुढक़ाकर रास्ता रोक दिया और दुश्मनों को घेरकर उन पर हमला कर दिया। कई अंग्रेज सैनिकों की जान चली गई और कैप्टन शेक्सपियर भागकर अपनी जान बचा पाए। ब्रिटिश तोपखाने की भारी गोलाबारी में हट्टे सिंह घायल हो गए। फिर भी सिंघोरा घाटी अजेय रहा।

सिंघोड़ा की लड़ाई की लड़ाई से अंग्रेज घबरा गए। माधो सिंह के साहस, कौशल और शक्ति के प्रति अंग्रेज अधिकारी आश्वस्त थे। फरवरी 1858 में कर्नल वुडब्रिज के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना ने पहाड़ श्रीगिड़ा पर घेस की सेना पर हमला करने का साहस किया, लेकिन कई ब्रिटिश सैनिकों के साथ वे स्वयं भी युद्ध में मारा गया । इस घटना ने ब्रिटिश अधिकारियों को माधो सिंह को सजा दिलाने के लिए अन्य तरीके और साधन तैयार करने के लिए मजबूर किया। संबलपुर के नए डिप्टी कमिश्नर मेजर फोर्स्टर ने जिले में आतंक का राज फैला दिया और वह माधो सिंह और उनके विद्रोही बेटों को पकडऩे के लिए दृढ़ संकल्प लिया था। बड़ी ब्रिटिश सेना और हथियारों की मदद से उसने घेस गांव पर हमला किया और उसे जला दिया। लेकिन इससे पहले ही जमींदार माधो सिंह ने अपने लोगों को गांव खाली कर जंगल में जाने का आदेश दिया था।   घेस जमींदार और उसके लोगों की प्रतिरोध की भावना मेजर फोर्स्टर को परेशान कर रही थी।

उसने जासूसों को नियुक्त करके माधो सिंह के आंदोलन के बारे में जानकारी इक_ा करने का सहारा लिया।  एक दिन जब माधो सिंह मटियामहुल नामक निकटवर्ती गांव की ओर जा रहे थे तभी गुप्तचरों से सूचना पाकर ब्रिटिश सेना ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। माधो सिंह को कड़ी सुरक्षा में संबलपुर ले जाया गया और बिना किसी सुनवाई के 31 दिसंबर 1858 को फांसी पर लटका दिया गया। इस प्रकार 72 वर्ष की आयु में राष्ट्र के एक महान शहीद का जीवन समाप्त हो गया। लेकिन उनके वीर पुत्रों हट्टे सिंह, कुंजल सिंह और बैरी सिंह ने संघर्ष को आगे बढ़ाया और इसमें अधिक वृद्धि की, जिससे ब्रिटिश ताकतों को काफी कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। कई घटनाओं के बाद हट्टे सिंह को गिरफ्तार कर निर्वासित कर (काला पानी) दिया गया, कुंजल सिंह को संबलपुर जेल में फांसी दी गई और बैरी सिंह को संबलपुर में ही आजीवन कारावास की सजा दी गई। इससे पहले अंग्रेजों ने माधो सिंह के सबसे छोटे पुत्र ऐरी सिंह को एक गुफा के अंदर धुआं भरकर मार डाला था। भारत के स्वतंत्रता संग्राम के पूरे इतिहास में माधो सिंह और उनके परिवार के सदस्यों का बलिदान एक दुर्लभ घटना है। 

डॉ. भक्त पूरन साहू, सेवानिवृत्त प्रवाचक इतिहास,

घेस कॉलेज  जिला बरगढ़।

शहीद माधो सिंह सोनाखान जमींदार शहीद वीर नारायण सिंह के ससुर थे और शहीद कुंजल सिंह शहीद वीर नारायण सिंह के पुत्र गोविंद सिंह के ससुर थे । शहीद वीर नारायण सिंह की पत्नी का नाम तुलसी और गोविंद सिंह की पत्नी का नाम पूर्णिमा था ।

आलेख संपादन घना राम साहू सह प्राध्यापक ।

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