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(अहमद नोमान)
नयी दिल्ली, 10 नवंबर। मुस्लिम धर्म गुरुओं ने कहा है कि यह सही है कि मदरसों में धार्मिक शिक्षा पर ज्यादा तवज्जो होती है, ताकि इनसे निकलने वाले छात्र मस्जिदों में नमाज पढ़ा सकें और अपने भाषणों के माध्यम से समुदाय को इस्लामी शिक्षा दे सकें, लेकिन इन शिक्षण संस्थानों में उन्हें सामयिक विषयों के साथ-साथ हिंदी, संस्कृत और अंग्रेजी समेत छह भाषाओं का भी ज्ञान दिया जाता है और कंप्यूटर कोर्स भी कराए जाते हैं।
उत्तर प्रदेश के मदरसा अधिनियम-2004 को निरस्त करने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने वाले ‘ऑल इंडिया टीचर्स एसोसिएशन ऑफ मदारिस अरबिया’ के उपाध्यक्ष एमएम तारीक शम्सी ने कहा कि जब किसी डॉक्टर से यह उम्मीद नहीं की जाती है कि वह इंजीनियर भी बने, तो धार्मिक शिक्षण संस्थानों से निकले छात्रों से भी यह आशा नहीं की जानी चाहिए कि वह डॉक्टर या इंजीनियर बने।
हालांकि, उन्होंने कहा कि मदरसे के छात्र अगर मौलवियत (दसवीं कक्षा के समकक्ष) और आलिमियत (12वीं कक्षा के समकक्ष) के बाद आगे धार्मिक शिक्षा लेना नहीं चाहते हैं, तो उनके लिए आधुनिक शिक्षा हासिल करने के रास्ते खुले होते हैं।
शीर्ष न्यायालय ने हाल में उत्तर प्रदेश के मदरसा अधिनियम-2004 की संवैधानिक वैधता को बहाल कर दिया।
जमात-ए इस्लामी हिंदी के ‘मरकजी तालीमी बोर्ड’ के सचिव सैयद तनवीर अहमद ने भी शम्सी की बात को दोहराई। उन्होंने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा कि अगर मदरसे में पढ़ने वाला शख्स धार्मिक कार्यों को पेशे के रूप में नहीं अपनाना चाहता है, तो वह विश्वविद्यालयों से आधुनिक शिक्षा हासिल कर मुख्यधारा में आ जाता है।
अहमद ने कहा कि मदरसे के बहुत से पूर्व छात्र दूतावासों समेत कई क्षेत्रों में अपनी सेवाएं दे रहे हैं।
शम्सी ने इटावा से फोन पर ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा कि कई केंद्रीय और राज्य विश्वविद्यालय मौलवियत और आलिमियत को क्रमश: 10वीं तथा 12वीं कक्षा के समान मानते हैं। उन्होंने कहा कि धार्मिक शिक्षण संस्थानों से इन पाठ्यक्रमों को पूरा करने के बाद कई छात्र विश्वविद्यालयों में अपनी पसंद के विषयों में दाखिला लेते हैं।
शम्सी के मुताबिक, मदरसों में कुल मुस्लिम बच्चों में से दो से तीन फीसदी ही आते हैं और उनमें से ज्यादातर छात्र कमजोर एवं गरीब वर्ग के परिवारों से ताल्लुक रखते हैं, जिन्हें इन शिक्षण संस्थानों में मुफ्त पढ़ाई, निवास और खान-पान की सुविधा मिलती है।
उन्होंने बताया कि मदरसों में आर्थिक रूप से संपन्न परिवारों के तीन से पांच फीसदी बच्चे ही पढ़ते हैं और यही वजह है कि विश्वविद्यालयों और कॉलेज में इन धार्मिक शिक्षण संस्थानों से निकले छात्रों की संख्या बेहद कम होती है।
मदरसों के प्रकार के बारे में पूछे जाने पर शम्सी ने कहा कि मदरसे मुख्यत: दो तरह के होते हैं-‘दरसे निजामी’ और ‘दरसे आलिया।’
उन्होंने बताया कि ‘दरसे निजामी’ गैर-पंजीकृत और ‘दरसे आलिया’ मदरसा बोर्ड से मान्यता प्राप्त होते हैं।
शम्सी के अनुसार, ‘दरसे आलिया’ देश के आठ राज्यों-उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल और राजस्थान में संचालित किए जा रहे हैं, जिनका पाठ्यक्रम मदरसा बोर्ड तय करता है और सरकार की मंजूरी से इसे लागू किया जाता है।
उन्होंने कहा कि दोनों तरह के मदरसों में उर्दू, अरबी, फारसी, कुरान, धर्मशास्त्र, गणित, हिंदी-संस्कृत, अंग्रेजी, सामाजिक विज्ञान और विज्ञान जैसे विषय पढ़ाए जाते हैं।
मान्यता प्राप्त मदरसों को सरकारी मदद मिलने के सवाल पर शम्सी ने कहा कि सरकार से कोई सहायता नहीं मिलती है, लेकिन उत्तर प्रदेश में मान्यता प्राप्त 15 हजार मदरसों में से 560 मदरसों के शिक्षकों की तनख्वाह सरकार देती है।
उन्होंने मदरसा छात्रों को व्यावसायिक प्रशिक्षण के सवाल पर कहा कि उत्तर प्रदेश में 2004 में मिनी आईटीआई पहल शुरू की गई थी और 140 मदरसों में यह योजना लागू की गई थी, जिसे चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ाया जाना था, लेकिन इसके बाद कुछ नहीं हुआ।
शम्सी के मुताबिक, बहुत से मदरसों ने अपने संसाधनों से बच्चों के लिए कंप्यूटर कोर्स शुरू किए हैं, जिनके तहत उन्हें अहम सॉफ्टवेयर की जानकारी दी जा रही है।
उन्होंने बताया कि मदरसों का खर्च चंदा इकट्ठा कर पूरा किया जाता है और रमजान में मदरसे बड़े पैमाने पर जकात (चंदा) जुटाते हैं।
वहीं, मरकजी तालीमी बोर्ड के सचिव सैयद तनवीर अहमद ने कहा कि मदरसा शब्द स्कूल के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला उर्दू शब्द है, लेकिन इन संस्थानों को लेकर कई तरह की गलतफहमिया हैं।
उन्होंने कहा, “पहले मदरसों में सारे समसामयिक विषय पढ़ाए जाते थे। अगर आप मदरसों का इतिहास देखेंगे, तो पाएंगे कि वहां कृषि, चिकित्सा, ब्रह्मांड विज्ञान जैसे विषय पढ़ाए जाते थे। मगर ब्रिटिश राज में जब अंग्रेजों ने अपनी शिक्षा व्यवस्था लागू की, तो मदरसों की फंडिग बंद कर दी गई। इससे मदरसों की संख्या घट गई और उन्होंने अपने आपको धार्मिक शिक्षा तक सीमित कर लिया।”
अहमद ने ‘पीटीआई-भाषा’ से कहा, “हालांकि, अब बहुत सारे मदरसों ने खुद को बदला है और उनमें विज्ञान, गणित, सामान्य ज्ञान और ‘साइंटिफिक टैंपरमेंट’ जैसे समसमायिक विषय पढ़ाए जा रहे हैं, लेकिन उनका जोर धार्मिक शिक्षा पर ही रहता है।”
मीडिया रिपोर्ट के अनुसार, केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के यूडीआईएसई डेटा से पता चलता है कि देश में 19,965 मान्यता प्राप्त मदरसे और 4,037 गैर-मान्यता प्राप्त मदरसे हैं। वहीं, संसद में पूछे गए एक प्रश्न के उत्तर में जानकारी दी गई थी कि मान्यता प्राप्त मदरसों में 26,93,588 और गैर-मान्यता प्राप्त मदरसों में 5,40,744 छात्र पढ़ते हैं। (भाषा)