संपादकीय
सन् 2000 में बने तीन नए राज्यों में से अकेला छत्तीसगढ़ लगातार राजनीतिक स्थिरता के साथ आगे बढ़ते चल रहा है। उस वक्त साथ बने दो राज्यों में से एक, उत्तराखंड की संभावनाएं एक पहाड़ी राज्य होने की वजह से बड़ी सीमित थीं। लेकिन झारखंड छत्तीसगढ़ की तरह का ही एक खनिज राज्य था, आदिवासी बहुल भी था, नक्सल प्रभावित भी था, लेकिन राजनीतिक अस्थिरता के चलते वह लगातार परेशानियों और समस्याओं से घिरा रहा। दूसरी तरफ छत्तीसगढ़ में हर सरकार ने, हर मुख्यमंत्री ने अपना कार्यकाल पूरा किया, किसी भी तरह की राजनीतिक अस्थिरता नहीं रही, और राज्य ने विकास की संभावनाओं को कुछ हद तक हासिल भी किया। अब जब राज्य निर्माण का 25वां साल शुरू हो रहा है, तो इसे चलाने वाले लोगों को एक गंभीर आत्ममंथन भी करना चाहिए, और एक नई कल्पनाशीलता भी दिखानी चाहिए।
छत्तीसगढ़ खनिजों से भरपूर राज्य होने के नाते लोहा, कोयला, और सीमेंट से बहुत बड़ी कमाई करता है। इन खनिजों से चलने वाले कारखाने राज्य को बहुत बड़ी रायल्टी और टैक्स देते हैं। लेकिन राज्य की बड़ी कमाई खदानों और कारखानों तक सीमित रह जाती है। छत्तीसगढ़ की पहचान देश में धान के कटोरे की शक्ल में हमेशा से बनी हुई है, लेकिन धान के खेत जितना धन उगाते हैं, उससे बहुत अधिक धन राज्य सरकार से ले लेते हैं। धान खरीदी पर सब्सिडी इतनी अधिक है कि खदानों से निकली दौलत का एक बड़ा हिस्सा धान-किसानों तक सीधे चले जाता है, और इनसे खरीदा गया धान बाजार इसलिए पा रहा है कि केंद्र सरकार की गरीबों को बिना भुगतान राशन देने की योजना चल रही है, और उसके लिए छत्तीसगढ़ का पूरा चावल ले लिया जा रहा है। अगर यह कल्पना करें कि केंद्र सरकार एक दशक पहले की तरह छत्तीसगढ़ में उत्पादित चावल का कुछ हिस्सा ही खरीदने लगे, तो छत्तीसगढ़ के पास इतने चावल को खपाने का कोई बाजार भी नहीं रहेगा। इसलिए छत्तीसगढ़ में किसान और खेतिहर मजदूर की धान से जुड़ी संपन्नता को केंद्र की राज्य से सौ फीसदी खरीदी, और राज्य की किसानों को अभूतपूर्व और ऐतिहासिक सब्सिडी पर टिकी हुई है। यह खुले बाजार की अर्थव्यवस्था से आई हुई संपन्नता नहीं है, इसलिए इसे छत्तीसगढ़ की कृषि अर्थव्यवस्था की कमाई मानना गलत होगा। यह जरूर है कि प्रदेश की आधी से अधिक कृषि-आधारित आबादी केंद्र और राज्य की चावल और धान नीतियों की वजह से, इन नीतियों के चलने तक संपन्नता का सुख पा रही है। लेकिन राज्य सरकार को अर्थशास्त्र के सिद्धांतों के तहत इस स्थिति का बारीक विश्लेषण करना चाहिए, और धान की अर्थव्यवस्था का एक बेहतर विकल्प भी सोचना चाहिए।
अब हम खनिजों से आती कमाई को देखें, तो इसके इस्तेमाल के बावजूद राज्य की नौजवान पीढ़ी को बाकी देश और पूरी दुनिया में जाकर काम करने लायक बनाने का कोई काम इस राज्य में हो नहीं पाया है। सरकार के सारे प्रशिक्षण केंद्र मिलकर भी लोगों को केंद्र और राज्य सरकार की नौकरियों के लायक ही बना पा रहे हैं। पूरे छत्तीसगढ़ में राज्य की इस चौथाई सदी में भी कामकाजी लोगों और नौजवानों की क्षमता और दक्षता में ऐसा कोई वैल्यू एडिशन नहीं हो पाया है कि वे दूसरी जगहों पर जाकर काम कर सकें, खुद की जिंदगी बेहतर बना सकें, और गृह राज्य की अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकें। पूरा दक्षिण भारत, महाराष्ट्र, पंजाब, और कुछ हद तक गुजरात भी अपने लोगों को बाकी देशों में जाने लायक बना पाते हैं, और वहां कामकाज करके लोग अपने घर कमाई भेजते हैं जिससे कि उनके भारत के राज्य संपन्न होते हैं। अभी पिछले ही पखवाड़े आंध्र के मुख्यमंत्री एन चंद्रबाबू नायडू ने लोगों से अपील की है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें क्योंकि राज्य के नौजवान और कामगार बाकी देश और पूरी दुनिया में काम करने चले गए हैं, और आंध्र के बहुत से गांव-कस्बों में सिर्फ बूढ़ी आबादी रह गई है। जब कोई राज्य अपने लोगोंं को इस काबिल बनाते हैं कि वे अंतरराष्ट्रीय मोर्चों पर काम करने लायक हो सकें, तब उनमें इतना गर्व करने का हक रहता है कि वे अधिक बच्चे पैदा करें। छत्तीसगढ़ का हमारा जो अंदाज है वह इस प्रदेश के बाहर जाने वाले लोगों को र्ईंट-भट्ठों पर काम करते देखने का है, या कहीं सडक़ निर्माण और कहीं ईमारत निर्माण में मजदूरी करने का। इस प्रदेश की अब तक की पिछली पांच सरकारों ने मिलकर भी छत्तिसगढिय़ा की क्षमता को बाहर मजदूरी करने से अधिक कुछ बनाया हो, वह हमें याद नहीं पड़ता। बस बीच-बीच में, हर महीने-दो-महीने में ऐसी खबरें आती हैं कि दूसरे प्रदेशों में बंधुआ बनाए गए छत्तीसगढ़ी मजदूरों को छुड़वाने के लिए इस राज्य से पुलिस और श्रम विभाग के लोग जाते हैं, और छुड़ाकर लाते हैं।
दरअसल खदान और धान के बीच में संतुष्ट होकर बैठ गए इस प्रदेश ने अपने इंसानों की क्षमता को टटोलने की जहमत उठाना भी बंद कर दिया है। राज्य में मजदूरी मिलने को ही बेरोजगारी से मुक्ति मान लिया गया है, लेकिन क्या कोई राज्य अपने लोगों को महज मजदूर के दर्जे तक पहुंचाकर गर्व पा सकता है? बेरोजगारी के अभिशाप से मुक्त हो जाने को काफी मान लेना बहुत ही तंगनजरिए की बात होगी, राज्य और उसके लोगों की महत्वाकांक्षाएं बहुत अधिक होनी चाहिए। छत्तीसगढ़ की सरहद से लगे हुए आंध्र और तेलंगाना के हर गांव-कस्बे के सैकड़ों और हजारों लोग अगर पश्चिमी देशों में खासी मोटी कमाई करते हैं, तो कुछ किलोमीटर दूर का छत्तीसगढ़ी ईंट-भट्ठों पर ठेका-मजदूरी करने के लायक ही क्यों होना चाहिए?
हमारा मानना है कि कुदरत की दी हुई खनिज संपदा, खेतों की फसल, और जंगलों के वनोपज से ऊपर जाकर इंसानों की क्षमता को भी छत्तीसगढ़ को देखना चाहिए। इस राज्य को अपनी अर्थव्यवस्था के परंपरागत और जमे-जमाए ढांचे के बाहर निकलकर वैश्विक संभावनाओं को तलाशना चाहिए, वरना यह कुदरत की मेहरबानियों के आगे खुद कुछ नहीं कर पाएगा। आज भी इस बात को समझने की जरूरत है कि इस धरती के कोयले से बनने वाली बिजली, और यहां के लौह अयस्क से बनने वाले फौलाद के आगे के कारखाने इस प्रदेश में बड़े सीमित हैं। यहां बनने वाले बिजली और लोहे को कच्चे माल की तरह इस्तेमाल करके जब दूसरे प्रदेशों में असली कमाई के कारखाने चल सकते हैं, तो यहां क्यों नहीं चल सकते? यह प्रदेश बिल्कुल बुनियादी कच्चा माल बनाकर ही कब तक संतुष्ट रहेगा? राज्य सरकार को यह भी देखना चाहिए कि उसकी बिजली, और उसके लोहे में कैसा-कैसा मूल्य-संवर्धन किया जा सकता है, जिससे कि कमाई कई गुना बढ़ सके।
यह राज्य 25वें साल में दाखिल हुआ है, और यह वक्त अगली चौथाई सदी के बारे में सोचने का है। सरकार को अपने नियमित ढांचे से परे भी ऐसे दूरदृष्टि वाले लोगों से राय लेनी चाहिए जो कि चुनावी-सीमाओं के बंदी न हों। इस राज्य को अंतरराष्ट्रीय मुकाबले की तरफ बढऩे की महत्वाकांक्षा रखनी चाहिए, और यह कोशिश करनी चाहिए कि 2050 में छत्तिसगढिय़ा हक के साथ अपने-आपको सबले बढिय़ा कह सके। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)