विचार / लेख

शक्ति-पूजा का अर्थ
07-Oct-2021 4:11 PM
शक्ति-पूजा का अर्थ

ध्रुव गुप्त

प्राचीन काल से ही हिन्दू धर्म तीन मुख्य सम्प्रदायों में बंटा रहा है-विष्णु का उपासक वैष्णव, शिव का उपासक शैव और शक्ति का उपासक शाक्त संप्रदाय। दुनिया के सभी दूसरे धर्मों की तरह वैष्णव और शैव  संप्रदाय जहां सृष्टि की सर्वोच्च शक्ति पुरुष को मानते हैं, शाक्तों की दृष्टि में सृष्टि  की सर्वोच्च शक्ति स्त्री शक्ति है। देवी को ईश्वर के रूप में पूजने वाला शाक्त धर्म दुनिया का संभवत: एकमात्र धर्म है। 

स्त्री-शक्ति की आराधना की शुरुआत कब और कैसे हुई, इस विषय पर इतिहासकारों में मतभेद है। ज्यादातर लोग शक्ति पूजा की परंपरा की शुरुआत इतिहास के गुप्त काल से मानते हैं जब ‘देवी महात्मय’ नाम के ग्रंथ की रचना हुई थी। दसवीं से बारहवीं सदी के बीच ‘देवी भागवत पुराण’ की रचना के बाद शाक्त परंपरा उत्कर्ष पर पहुंची थी। सच यह है कि स्त्री-शक्ति की पूजा की जड़ें  प्रागैतिहासिक काल में ही मौजूद हैं।  सिंधु-सरस्वती घाटी की सभ्यता में मातृदेवी की उपासना का प्रचलन था। खुदाई में उस काल की देवी की कई मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। ऋग्वेद के दसवें मंडल में भी वाक्शक्ति की प्रशंसा में एक देवीसूक्त मिलता है, जिसमें वाक्शक्ति कहती है : मैं ही समस्त जगत की अधीश्वरी  तथा देवताओं में प्रधान हूं। मैं सभी भूतों में  स्थित हूं। देवगण जो भी कार्य करते हैं वह मेरे लिये ही करते हैं। वेदों की  कई अन्य ऋचाओं में अदिति का मातृशक्ति के रूप में वर्णन है जो माता, पिता,  देवगण, पंचजन, भूत, भविष्य सब कुछ हैं। कालांतर में शक्ति पूजा की इस प्राचीन परंपरा के साथ असंख्य मिथक और कर्मकांड जुड़ते चले गए।

योगियों की शक्ति उपासना की पद्धति थोड़ी अलग है। वे शक्ति का अस्तित्व किसी दूसरी दुनिया या आयाम में नहीं, मानव शरीर के भीतर ही मानते हैं। रीढ़ की हड्डी के सबसे निचले हिस्से में कुंडलिनी शक्ति के रूप में। विभिन्न यौगिक क्रियाओं और ध्यान के माध्यम से इस शक्ति की ऊध्र्व यात्रा शुरू कराई जाती है। जब यह शक्ति शरीर के छह चक्रों का भेदन करती हुई मस्तिष्क में स्थित सातवें चक्र में पहुंच जाती है तो योगी को असीम शक्ति और परमानंद की अनुभूति होती है।

मित्रों को स्त्री-शक्ति की उपासना के नौ-दिवसीय आयोजन नवरात्रि की शुभकामनाएं, इस आशा के साथ कि स्त्री-शक्ति की पूजा की यह गौरवशाली परंपरा स्त्रियों के प्रति सम्मान के अपने मूल उद्देश्य से भटककर महज कर्मकांड बनकर न रह जाए !

 

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