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कांग्रेस राज्यों का चुनाव क्यों हार रही है, कहां हो रही है चूक?
29-Nov-2024 3:38 PM
कांग्रेस राज्यों का चुनाव क्यों हार रही है, कहां हो रही है चूक?

-दीपक मंडल

इसी साल हुए लोकसभा चुनाव में विपक्षी दल जब बीजेपी को अकेले दम पर बहुमत हासिल करने से रोकने में कामयाब रहे थे तो संभवत: सबसे ज़्यादा खुश कांग्रेस पार्टी हुई थी।

साल 2014 के लोकसभा चुनावों में 44 और और 2019 के लोकसभा चुनावों 52 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस को इस साल के लोकसभा चुनावों में 99 सीटों पर जीत मिलीं तो कई राजनीतिक विश्लेषकों और विशेषज्ञों ने इसे कांग्रेस की वापसी माना।

कांग्रेस ने संविधान, आरक्षण, महंगाई और बेरोजगारी जैसे मुद्दों को उठाकर लोकसभा चुनावों में बीजेपी और एनडीए को दबाव में लाने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल कर ली थी।

लेकिन लोकसभा चुनावों में बेहतर प्रदर्शन के बाद कांग्रेस एक बार फिर से राज्यों के लिए हो रहे विधानसभा चुनावों में बुरी हार का सामना कर रही है। जहाँ कांग्रेस के सहयोगी दल जीत रहे हैं, वहाँ भी कांग्रेस का प्रदर्शन अच्छा नहीं दिखा है।

जून 2024 में लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के चंद महीने बाद ही हरियाणा में विधानसभा चुनाव होने थे और कांग्रेस के ‘जोश’ और ‘जज़्बे’ से ऐसा लग रहा था को वो ये चुनाव जीत लेगी।

राहुल गांधी संसद के बाहर और भीतर दोनों जगह, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी पर पूरी तरह हमलावर थे।

लेकिन कांग्रेस को हरियाणा में हार का सामना करना पड़ा। कांग्रेस के साथ यही किस्सा अब राजनीतिक तौर पर देश के दूसरे बड़े अहम राज्य महाराष्ट्र में भी दोहराया गया।

झारखंड में पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा की अगुआई वाले गठबंधन में शामिल थी और वो 2019 में जीती 16 सीटों में एक भी सीट का इज़ाफा नहीं कर पाई।

इससे पहले, जम्मू-कश्मीर के विधानसभा चुनाव में भी कांग्रेस बुरी तरह नाकाम रही।

कांग्रेस 90 में से छह सीटें ही जीत पाईं और नेशनल कॉन्फ्रेंस की जूनियर पार्टनर बन कर किसी तरह अपनी नाक बचा पाई।

सवाल ये है कि लोकसभा चुनाव के नतीजों से उत्साहित दिख रही कांग्रेस इसके बाद एक भी राज्य का चुनाव क्यों नहीं जीत पाई। आखिर उसकी रणनीति में कहां खामी है और वो बार-बार कहां चूक रही है?

इस सवाल का जवाब जानने के लिए हमने कई राजनीतिक विश्लेषकों और पत्रकारों से बात की।

आइए समझते हैं हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना क्यों करना पड़ा।

महाराष्ट्र

महाराष्ट्र में बीजेपी, शिवसेना (एकनाथ शिंदे) और अजित पवार की एनसीपी मिल कर महायुति गठबंधन के तहत चुनाव लड़ रही थीं।

बीजेपी 149, शिवसेना (शिंदे) 81 और अजित पवार की एनसीपी 59 सीटों पर लड़ रही थीं।

विपक्ष की ओर से महाविकास अघाड़ी यानी शिवसेना (उद्धव) 95, कांग्रेस 101 और एनसीपी (शरद पवार) 86 सीटों पर लड़ी थी।

महाराष्ट्र के चुनावों को लेकर ज्यादातर एग्जि़ट पोल्स बीजेपी की अगुआई वाली महायुति की बढ़त तो दिखा रहे थे, लेकिन कुछ एग्जिट पोल्स महाविकास अघाड़ी को भी टक्कर देते हुए दिखा रहे थे।

लेकिन महायुति गठबंधन ने 288 में से 235 सीटों पर जीत हासिल की और उसका वोट शेयर रहा 49.6 फीसदी। वहीं विपक्षी महाविकास अघाड़ी को सिर्फ 35.3 फीसदी वोट मिले और इसे महज 49 सीटों से संतोष करना पड़ा है।

जो महाराष्ट्र एक दशक पहले तक कांग्रेस का गढ़ माना जाता था वहां उसे मात्र 16 सीटें मिली हैं।

आखिर महाराष्ट्र में कांग्रेस ने क्या गलती की कि उसका चुनावी प्रदर्शन इतना खराब रहा।

हमने ये सवाल पिछले कई सालों से कांग्रेस की राजनीति पर नजऱ रखने वाले विशेषज्ञ पत्रकार रशीद किदवई से पूछा।

उन्होंने कहा, ‘लोकतंत्र में पार्टियां चुनाव अपने कार्यकर्ताओं और संगठन के दमखम पर लड़तीं हैं। लेकिन अब चुनावी रणनीतिकारों की बन आई है। वो चुनाव स्ट्रैटेजी तय करते हैं, मुद्दे तय करते हैं और टिकट बांटने में भी अहम भूमिका निभाते हैं। आजकल कांग्रेस में ये कल्चर ज्यादा हावी है। हाल के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस चुनाव रणनीतिकारों पर निर्भर रही है। हरियाणा में भी यही हुआ था और महाराष्ट्र में भी यही दिखा।’

किदवई इसकी मिसाल देते हैं। वो कहते हैं, ‘कांग्रेस हरियाणा की तरह महाराष्ट्र में भी अपने चुनावी रणनीतिकार सुनील कानुगोलू पर काफी ज्यादा निर्भर रही। कांग्रेस ने हरियाणा में हार से कोई सबक नहीं लिया, जहां गलत उम्मीदवारों को टिकट देने की शिकायतें की गई थीं।''

‘यहां तक कि एक मीटिंग में जब एक पार्टी नेता ने कानुगोलू के आकलन पर सवाल उठाया था तो राहुल गांधी ने उनका मज़ाक उड़ाया था। यहां तक कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खडग़े को भी टिकट बांटने की कवायद से अलग रखा गया।''

रशीद किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस की दूसरी गलती ये थी कि उसने सीएम चेहरा नहीं दिया। उद्धव ठाकरे महाविकास अघाड़ी का सीएम चेहरा था और कांग्रेस ने कभी इसका विरोध नहीं किया। राहुल गांधी हमेशा कांग्रेस कार्यकर्ताओं से ये कहते रहे कि कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी को बलिदान देना सीखना चाहिए। दूसरी ओर राज्य में पार्टी के बड़े नेता आपस में लड़ते रहे।’

महाराष्ट्र में महाविकास अघाड़ी के नेताओं में भी विरोधाभास दिखा।

किदवई कहते हैं, ‘कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले और एनसीपी (शरद पवार) प्रमुख शरद पवार अलग-अलग सुर में बोलते रहे। जबकि,इस दौरान राहुल और खडग़े ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। बीजेपी के पास 'एक हैं सेफ़ हैं' जैसा नारा था जो इसकी स्ट्रैटेजी बता रहा था। लेकिन कांग्रेस अपनी रणनीति को समेटने वाला कोई मजबूत नारा सामने नहीं रख सकी।’

‘बीजेपी ने अपना चुनाव पूरी तरह पार्टी और आरएसएस के संगठन के बूते जीता। इस चुनाव में आरएसएस के चुनाव प्रबंधन ने अहम भूमिका निभाई। बीजेपी भी चुनावी रणनीतिकारों की मदद लेती है, लेकिन वो संगठन या पार्टी पर उसे हावी नहीं होने नहीं देती।’

उन्होंने कहा, ‘बीजेपी ने महाराष्ट्र चुनाव पूरी तरह स्थानीय मुद्दों पर लड़ा। बीजेपी ने राज्य में हिंदू मतदाताओं के रुझान का ख्याल रखा। इसी के हिसाब से नारे गढ़े। लाडकी बहिन जैसी लाभार्थी योजना, आरक्षण के सवालों और महाराष्ट्र के किसानों के मुद्दों के इर्द-गिर्द अपनी रणनीति बनाई।’

विश्लेषकों का कहना है कि कांग्रेस महाराष्ट्र से जुड़े स्थानीय मुद्दों को उठाने में नाकाम रही। कांग्रेस नेता राहुल गांधी महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में भी लोकसभा चुनाव के नारे- संविधान बचाओ और जाति जनगणना के मुद्दे दोहराते रहे। यहां तक कि कांग्रेस राज्य में आरक्षण के सवाल पर मराठा और ओबीसी के अंतर्विरोध का भी फायदा नहीं उठा पाई।

यहां तक कि वो आरक्षण के अंदर आरक्षण के मुद्दे पर भी अपनी राय मतदाताओं के सामने नहीं रख सकी। सिफऱ् वो संविधान में आरक्षण को लेकर किए गए प्रावधानों को दोहराती रही।

इसी तरह की गलतियों की वजह से विदर्भ में कांग्रेस का करारी हार का सामना करना पड़ा जहां लोकसभा में कांग्रेस गठबंधन ने दस में से सात सीटें जीती थीं।

रशीद किदवई कहते हैं कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनावों के मुद्दे अलग-अलग होते हैं। लेकिन कांग्रेस महाराष्ट्र में मजबूत स्थानीय मुद्दे खड़े नहीं कर पाई। इसका खमियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़ा।

वरिष्ठ पत्रकार अदिति फडणीस का मानना है कि कांग्रेस मतदाताओं में अपने वादों के प्रति विश्वास नहीं जगा सकी।

उन्होंंने बीबीसी हिंदी से कहा, ‘महाराष्ट्र सरकार ने ‘लाडकी बहिन’ योजना के जरिये पैसा पहुंचाकर ये सुनिश्चित किया कि उसके वादे में दम है। इस वजह से महिला वोटरों ने बड़ी तादाद में ‘महायुति’ के पक्ष में वोट दिया। कांग्रेस ने भी महिलाओं तक पैसे पहुंचाने का वादा किया। लेकिन सत्ता में ना होने की वजह से वो डिलीवरी के मामले में बीजेपी का मुक़ाबला नहीं कर सकती थी। कुल मिलाकर ये कहा जा सकता है कि कांग्रेस मतदाताओं में अपने वादों के प्रति भरोसा नहीं जगा सकी।’

अदिति फडणीस का ये भी कहना है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव की रणनीति अलग होती है। कांग्रेस राज्यों के मुताबिक रणनीति नहीं तैयार नहीं कर पाई।

 हरियाणा में भी कांग्रेस की रणनीति में ये कमजोरी दिखी और महाराष्ट्र में भी।

झारखंड

झारखंड में कांग्रेस और झारखंड मुक्ति मोर्चा ने मिलकर 70 सीटों पर चुनाव लड़ा था। राज्य में 81 सीटें हैं। झारखंड में झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 34 सीटें जीती हैं।

कांग्रेस ने सिर्फ 16 सीटें हासिल की हैं। गठबंधन में शामिल आरजेडी को चार और सीपीआई (माले) को दो सीटें मिली हैं।

यहां भी ज्यादातर एग्जिट पोल बीजेपी गठबंधन के सत्ता में आने का दावा कर रहे थे। बीजेपी ने यहां असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा और मध्य प्रदेश के पूर्व सीएम शिवराज सिंह चौहान के नेतृत्व में चुनावी रणनीति को सिरे चढ़ाने के लिए पूरी ताकत झोंक दी थी।

बीजेपी ने इस बार झारखंड में ‘बांग्लादेशी घुसपैठियों’ का भी मुद्दा उठाया लेकिन झारखंड में हेमंत सोरेन ने ‘आदिवासी बनाम बाहरी’ का मुद्दा चलाया और स्थानीय लोगों ने इस मुद्दे पर झामुमो और ‘इंडिया’ गठबंधन की पार्टियों का साथ दिया। कांग्रेस के हिस्से 16 सीटें आईं।

कांग्रेस ने पिछली बार इतनी ही सीटें जीती थीं। आखिर वो अपनी सीटों में इजाफा क्यों नहीं कर पाई।

इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस पूरे भारत में जो गलती कर रही है वही उसने झारखंड में भी की। मुद्दे पहचानने और उन्हें ज़मीन पर लाने में वो नाकाम रही। कांग्रेस की दूसरी बड़ी कमजोरी रही मजबूत केंद्रीय नेतृत्व का अभाव।’

वो कहते हैं, ‘मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, हरियाणा में क्षत्रपों की चली। उन्होंने अपनी मर्जी से टिकट बांटे। महाराष्ट्र की तरह झारखंड में कांग्रेस के नेता लड़ते रहे। पूरा फोकस चुनाव जीतने पर न होने से कांग्रेस को नुक़सान उठाना पड़ा।’

कहा जा रहा है कि कांग्रेस ने राज्य में आदिवासी नेतृत्व को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की इसका भी खमियाजा पार्टी को भुगतना पड़ा।

शरद गुप्ता भी इस राय से इत्तेफाक रखते हैं। वो कहते हैं, ‘झारखंड में कांग्रेस ने आदिवासी नेतृत्व बनाने की कभी कोशिश नहीं की। बीजेपी ने ये काम किया और उसने आदिवासी मुख्यमंत्री भी बनाए। अर्जुन मुंडा और बाबूलाल मरांडी जैसे नेता बीजेपी ने ही दिए। लेकिन कांग्रेस ने अभी तक इस ओर ध्यान नहीं दिया है।’

विश्लेषकों का कहना है कि ज्यादातर जगह कांग्रेस अब अपने मजबूती सहयोगियों की पीठ पर लदकर काम चला रही है। ये उसके भविष्य के लिए ठीक नहीं है।

शरद गुप्ता कहते हैं, ‘बिहार में आरजेडी, तमिलनाडु में डीएमके, जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस। हर जगह कांग्रेस अपने मजबूत सहयोगियों के बूते सीटें जीतने में कामयाब रही है। ओडिशा में कांग्रेस का वजूद खत्म हो चुका है। एक वक़्त में पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस का दबदबा था, लेकिन अब वहां बीजेपी छाई हुई है। जबकि इन राज्यों की डेमोग्राफी कांग्रेस के पक्ष में हैं, लेकिन सरकारें बीजेपी की है।’

शरद गुप्ता कहते हैं, ‘कांग्रेस मुद्दे नहीं तय कर पा रही है। बीजेपी हर राज्य के हिसाब से मुद्दे तय करती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हर सीट के हिसाब के मुद्दों के हिसाब से बोलते हैं। वहां के इतिहास, भूगोल, राजनीतिक परिस्थितियां सबको ध्यान में रख कर बोलते हैं। लेकिन कांग्रेस इसके हिसाब से मुद्दे और रणनीति तय नहीं कर पाती।’

शरद गुप्ता कहते हैं कि मुद्दों के लिहाज से केंद्रीय नेतृत्व के थिंकटैंक में स्पष्टता न होना और इन्हें ज़मीन पर न उतार पाना कांग्रेस की सबसे बड़ी कमजोरी बन कर उभरी है। कांग्रेस इन कमजोरियों को दूर किए बिना राज्यों के चुनाव जीतने की उम्मीद छोड़ दे।

हरियाणा

2024 के अक्टूबर महीने में हरियाणा के विधानसभा चुनाव हुए। बीजेपी ने यहां सत्ता विरोधी लहर, किसान और पहलवान आंदोलन के बावजूद जीत हासिल की और लगातार तीसरी बार सत्ता हासिल करने में कामयाब रही।

हरियाणा चुनाव के नतीजों से पहले लगभग सभी एग्जिट पोल्स कांग्रेस को जीतते हुए दिखा रहे थे, लेकिन बीजेपी ने इन्हें गलत साबित करते हुए बड़े आराम से बहुमत के आंकड़े को पार करते हुए 48 सीटों पर जीत हासिल की ।

हरियाणा में विधानसभा की 90 सीटें हैं। बीजेपी को 39.9 प्रतिशत वोट मिले, जो कि पिछले विधानसभा चुनाव (2019) की तुलना में 3.5 फीसदी ज़्यादा हैं। बीजेपी को पिछली बार से आठ सीटें ज़्यादा हासिल हुईं।

कांग्रेस सिर्फ 37 सीट ही जीत सकी। हालांकि ये पिछले विधानसभा चुनावों से छह ज़्यादा है।

सीटों के लिहाज से कांग्रेस कहां चूक गई। आखऱि उससे कहां गलती हुई?

इस सवाल के जवाब में वरिष्ठ पत्रकार हेमंत अत्री कहते हैं, ‘हरियाणा के चुनाव को कांग्रेस ने हल्के में लिया। जबकि ज़मीन पर जबरदस्त बीजेपी (सत्ता) विरोधी लहर थी। यहां कांग्रेस के हारने की दूसरी बड़ी वजह थी पार्टी की अंदरूनी लड़ाई। इसका कुछ नुक़सान होता या नहीं, लेकिन इसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तक ने रेखांकित किया। उन्होंने पार्टी नेता सैलजा के कथित अपमान का जिक्र किया।’

हेमंत कहते हैं, ‘बीजेपी ने राज्य की ‘फॉल्टलाइन’ जाट बनाम गैर जाट के मुद्दे का भी बखूबी फ़ायदा उठाया। कांग्रेस में भी हुड्डा बनाम सैलजा की ‘लड़ाई’ का भी बीजेपी ने फ़ायदा उठाया। बीजेपी ने सीट दर सीट रणनीति तय की। उसने चुनाव जीतने लिए हर तरह के दांव खेले। जबकि कांग्रेस अति आत्मविश्वास की शिकार होकर रह गई।’

हेमंत अत्री कहते हैं कि कांग्रेस को जिस राज्य में अपनी अपनी स्थिति मजबूत दिखाई देती हो उसे वो हल्के में लेना शुरू कर देती है और फिर वहां वो रणनीतिक गलतियां शुरू कर देती है। चाहे वो अंदरूनी झगड़े का मामला हो या कैंडिडेट के चुनाव में गलतियां। कांग्रेस के अंदर बहुत जल्दी गुटबाजी शुरू हो जाती है।

वो कहते हैं, ‘बीजेपी ने जिस उम्मीदवार को टिकट दे दिया वह पूरी पार्टी का उम्मीदवार होता है। लेकिन कांग्रेस में उम्मीदवार किसी एक गुट का कैंडिडेट होकर रह जाता है। फिर कांग्रेस का दूसरा गुट ही उसे हराने में लग जाता है। हरियाणा का चुनाव इसका उदाहरण था।’

वहीं, अदिति फडणीस कहती हैं कि हरियाणा में कांग्रेस अपने अंदरुनी झगड़ों की वजह से नुकसान में रही। कांग्रेस को पार्टी के अंदर इस प्रवृति रोकना होगा। वरना उसे आगे भी नुकसान उठाना पड़ सकता है।’ (bbc.com/hindi)

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