विचार / लेख
-सतीश जायसवाल
महाराष्ट्र के लोकनृत्य ‘लावणी’ को कुलीन समाज में प्रतिष्ठा की जगह देर से मिली। इन दिनों उसका क्रेज है।‘ लावणी’ का यह क्रेज लोक मंच से निकलकर भव्य मंडपों और नृत्य समारोहों में दिखने लगा है।
‘लावणी’ को इन दिनों के ‘क्रेज’ से अलग, उसके विकास क्रम में देखने के लिए भी यह उपयुक्त समय है।
महाराष्ट्र की यह लोकनृत्य परम्परा अब अपनी क्षेत्रीय पहचान से आगे निकलकर भारतीय शास्त्रीय नृत्य परंपरा में अपनी जगह बनाने के लिए उत्सुक्त दिखती है।
‘लावणी’ के लिए ‘नौवारी’ साड़ी अनिवार्य है। एक तरह से ‘लावणी’ का एक हिस्सा। लेकिन महाराष्ट्र के एक बड़े हिस्से में यह ग्रामीण स्त्रियों का सहज पहनावा है।
इन दिनों ‘लावणी’ की तरह ही, यह ‘नौवारी’ साड़ी भी शहरी युवतियों के लिए ‘फैशन क्रेज’ होती जा रही है।भव्य समारोहों में अलग से दिखती है। लेकिन ‘नौवारी’ साड़ी पहनना आसान नहीं होता।
एक तो नौ गज की उसकी लम्बाई को सम्हालना।फिर बीच में से काष्टा मारकर दोनों पांवों को अलग अलग ढांकना। शहरी युवतियों के लिए यह बहुत आसान नहीं होता।
आज सुबह की सैर में ‘नौवारी’ साड़ी का वैभवशाली सौंदर्य अनायास ही देखने मिल गया।
गोरेगांव स्टेशन पर एक नव वधू ‘बायको’ (स्त्री) अपने परिवार के साथ अभी अभी किसी लोकल ट्रेन से उतरी।शायद अपने पति के साथ उसके गांव जा रही थी।
उसके परिवार के लोगों ने वहीं, स्टेशन से बाहर की भीड़ में दोनों की आरती उतारी और हल्दी कुमकुम का टीका भी किया।
मैं दूर पर था। लेकिन वह सब मेरे सामने था। वह एक सुखद दृश्य था।उसमें छुअन थी।
‘नौवारी’ साड़ी पहनी हुई वह नव वधू किसी गुडिय़ा की तरह सजी हुई दिख रही थी। लेकिन अपनी साड़ी में गुमी जा रही थी। कुछ ऐसे कि, साड़ी में नारी है या नारी में साड़ी है ..?’.


