-राजेश अग्रवाल
बीजापुर (बस्तर) के पत्रकार मुकेश चंद्राकर की बेरहमी से हुई हत्या के बाद इस बात पर बहस हो रही है कि पत्रकार सुरक्षा कानून जल्द से जल्द लागू किया जाए। मगर सच तो यह है कि यदि मार्च 2023 में विधानसभा में जिन प्रावधानों के साथ यह पारित किया गया, उसे आंखों में धूल झोंकने वाला कानून करार दिया जा सकता है। इस विधेयक का उद्देश्य मीडियाकर्मियों की सुरक्षा और पंजीकरण सुनिश्चित करना था, लेकिन इसकी धाराओं को करीब से देखने पर यह अधिकतर मामलों में अप्रभावी और निरर्थक है।
विधेयक की उत्पत्ति 2015 के पत्रकार आंदोलन से हुई, जब बस्तर में पत्रकारों पर बढ़ते हमलों के चलते सुरक्षा कानून की मांग उठी थी। कांग्रेस सरकार ने सत्ता में आते ही जस्टिस आफताब आलम की अध्यक्षता में एक मसौदा समिति बनाई, जिसने 2020 में एक विस्तृत और विचारशील मसौदा तैयार किया। मसौदे में मीडियाकर्मियों की सुरक्षा के लिए ठोस प्रावधान और पंजीकरण प्रक्रिया का समावेश था।
विधेयक की प्रमुख समस्याएं कुछ इस तरह से हैं- एक, विधेयक में मीडियाकर्मियों की पंजीकरण प्रक्रिया को अनावश्यक रूप से जटिल बना दिया गया है। केवल पंजीकृत मीडिया संस्थानों में काम करने वाले मीडियाकर्मियों को ही सुरक्षा का प्रावधान दिया गया है। स्वतंत्र पत्रकारों और स्ट्रिंगर्स को इस प्रक्रिया से बाहर रखा गया है, जो पत्रकारिता की जमीनी हकीकत के विपरीत है। मुकेश चंद्राकर स्वतंत्र पत्रकार थे और संभवत: वे न्यूज चैनल एनडीटीवी एमपीसीजी के लिए केवल स्ट्रिंगर थे। ऐसे सैकड़ों पत्रकार हैं, जिन्हें नियमित वेतन नहीं मिलता, कर्मचारियों के रूप में रिकॉर्ड नहीं दर्ज होता। वे अंशकालीन काम करते हैं और असाइनमेंट के अनुसार ही भुगतान किया जाता है। दूसरा, जस्टिस आफताब आलम समिति ने पंजीकरण और सुरक्षा के लिए अलग-अलग निकायों का सुझाव दिया था। लेकिन अंतिम विधेयक में सुरक्षा समिति को ही पंजीकरण का कार्य सौंपा गया है, जो एक हास्यास्पद स्थिति है। पंजीकरण की प्रक्रिया में किसी अपीलीय प्राधिकरण का प्रावधान भी नहीं है, जिससे मीडियाकर्मियों के लिए न्याय पाने का रास्ता कठिन हो जाता है। पंजीयन से मना करने पर पत्रकार समिति के खिलाफ कहीं भी शिकायत नहीं कर सकता। इसके अलावा विधेयक में यह प्रावधान है कि किसी भी शिकायत के आधार पर मीडियाकर्मी का पंजीकरण निलंबित किया जा सकता है। यह प्रावधान पत्रकारों की स्वतंत्रता को बाधित कर सकता है और उनकी सुरक्षा को कमजोर करता है।
मौजूदा शक्ल में यह स्वतंत्र पत्रकारिता को बढ़ावा देने के बजाय, मीडियाकर्मियों की सरकार पर निर्भरता बढ़ाने का काम करता है। विधेयक में उनकी सुरक्षा के लिए प्रभावी प्रावधानों की बेहद कमी है। अच्छा होगा कि सरकार यदि वास्तव में पत्रकारों की स्वतंत्र रिपोर्टिंग को संरक्षण देना चाहती है तो इसके प्रावधानों को सरल बनाए, बदलाव करे। मौजूदा कानून के जरिये तो मुकेश चंद्राकर जैसे पत्रकारों को संरक्षण मिलना तो मुश्किल दिखाई पड़ता है।