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गोलमेज का पार्श्व, जब गांधीजी से मिले चार्ली चैप्लिन
02-Oct-2021 2:31 PM
गोलमेज का पार्श्व, जब गांधीजी से मिले चार्ली चैप्लिन

-ओम थानवी

ऊपर दिए गए कवर-फ़ोटो को ध्यान से देखिए।  लंदन की घटना है जब ‘डिक्टेटर’ चैप्लिन मिले थे महात्मा से। उस घड़ी की तसवीर, उस खिडक़ी से जहां से गांधीजी की प्रतीक्षा कर रहे चार्ली चैप्लिन नीचे का कोलाहल सुन यह दृश्य निहारने उठ खड़े हुए।

भारत तो भारत, इंग्लैंड में भी गांधीजी की प्रतिष्ठा का आलम यह था!

अफ्ऱीका से भारत लौट आने के बाद गांधी केवल एक बार विदेश यात्रा पर गए: 1931 में गोलमेज़ वार्ता में शरीक होने। वार्ता तो विफल रही, लेकिन अंगरेज़ों का दिल उन्होंने बहुत जीत लिया।

लंदन में गांधीजी किसी ऊँचे होटल में नहीं रुके, पूर्वी लंदन के पिछड़े इलाके में सामुदायिक किंग्सली हॉल (अब गांधी फाउंडेशन) के एक छोटे-से कमरे में ठहरे। ज़मीन पर बिस्तर लगाया। लंदन की ठंड में भी अपनी वेशभूषा वही रखी- सूती अधधोती, बेतरतीब दुशाला, चप्पल। वे कोई तीन महीने वहां रहे।

यह तस्वीर तभी की है। चार्ली चैप्लिन हॉलीवुड में चरम प्रसिद्धि बटोर कर अपने वतन लौट आए थे। वे राजनेताओं से राजनीति की चर्चा में रुचि लेने लगे थे। अपनी फि़ल्म ‘सिटी लाइट्स’ के प्रीमियर के लिए वे लंदन में ही थे।

किसी ने चैप्लिन को सुझाया कि गांधीजी से मिलना चाहिए। उन्होंने गांधीजी को पोस्टकार्ड लिख दिया।

गांधीजी जब लंदन में अपनी डाक पढ़ रहे थे, तब उनकी मेज़बान मुरिएल लेस्टर ने उन्हें चैप्लिन के बारे में विस्तार से बताया। यह भी कहा कि राजनीति में आपका और कला की दुनिया में चैप्लिन का रास्ता जुदा नहीं। गांधीजी ने मुलाकात की मंजूरी दे दी।

चैप्लिन को कैनिंग टाउन में डॉक्टर चुन्नीलाल कतियाल के यहां 22 सितंबर, 1931 की शाम का वक़्त दिया गया, जहाँ उस रोज गांधीजी को जाना था।
गांधीजी से मुलाकात का दिलचस्प जि़क्र चैप्लिन ने अपनी आत्मकथा में विस्तार से किया है; नेहरू और इंदिरा गांधी के प्रवास का भी।

गांधीजी से मिलने को चैप्लिन कुछ पहले (या शायद अंगरेज़ी क़ायदे के मुताबिक़ ठीक वक़्त पर) पहुंच चुके थे। चैप्लिन के अपने शब्दों में- ‘अंतत: जब वे (गांधी) पहुंचे और अपने पहनावे की तहें संभालते हुए टैक्सी से उतरे तो स्वागत में भारी जयकारे गूंज उठे। उस छोटी तंग गऱीब बस्ती (स्लम) में क्या अजब दृश्य था जब एक बाहरी शख़्स एक छोटे-से घर में जन-समुदाय के जय-घोष के बीच दाखिल हो रहा था।’

डॉ. कतियाल की बैठक में चैप्लिन को घेर बैठी एक युवती को एक दबंग महिला (संभवत: सरोजिनी नायडू) ने डपट कर चुप कराया, ‘क्या अब आप इनको गांधीजी से बात करने देंगी?’ कमरे में ‘सन्नाटा’ छा गया। गांधीजी चैप्लिन की ओर देख रहे थे।

चैप्लिन लिखते हैं कि गांधीजी से तो मैं उम्मीद नहीं कर सकता था कि वे मेरी किसी फि़ल्म पर बात शुरू करेंगे और कहेंगे कि बड़ा मज़ा  आया; ‘मुझे नहीं लगता था कि उन्होंने कभी कोई फि़ल्म देखी भी होगी।’

सो चैप्लिन ने अपना ‘गला साफ़ किया’ और कहा कि मैं स्वाधीनता के लिए भारत के संघर्ष के साथ हूं, पर आप मशीनों के ख़िलाफ़ क्यों हैं, उनसे तो दासता से मुक्ति मिलती है, काम जल्दी होता है और मनुष्य सुखी रहता है?

गांधीजी ने मुस्कुराते हुए शांत स्वर में उन्हें अहिंसा से लेकर आज़ादी के संघर्ष का सार पेश कर दिया। गांधीजी ने कहा- आप ठीक कहते हैं, मगर हमें पहले अंगरेज़ी राज से मुक्ति चाहिए।

गांधीजी ने आगे कहा कि मशीनों ने हमें अंगरेज़ों का ज़्यादा ग़ुलाम बनाया है। इसलिए हम स्वदेशी और स्व-राज की बात करते हैं। हमें अपनी जीवन-शैली बचानी है।

अपनी बात का गांधीजी ने और खुलासा यों किया — हमारी आबोहवा ही आपसे बिलकुल जुदा है। ठंडे मुल्क में आपको अलग कि़स्म के उद्योग और अर्थव्यवस्था की ज़रूरत है: खाना खाने के लिए आपको छुरी-कांटे आदि उपकरणों की ज़रूरत पड़ती है, सो आपने इसका उद्योग खड़ा कर लिया। पर हमारा काम तो उंगलियों से चल जाता है। हमें अनावश्यक चीज़ों से भी आज़ादी दरकार है।

चर्चा में चैप्लिन आज़ादी को लेकर गांधीजी की अनूठी दलीलों, उनके विवेक, क़ानून की समझ, राजनीतिक दृष्टि, यथार्थवादी नज़रिए और अटल संकल्पशक्ति से अभिभूत हो गए।

पर तब चैप्लिन सहसा हैरान रह गए जब गांधीजी ने एक मुक़ाम पर कहा कि माफ़ कीजिए, हमारी प्रार्थना का वक़्त हो गया। हालाँकि उन्होंने चैप्लिन को विनय से यह भी कहा कि आप चाहें तो यहां रुक सकते हैं। चैप्लिन रुक गए।

चैप्लिन ने सोफ़े पर बैठे-बैठे देखा: गांधीजी और पांच अन्य भारतीय जन ज़मीन पर पालथी मार कर बैठ गए और रघुपतिराघव राजा-राम, पतित-पावन सीता-राम; वैष्णव जन तो तेने कहिये, जे पीर पराई जाणे रे समवेत स्वर में गाने लगे।

चैप्लिन को विचार-सम्पन्न गांधीजी के ‘गान-वान’ में इस तरह मशगूल हो जाने में अजीब ‘विरोधाभास’ अनुभव हुआ। उन्हें लगा कि महात्मा में उन्होंने जो ‘राजनीतिक यथार्थ की विलक्षण सूझ’ देखी थी, वह इस समूह-गान में मानो तिरोहित हो गई।

मगर क्या सचमुच? शायद यही वह सांस्कृतिक भेद था जिसे क्या चैप्लिन, क्या अंगरेज़, गांधीजी अंत तक इसकी समझ और प्रेरणा हम भारतवासियों तक को देते रहे!
(साथ की तस्वीर में बीच में बैठे हैं चार्ली चैप्लिन और गांधीजी। सबसे दाएँ सरोजिनी नायडू। आलेख डॉ. राजेश कुमार व्यास के संपादन में ‘सुजस’ में प्रकाशित।)

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