संपादकीय
झारखंड और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों को लेकर एक बार फिर राजनीतिक दलों की लिस्टें आ रही हैं। दोनों ही राज्यों में कांग्रेस और भाजपा के अलावा क्षेत्रीय पार्टियां भी मैदान में हैं, और कहीं सीटों का बंटवारा है, तो कहीं गठबंधन। इसलिए उम्मीदवारों के नाम किस पार्टी के कितने हैं, यह थोड़ा जटिल मुद्दा है। लेकिन जो मुद्दा एकदम साफ है वह यह कि किसी पार्टी को महिलाओं को उनका हक देने की कोई फिक्र नहीं है। अलग-अलग खबरें बताती हैं कि किसने महिलाओं को कितनी टिकटें दी है। झारखंड में अब तक घोषित डेढ़ सौ नामों में से कुल 17 फीसदी महिलाएं हैं, और इनमें ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के झारखंड में अब तक कुल 8 उम्मीदवार हैं, और इनमें एक चौथाई महिलाएं हैं। बड़ी पार्टियों में 66 नामों वाली भाजपा ने कुल 18 फीसदी महिलाओं को टिकट दी है। झारखंड मुक्ति मोर्चा ने 12 फीसदी, और कांग्रेस ने सीटें कम रहते हुए भी करीब एक चौथाई, 24 फीसदी महिलाओं को टिकटें दी हैं। लेकिन तमाम महिला उम्मीदवारों को देखें तो आधे से अधिक ऐसी हैं जो कि किसी न किसी नेता के परिवार की हैं, यानी उन्हें अपने दम पर, महज अपनी वजह से टिकट का हकदार नहीं माना गया है, और परिवार के पुरूषों का दम-खम लगने के बाद उन्हें टिकट मिली है। अब महाराष्ट्र पर एक नजर डालें तो वहां विदर्भ के इलाके का चुनावी रिकॉर्ड बताता है कि 1962 के चुनाव से लेकर अब तक वहां कुल चार फीसदी महिला उम्मीदवार रही हैं। ये आंकड़े विदर्भ की 13 विधानसभा सीटों के हैं। दूसरी जगहों पर भी कमोबेश इसी तरह का हाल है।
लोगों को याद होगा कि कुछ बरस पहले जब 2022 में उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनाव हुए तब कांग्रेस पार्टी ने वहां की चुनाव प्रभारी प्रियंका गांधी की अगुवाई में 40 फीसदी सीटों पर महिलाओं को टिकटें देने की घोषणा की थीं, और दी भी थीं। लेकिन बाद के चुनावों में किसी भी राज्य में इस आंकड़े को नहीं दोहराया गया, मानो उन प्रदेशों में लडक़ी हूं, लड़ सकती हूं, का नारा लागू नहीं होता था। उत्तरप्रदेश, जहां पर कि यह जाहिर था कि कांग्रेस का कोई भविष्य नहीं है, वहां पर तो कांग्रेस ने महिलाओं को बड़ी संख्या में टिकटें दे दीं। उसे अंदाज था कि वह आधा दर्जन का आंकड़ा पार नहीं कर सकेगी, और ऐसे में उसने महिलाओं के लिए दरियादिली दिखाई थी। लेकिन हम अलग-अलग राज्यों के आंकड़ों पर बात न करें, तो भी एक बात साफ है कि लोकसभा के आम चुनावों के पहले पिछली संसद में ही मोदी सरकार ने लंबे समय से पड़ा हुआ महिला आरक्षण विधेयक पास करवाया था। उसके साथ दिक्कत यह थी कि उस पर अमल के पहले जनगणना, और सीटों के डी-लिमिटेशन की शर्तें जोड़ दी गई थीं। इसलिए यह माना जा रहा था कि यह जल्द से जल्द भी 2029 के आम चुनाव में लागू हो पाएगा। हालांकि इस विधेयक पर चर्चा करते हुए कांग्रेस के राहुल गांधी ने सरकार से अपील की थी कि इसे अगले ही दिन से लागू कर दिया जाए, ताकि आने वाले आम चुनाव में महिलाओं को उनका हक मिल सके। लेकिन सरकार ने वह राय नहीं सुनी, और अब महिला आरक्षण लागू भी है, लेकिन उस पर बरसों तक अमल नहीं हो सकता।
हम इसी जगह बार-बार लिखते आ रहे थे कि राजनीतिक दलों के सामने बिना महिला आरक्षण कानून के भी यह विकल्प तो मौजूद था ही कि वे अपनी मर्जी से एक तिहाई या उससे अधिक सीटों पर महिला उम्मीदवार खड़ी करें। लेकिन किसी पार्टी ने यह नहीं किया। और जो पार्टियां इस पर कुछ हद तक अमल कर भी रही हैं, वे भी नेताओं के परिवारों की महिलाओं को आगे बढ़ाकर उसी को महिलाओं को आगे बढ़ाना साबित कर रही हैं। यह बात याद रखने की है कि छत्तीसगढ़ में पंचायतों में महिलाओं को 50 फीसदी आरक्षण दिया जा रहा है, और यह 33 फीसदी शुरू होकर 50 फीसदी किया जा चुका है। जब पंचायत स्तर पर भी अलग-अलग जातियों की महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, तब यह बात अटपटी है कि विधानसभा और लोकसभा के स्तर पर पार्टियां महिला उम्मीदवार न मिलने का रोना रोया जाए। जब ओबीसी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, जैसे तबकों की महिला उम्मीदवार मिल जाती हैं, तो विधायक और सांसद बनने के लिए तो महिलाएं इनके बीच से भी मिल सकती हैं। लेकिन राजनीतिक दलों पर ठीक भारतीय समाज की तरह मर्दों का दबदबा इतना अधिक है कि वे महिलाओं को आगे बढऩे नहीं देते, बराबरी का हक नहीं देते, न संगठन के पदों पर, और न ही चुनाव-उम्मीदवारी में।
लेकिन इसी माहौल के बीच अब यह एक बड़ी अजीब सी नौबत है कि पंजाब, दिल्ली, महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, जैसे तकरीबन तमाम राज्यों में जहां-जहां अब चुनाव हो रहे हैं, वहां-वहां महिलाओं के खातों में पैसे सीधे भेजने की योजनाएं अनिवार्य रूप से लागू हो रही हैं, और हर पार्टी के घोषणा पत्र में यह सबसे बड़ा मुद्दा भी है। महिला एक वोटर की शक्ल में राजनीतिक दलों को अच्छी लगती है, लेकिन एक सांसद और विधायक के रूप में उसे इज्जत देना पार्टियों को नहीं सुहाता है। यह नौबत देखकर भारतीय समाज की एक दूसरी स्थिति याद पड़ती है कि महिला पत्थर या मिट्टी की मूरत के रूप में तो पूजा के लायक मानी जाती है, साल में दो-दो बार नौ-नौ दिन उसकी पूजा होती है, लेकिन असल जिंदगी में वह लात-घूंसे, प्रताडऩा, और टोनही करार देकर मार डालने के लायक मानी जाती है, कदम-कदम पर तीन-चार बरस की बच्चियों से लेकर 60-70 बरस की बुजुर्ग महिलाओं को बलात्कार का सामान मान लिया जाता है। जो समाज देवी की पूजा का पाखंड करता है, वह जीती-जागती देवियों के साथ सबसे परले दर्जे का जुल्म करता है, हर किस्म की हिंसा करता है। मिजाज का यह पाखंड चुनावों में भी काम आता है जहां राजनीतिक दलों को महिला, वोटर की शक्ल में नोट देने लायक लगती है, लेकिन उम्मीदवार की शक्ल में वह टिकट देने लायक नहीं लगतीं।
भारतीय समाज के पुरूषों, और खासकर राजनीतिक दलों से यह पूछा जाना चाहिए कि वे महिला आरक्षण विधेयक पास हो जाने के बाद भी खुद होकर उस पैमाने पर महिलाओं को टिकट क्यों नहीं देते हैं? क्यों वे इंतजार करते हैं कि जिस दिन यह कानून लागू होगा उसी दिन से महिला को उसका हक दिया जाएगा? (क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)