संपादकीय
कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या ने एक नवंबर को कर्नाटक राज्य के स्थापना दिवस समारोह में यह घोषणा की कि राज्य में बनने वाले हर सामान पर लेबल में अब कन्नड़ में भी सूचना रहेगी। अभी तक वहां अंग्रेजी में ही लेबल का चलन था, और सरकार के इस नए आदेश के बाद अंग्रेजी न जानने वाले कन्नड़भाषियों को भी सारी जानकारी समझ आ सकेगी। उन्होंने इस मौके पर कन्नड़ भाषा के गौरव के लिए कुछ और बातें भी कहीं। उन्होंने भाषा के दो हजार बरस से अधिक पुराने इतिहास पर गर्व करने का आव्हान किया, और कहा कि बातचीत में भी कन्नड़ भाषा का उपयोग करना चाहिए। उन्होंने कहा कि हमें गैरकन्नड़ लोगों को कन्नड़ सिखाने की कोशिश करनी चाहिए। सीएम ने कहा कि वे अन्य भाषाओं को सीखने का विरोध नहीं करते, लेकिन यह कन्नड़ भाषा की कीमत पर नहीं होना चाहिए।
लोगों को याद होगा कि दक्षिण के कुछ राज्यों में भाषा विवाद का बड़ा लंबा इतिहास है। जब कभी उत्तर भारत की लीडरशिप वाली केन्द्र सरकार दक्षिण भारत या खासकर तमिलनाडु को हिन्दी भाषा को लेकर किसी भी तरह परेशान करती है, तो वहां इसका जमकर विरोध होता है। हिन्दी अपने वर्तमान रूप में दक्षिण की कई भाषाओं के मुकाबले नई भाषा है, और दक्षिण के तमाम राज्य अपनी क्षेत्रीय भाषाओं, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम को इतना समृद्ध बना चुके हैं कि उनकी स्कूल-कॉलेज की अधिकतर पढ़ाई अगर वे चाहें तो अपनी क्षेत्रीय भाषा में कर सकते हैं। ऐसा ही हाल महाराष्ट्र, बंगाल, और कुछ दूसरे अहिन्दीभाषी प्रदेशों का भी है जिन्होंने अपनी भाषा की किताबों को इतना समृद्ध और संपन्न बना दिया है कि वे हिन्दी के बिना अपना पूरा ही काम चला लेते हैं, और जरूरत के मुताबिक अंग्रेजी का इस्तेमाल इस हद तक करते हैं कि यहां के नौजवान बाकी दुनिया में भी जाकर काम करने लायक हो जाते हैं। यही वजह है कि अपनी क्षेत्रीय भाषा, और अंग्रेजी से परे उन्हें हिन्दी की जरूरत नहीं रहती है, और जब कभी केन्द्र सरकार की कोशिशों से हिन्दी थोपी जाती है तो इन राज्यों में बड़ा विरोध होता है।
लेकिन अभी सवाल यह उठता है कि कर्नाटक में राज्य सरकार को अचानक यह क्यों सूझा? इसके पीछे की वजह समझने के लिए हमें भारत के प्रदेशों, पूरे देश, और बाकी दुनिया के इतिहास को समझने की जरूरत है जिनमें जगह-जगह पर राजनीतिक ताकतें किसी तात्कालिक समस्या से जूझने के लिए धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, और कुछ अन्य किस्म के भावनात्मक मुद्दों का झंडा उठा लेती हैं। कुछ संगठन या नेता अपने अस्तित्व को बचाने के लिए, या कि किसी चुनाव को जीतने के लिए, या पार्टी के भीतर प्रतिद्वंद्वी से निपटने के लिए राष्ट्रवाद या स्थानीय संस्कृति, या धर्म के खतरे में होने जैसा नारा लगाने लगते हैं। कुछ नेता या संगठन ऐसी किसी समस्या से परे अपना समर्थन बढ़ाने के लिए भी ऐसा करते हैं। लोगों का मानना है कि इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू भ्रष्टाचार के जितने मामलों से घिरे हुए हैं, और उनका राजनीतिक कॅरियर जिस गहरे खतरे में है, उसे देखते हुए उन्हें आज देश का ध्यान फिलीस्तीन, लेबनान, और ईरान की तरफ भटकाना जरूरी लग रहा है क्योंकि जब देश को जंग में झोंक दिया जाता है, तो जनता शासक के साथ खड़ी हो जाती है, और शासक पर मंडराते खतरे के बादल कुछ वक्त के लिए छंट जाते हैं। अब कर्नाटक में मुख्यमंत्री सिद्धारमैय्या पर भ्रष्टाचार के कुछ मामले चल रहे हैं जिनमें जाहिर तौर पर राज्यपाल की मंजूरी तो मिल ही जानी थी, हाईकोर्ट ने भी राज्यपाल के फैसले को जायज ठहरा दिया है। इस मामले में दम कितना है यह तो आगे जाकर अदालत में साबित होगा, लेकिन वे तब तक के लिए एक राजनीतिक विवाद में तो घिर ही गए हैं। फिर अभी उनके जो उपमुख्यमंत्री डी.के.शिवकुमार कई वजहों से शांत बैठे हैं, उनकी महत्वाकांक्षाएं भी ऐसे में खुलकर सामने आ सकती हैं। इसलिए आज अगर ऐसे में सीएम सिद्धारमैय्या कर्नाटक की क्षेत्रीय कन्नड़ अस्मिता को हवा देने के लिए सामानों पर लेबल कन्नड़ में भी अनिवार्य कर रहे हैं, तो यह बात समझ आती है। वैसे ऐसी किसी नीयत से परे भी यह कोई बुरा फैसला नहीं है कि सामानों पर जानकारी क्षेत्रीय भाषा में भी हो। दक्षिण भारत के कई राज्यों से उत्तर भारत में भी आकर बिकने वाली आयुर्वेदिक दवाइयों पर तीन-तीन भाषाओं में लेबल रहते हैं जो कि ग्राहकों की सहूलियत के लिए रहते हैं।
अब हम कर्नाटक से बाहर निकलें, और दूसरे प्रदेशों की बात करें, तो जो राज्य समझदार हैं, वे स्थानीय लोगों को समझ आने वाली भाषा के अलावा बाहर से आने वाले लोगों को समझ आने वाली भाषा में भी सार्वजनिक सूचनाओं को लिखते हैं। छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में यह देखकर हैरानी होती है कि यहां जगहों के नाम वाले बोर्ड सिर्फ हिन्दी में रहते हैं, और बोर्ड की खाली जगह पर, सारे जहां से अच्छा, किस्म की लाईनें लिखी रहती हैं। देश की गौरवगाथा को उन जगहों पर लिखा जा रहा है जहां उनकी जगह पर जगहों के नाम हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी लिखे जा सकते थे, और गैरहिन्दीभाषी लोगों को सहूलियत हो सकती थी। जो सरकारें पर्यटन को बढ़ावा देने की बात करती हैं, उनमें से भी कुछ सरकारों को सार्वजनिक सूचनाओं और जगहों के नाम को अंग्रेजी में भी लिखना नहीं सूझता, जो कि भारत के भीतर भी एक संपर्क भाषा है, और भारत के बाहर भी।
हम कर्नाटक की राजनीतिक मजबूरियों से परे सिर्फ भाषा की बात करें, तो देश भर में सामानों के नाम और उन पर जरूरी सूचनाएं अंग्रेजी के अलावा कम से कम एक क्षेत्रीय भाषा, या संपर्क भाषा हिन्दी में भी होनी चाहिए। भाषा को राजनीतिक हथियार और आत्मरक्षा की ढाल बनाए बिना भी भाषा को आम सहूलियत का औजार बनाए रखना चाहिए, और किसी भी इलाके को भाषाओं को लेकर लचीला रहना चाहिए, जब, जहां, जैसी जरूरत हो, वैसा इस्तेमाल खुले दिल से करना चाहिए। न किसी भाषा से परहेज करना चाहिए, और न किसी भाषा को थोपना चाहिए। जिन लोगों को अपनी भाषा से मोहब्बत की नुमाइश करनी होती है, उन्हें यह बात समझ लेना चाहिए कि भाषा अपने आपमें सिर्फ एक औजार है, और जनता में जब तक फतवेबाजी से उसे लेकर मोहब्बत या नफरत नहीं फैलाई जाती, तब तक हर भाषा महफूज भी रहती है। यह तो उसके राजनीतिक हथियारीकरण से वह खतरनाक बनती है। किसी भाषा को हथियार बनाने के पहले उस भाषा में साहित्य और ज्ञान, तकनीकी जानकारी और शिक्षा, साथ ही उस भाषा से रोजगार और कारोबार की बढ़ती संभावनाओं की गारंटी भी करना चाहिए, वरना भाषाई फतवे अपने ही लोगों को गड्ढे में डालने वाले भी साबित होते हैं। आज यह खबर तो कर्नाटक की है, लेकिन देश के बाकी राज्यों को भी अपनी भाषा नीति, और अपनी भाषा की हकीकत इन दोनों के बारे में सोचना-विचारना चाहिए। (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)