संपादकीय

‘छत्तीसगढ़’ का संपादकीय : एक नाबालिग कातिल की चर्चा आज कुछ आगे तक
05-Dec-2024 3:33 PM
‘छत्तीसगढ़’ का  संपादकीय : एक नाबालिग कातिल की चर्चा आज कुछ आगे तक

एक शादी समारोह में एक नाबालिग लडक़ा खाना परोस रहे अपने ही परिचित या दोस्त से बार-बार रसगुल्ला मांग रहा था, और न मिलने उसने समारोह के बाहर चाकू से गोदकर उसे मार डाला, और जाकर पुलिस में अपने सहयोगी-साथी के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। यह भी बताया जा रहा है कि हत्यारोपी नाबालिग और मृत बालिग के बीच पहले से कुछ झगड़ा भी चल रहा था। कुछ लोगों को यह बात हैरान कर सकती है कि महज रसगुल्ले पर बात इतनी बढ़ गई कि कत्ल हो गया। लेकिन यह समझने की जरूरत है कि झगड़े के तो बहुत से बहाने रहते हैं, रसगुल्ला नहीं रहता तो पानी हो सकता था, समोसा हो सकता था। जिसका मिजाज ही झगड़े का है, जिसने झगड़ा करना तय कर रखा है, उसने यह भी परवाह नहीं की कि दूसरे की जान गई, और वह तो जिंदगी की तकलीफों से मुक्त हो गया, लेकिन जिसने मारा है उसके तो कई बरस बाल सुधार गृह या जेल में गुजरेंगे, और आगे की जिंदगी भी तबाह सरीखी ही रहेगी। बालिग हो या नाबालिग, जिसने एक बार कत्ल कर दिया हो, उसे समाज तो दुबारा आसानी से जगह देगा नहीं। फिर ऐसे तमाम खतरों के साथ भी लोग ऐसी हिंसा पर कैसे उतारू हो जाते हैं?

छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले की इस घटना के बारे में खबरें बताती हैं कि इस हत्यारोपी लडक़े के मां-बाप का भी आपराधिक रिकॉर्ड है, और खुद यह लडक़ा भी कुछ इसी किस्म का था। जाहिर है कि जो चाकू लेकर घूमता हो, और समारोह के बाहर गली में खड़े होकर कत्ल करने के लिए राह तकता हो, वह सीधा-सरल तो होगा नहीं। अब नाबालिग लडक़ा इतनी हिंसा पाता कहां से है? और हिंसा तो पा ली, लेकिन यह जागरूकता बिल्कुल नहीं पाई कि इस हिंसा का नतीजा क्या होगा? सोच की यह हालत बहुत खतरनाक है। यह पीढ़ी लगातार तैश में, या साजिश बनाकर कई तरह के जुर्म कर रही है। हमने बहुत से नाबालिग लडक़ों को इकट्ठा होकर नाबालिग लडक़ी से गैंगरेप करते देखा है, किसी का कत्ल करते देखा है, या दूसरे किस्म के बड़े जुर्म करते हुए। आमतौर पर किसी विकसित और सभ्य समाज में जिस उम्र के लडक़ों को स्कूल-कॉलेज में व्यस्त रहना चाहिए, आगे के दाखिला इम्तिहानों की तैयारी के बाद जिनके पास वक्त नहीं बचना चाहिए, उनके पास स्कूल या कॉलेज कुछ भी नहीं हैं, वे आवारा हैं, फुटपाथी हैं, बेघर हैं, नशेड़ी हैं, और ऐसे ही किसी खतरनाक अंत की तरफ बढ़ रहे हैं। यह नाबालिग उम्र न तो परिवार से समर्थन पा रही है क्योंकि उनका खुद का मुजरिम होने का जीवन है, और न ही समाज या सरकार को यह पड़ी है कि वे ऐसे आवारा तबके को पटरी पर लाने के लिए कुछ करें। हालत यह है कि बाल सुधार गृह में एक जुर्म के बाद पहुंचने वाले बच्चे वहां से कई और किस्म के जुर्म सीखकर निकलते हैं। इसलिए सरकार और समाज का जिम्मा यह बनता है कि ऐसी खतरनाक जिंदगी जी रहे ऐसे तबके के लिए कुछ योजना बनाएं क्योंकि इनके हर जुर्म की लागत समाज और सरकार को अधिक महंगी पड़ेगी।

अब हम ऐसे नाबालिग मुजरिमों की पहली जिम्मेदारी उनके परिवारों की मानते हैं कि उन्हें अपनी औलाद को नशे में पडऩे से बचाना चाहिए, निठल्ला बैठने नहीं देना चाहिए, पढ़ाई-लिखाई, ट्रेनिंग, या किसी कामकाज से लगाना चाहिए, और यह सोचकर उन्हें अपनी छाती पर मूंग नहीं दलने चाहिए कि कम से कम वे जिंदा तो हैं, कम से कम वे आंखों के सामने तो हैं। सही राह से उतरकर उनकी ऐसी औलादें कब किसी को मार डालेंगी, या कब मर जाएंगी, इसका कोई ठिकाना तो रहता नहीं है। इसलिए औलाद का महज जिंदा रहना काफी नहीं है, उसका सही राह पर रहना भी खुद उसके लिए, और बाकी समाज के लिए जरूरी है। आज समाज में ऐसे कौन हो सकते हैं जो किसी न किसी छोटी-मोटी बहस से भी बच सकें, सडक़ पर भी चलते किसी से मामूली टक्कर हो सकती है, और अगर इनमें से कोई नाबालिग या बालिग चाकूबाज हो, तो एक मौत और दूसरे को उम्रकैद तो हो ही सकती है। इसलिए परिवारों को अपने बच्चों को संभालना आना चाहिए, और उसकी कोशिश करनी चाहिए। दूसरी बात यह समझ लेना बेहतर होगा कि बच्चे किसी के कहे नहीं सीखते, मिसालों से सीखते हैं। जिन परिवारों में मां-बाप शराबी हैं, या किसी जुर्म से जुड़े हुए हैं, उनके बच्चों के भी उसी राह पर चलने का खतरा बहुत अधिक रहता है। जहां मां-बाप शराबी रहते हैं, बच्चों के नशे में पड़ जाने का पूरा-पूरा खतरा रहता है। जहां मां-बाप सिगरेट, बीड़ी, या तम्बाकू जैसा कोई नशा करते हैं, उनके बच्चे घर से ही इसे सीखते हैं। इसलिए मां-बाप और घर के बाकी बड़ों को बच्चों के सामने अपनी मिसाल के बारे में सावधान रहना चाहिए।

हम एक बार फिर समाज और सरकार की बात पर लौटें, तो यह एक बड़ी जिम्मेदारी है कि नाबालिग लोगों के सामने जिंदगी को लेकर कोई सकारात्मक संभावना रहनी चाहिए। जब आगे की जिंदगी बेरोजगारी की गारंटी वाली हो, जब समाज की हवा में दर्जन भर किस्म की अलग-अलग नफरत का जहर तैर रहा हो, जब देश की बड़ी-बड़ी मिसालें, एक से बढक़र एक हिंसक बातें कर रही हों, तो उसका भी असर नई पीढ़ी पर हिंसक ही होता है, और उन्हें हिंसक बनाकर छोड़ता है। इसलिए देश-प्रदेश को भी अपने आपको एक स्वस्थ राज्य साबित करना होगा, ऐसा नहीं हो सकता कि बाकी तमाम पीढिय़ों के बड़े-बड़े बकवासी लगातार हिंसा के फतवे देते रहें, और उनके साफ-साफ शब्दों, या दोहरी मतलब वाली बातों का हिंसक मतलब नई पीढ़ी न निकाले। नाबालिगों को हिंसा से दूर रखना एक बहुत ही जटिल मुद्दा है, और किसी भी जटिल मुद्दे का समाधान बहुत सरल नहीं हो सकता। किसी भी गंभीर कैंसर के मरीज को इलाज के लिए कीमोथैरेपी, रेडियेशन थैरेपी, या सर्जरी की जरूरत पड़ सकती है, वही हाल किशोरावस्था के अपराधियों का भी है, जिन्हें सुधारने और बचाने का कोई आसान फॉर्मूला नहीं है। यहां इस कॉलम में इससे अधिक खुलासे की गुंजाइश भी नहीं है, लेकिन समाज को अपने आपको नई पीढ़ी के ऐसे जुर्म से बचाना है, तो उसे इस पीढ़ी के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। किसी देश-प्रदेश की तमाम पुलिस मिलकर भी पूरी नई पीढ़ी के हाथों हो सकने वाले जुर्म को नहीं रोक पाएंगी। इसके लिए उस पीढ़ी का ही ख्याल रखना पड़ेगा। चलते-चलते हम यह भी याद दिलाना चाहेंगे कि धर्म और आध्यात्म के भरोसे, प्रवचनकर्ताओं और कर्मकांडों के भरोसे कोई पीढ़ी न सुधर सकेगी, न बच सकेगी। इसके लिए सरकार, समाज, और परिवार को पूरी मेहनत करनी पड़ेगी, तभी यह नई पीढ़ी देश के सामने एक खतरनाक बोझ और खतरे के बजाय एक उत्पादक संभावना बन सकेगी। देश को अपनी नई पीढ़ी को देश के विकास में योगदान के लायक तैयार करना चाहिए, न कि जेलों के लायक। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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