म्युनिसिपल जैसी शहरी स्थानीय संस्थाओं में महापौर या अध्यक्ष का चुनाव पार्षदों के माध्यम से हो, या सीधे वोटर ही उन्हें चुनें, इसे लेकर अलग-अलग पार्टियों, और अलग-अलग नेताओं के बीच मतभेद बना रहता है। इन दोनों ही तरीकों में जानकार लोग नफा और नुकसान गिनाते रहते हैं। छत्तीसगढ़ मंत्रिमंडल ने कल यह तय किया है कि नगर निगम, नगर पालिका, और नगर पंचायत के मुखिया का चुनाव मतदाता सीधे करेंगे। पिछली कांग्रेस सरकार के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने राज्य बनने के बाद से चली आ रही व्यवस्था को बदलकर पार्षदों के मार्फत महापौर या अध्यक्ष चुनने की व्यवस्था की थी, नई भाजपा सरकार ने मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय की अध्यक्षता में कल मंत्रिमंडल में इसे पलट दिया। जब वोटर सीधे अपने शहर का प्रथम नागरिक चुनेंगे, तो यह बात जाहिर रहेगी कि पार्टी को एक लोकप्रिय उम्मीदवार मैदान में उतारना होगा। वरना अपनी पार्टी के, कुछ खरीदे हुए, और कुछ निर्दलीय, कुछ बागी पार्षदों के दम पर कोई पार्टी ऐसे भी महापौर/अध्यक्ष बना सकती हैं जो कि अपने दम पर जीतने की ताकत न रखते हों। ऐसी भी चर्चा थी कि भूपेश बघेल ने अपनी पसंद के, लेकिन जनता को कम पसंद कुछ लोगों को महापौर बनवाने के लिए सीधे निर्वाचन को खत्म किया था, और अब एक बार फिर हर वोटर बिना पार्षद सीधे अपने महापौर चुन सकेंगे।
अमरीका में राष्ट्रपति (भारत के प्रधानमंत्री की तरह के शासन प्रमुख) को जनता सीधे चुनती है, उन्हें संसद सदस्यों के मार्फत नहीं चुना जाता। इसलिए भारत में भी ऐसी व्यवस्था को राष्ट्रपति शासन प्रणाली कहते हैं। और बीच-बीच में देश में ऐसी सुगबुगाहट भी होती है कि क्या कभी कोई पार्टी अपने अपार लोकप्रिय नेता के चेहरे के दम पर देश में राष्ट्रपति शासन प्रणाली लागू करने की सोच सकती है? और क्या संविधान में ऐसी गुंजाइश निकाली जा सकती है? इंदिरा गांधी के बहुत लोकप्रिय दौर से लेकर नरेन्द्र मोदी तक कुछ मौकों पर उनकी बहुत लोकप्रियता की वजह से यह चर्चा शुरू होती थी, और फिर लस्सी के झाग की तरह बैठ जाती थी। देश में जनता सीधे प्रधानमंत्री चुने, राज्य में जनता सीधे मुख्यमंत्री चुने, तो उससे क्या नफा और क्या नुकसान हो सकता है? हम महाराष्ट्र जैसे राज्य को देखें जहां कुछ पार्टियों को दो फांक करके, और तरह-तरह के गठबंधन बनाकर, कम विधायकों वाले नेता को भी मुख्यमंत्री बना दिया गया था, या झारखंड से बड़ी मिसाल और क्या होगी जहां एक अकेले विधायक मधु कोड़ा को मुख्यमंत्री बना दिया गया था, अगर ऐसे राज्यों में राष्ट्रपति शासन प्रणाली रहती तो क्या होता? क्या भारतीय लोकतंत्र को प्रदेश और देश के स्तर पर राष्ट्रपति शासन प्रणाली की तरफ ले जाने से व्यक्तिवादी राजनीति दलीय और सैद्धांतिक राजनीति के ऊपर हावी नहीं हो जाएगी? क्या उसमें सांसदों या विधायकों की मदद के बिना प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बने लोगों के मिजाज में तानाशाही नहीं आ जाएगी? फिर अगर हम देखें तो एक प्रणाली के रूप में जो देश या प्रदेश के लिए सही नहीं है, वह शहर के लिए कैसे सही हो सकती है? किन तर्कों के आधार पर हो सकती है?
लेकिन हम सैद्धांतिक रूप से महापौर/अध्यक्ष को सीधे चुनने के खिलाफ भी नहीं हैं। उसे देश-प्रदेश की मिसाल से परे अगर देखें, तो यह समझ पड़ता है कि सीधे निर्वाचित मुखिया पार्षदों की ब्लैकमेलिंग या सौदेबाजी से ऊपर रहेंगे, और सीधे निर्वाचित नेता को हटाना भी उतना आसान नहीं रहेगा। कुछ लोगों का मानना है कि मतदाता के वोट से सीधे चुने जाने वाले मुखिया अधिक मनमानी करेंगे, और पार्षदों के काबू के बाहर के रहेंगे। लोगों के चेहरों के बारे में सोचे बिना ऐसा विश्लेषण आसान नहीं है। लोगों का यह भी मानना है कि स्थानीय निकायों के काम का दायरा, और काम की प्रकृति, ये दोनों राज्य या केन्द्र शासन से बिल्कुल अलग किस्म के रहते हैं, और स्थानीय जरूरतों को पूरा करने के लिए मेयर सीधे बनना बेहतर होता है। हमारा ख्याल है कि पार्टी की नीतियों और स्थानीय शासन की जरूरतों के बजाय अधिक बड़ा तर्क यह रहता है कि किस पार्टी के पास लोकप्रिय चेहरे अधिक हैं। जिन लोगों को अपनी लोकप्रियता पर भरोसा अधिक होगा, वे लोग ऐसे फैसले के हिमायती होंगे। यह बात कुछ हद तक सही लगती है कि बहुत छोटे-छोटे वार्ड होने से कुछ दर्जन वोटों से भी जीत-हार होती है, और अलग-अलग तरह के विधायकों में जोड़तोड़ करके, खरीद-फरोख्त की ताकत रखने वाले किसी माफिया के मेयर-अध्यक्ष बन जाने से बेहतर यह है कि एक-एक वोटर के वोट से शहर के प्रथम नागरिक चुने जाएं।
कुछ अधिक निराशा के नजरिए से अगर भारत के किसी भी चुनाव को देखें तो लगता है कि अब चुनाव लोकतांत्रिक मूल्यों पर, लोकप्रियता या पार्टी के नीति-कार्यक्रम पर कम जीते जाते हैं, वोटरों को सीधे फायदे पहुंचाने के पार्टी के वायदों, या रेवडिय़ों से अधिक जीते जाते हैं। यह बात हर चुनाव पर लागू होती है। इसके साथ-साथ प्रदेश या देश स्तर के चुनावों में जाति और साम्प्रदायिकता के मुद्दे लगातार हावी होते जा रहे हैं। फिर मानो यह भी अधिक न हो, वोटरों को शराब या नगदी से खरीदना भी बढ़ते चले जा रहा है। फिर किसी जाति या धर्म के वोटरों को वोट डालने से रोकने के लिए चुनाव के एक दिन पहले उन्हें भुगतान करके उनकी उंगलियों पर स्याही लगा देने जैसी बातें भी हो रही हैं। या उत्तरप्रदेश के ताजा उपचुनावों को देखें, तो जगह-जगह जिस तरह पुलिस मुस्लिम वोटरों को भगाते और वापिस भेजते दिखी है, उसके बाद उन नतीजों को क्या कहा जाए? इस तरह कुल मिलाकर इतने सारे अलोकतांत्रिक पहलू भारत के चुनावों पर हावी होने लगे हैं कि कोई भी चुनाव अपने आपमें पाखंड लगने लगे हैं। ऐसे में अब छत्तीसगढ़ में म्युनिसिपल चुनाव में शहर के मुखिया को सीधे चुनने से क्या नफा, क्या नुकसान होगा, नेताओं और पार्टियों को क्या-क्या सहूलियतें और दिक्कतें होंगी, यह तो हर चुनाव का तजुर्बा ही साबित कर सकता है। क्या ऐसा भी हो सकता है कि करोड़ों खर्च करने की ताकत रखने वाले व्यक्ति को ही उम्मीदवार बनाना पार्टी का एक पैमाना हो सकता है? क्या अब चुनावों में सिर्फ ऐसे ही धन-बल वाले नेताओं की गुंजाइश रह जाएगी? या फिर शहर में माफिया अंदाज में कारोबार करने वाले लोग उन्हें हिफाजत देने वाले नेताओं को जिताने के लिए करोड़ों खर्च करेंगे? और क्या आज भी माफिया कारोबारी अपने कारोबार के वार्डों में पार्षदों को जिताने के लिए दसियों लाख खर्च नहीं करते होंगे? शहरी निकायों के चुनावों को जितनी बारीकी से देखें, उतना ही अधिक यह लगता है कि ये चुनाव भ्रष्ट व्यवस्था के साये तले होते हैं, और भ्रष्ट व्यवस्था जारी रखने के लिए भी। लेकिन क्या किसी भी तरह का भ्रष्टाचार लोकतंत्र में निर्वाचित सरकार की व्यवस्था को खारिज करने का तर्क हो सकता है? ऐसे कई सवाल चुनाव व्यवस्था पर चर्चा के दौरान दिल-दिमाग में उठते हैं, जैसे कि अभी शहर-मुखिया के सीधे निर्वाचन के फैसले से उठ रहे हैं। वोटरों को भी ऐसी संभावनाओं और आशंकाओं के बीच अपनी बेहतर पसंद के बारे में सोचना चाहिए कि सीमित संभावनाओं के बीच कम बुरा विकल्प क्या रहेगा?