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कनक तिवारी लिखते हैं- चीफ जस्टिस रमन्ना को समर्थन, केदारनाथ सिंह का मामला यह है
17-Jul-2021 7:38 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- चीफ जस्टिस रमन्ना को समर्थन, केदारनाथ सिंह का मामला यह है

 

(1) पंजाब हाईकोर्ट ने 1951 तथा इलाहाबाद हाईकोर्ट ने 1959 में राजद्रोह को असंवैधानिक घोषित किया। लेकिन केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य मामले में 1962 में सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संविधान पीठ ने राजद्रोह को संवैधानिक कह दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा किसी कानून की एक व्याख्या संविधान के अनुकूल प्रतीत होती है और दूसरी संविधान के खिलाफ। तो न्यायालय पहली व्याख्या के अनुसार कानून को वैध घोषित कर सकते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने 1960 में दि सुपिं्रटेंडेंट प्रिज़न फतेहगढ़ विरुद्ध डाॅ. राममनोहर लोहिया प्रकरण में भी पुलिस की यह बात नहीं मानी थी कि किसी कानून को नहीं मानने का जननेता आह्वान भर करे। तो उसे राजद्रोह की परिभाषा में रखा जा सकता है। बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान जिंदाबाद नारा लगाने के कारण आरोपियों को राजद्रोह के अपराध से मुक्त कर दिया था। कानून की ऐसी ही व्याख्या बिलाल अहमद कालू के प्रकरण में सुप्रीम कोर्ट द्वारा की गई।

(2) सबसे चर्चित मुकदमे केदारनाथ सिंह के 1962 के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण राजद्रोह का अपराध भारतीय दंड संहिता की आंतों में छुपकर नागरिकों को बेचैन और आशंकित करता थानेदारों को हौसला देता रहता है। बिहार की फाॅरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ ने कांग्रेस पर भ्रष्टाचार, कालाबाज़ार और अत्याचार सहित कई आरोप बेहद भड़काऊ भाषा में लगाए थे। पूंजीपतियों, जमींदारों और कांग्रेस नेताओं को उखाड़ फेंकने के लिए जनक्रांति का आह्वान भी किया। निचली अदालत और हाईकोर्ट से केदारनाथ को राजद्रोह के अपराध में एक साल की सजा दी गई। मामला आखिरकार सुप्रीम कोर्ट की संविधान बेंच तक पहुंचा। उसमें कई और लंबित पड़े मुकदमे भी जुड़ गए, ताकि राजद्रोह के अपराध की संवैधानिकता पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा एकबारगी सम्यक परीक्षण किया जा सके। चुनौतियां दी गई थीं कि राजद्रोह का अपराध पूरी तौर पर असंवैधानिक होने से उसे बातिल कर दिया जाए। केदारनाथ सिंह के प्रकरण ने सरकारों के प्रति नफरत फैलाने और सरकार के खिलाफ हिंसक कृत्यों के लिए भड़काए जाने की दोनों अलग अलग दिखती मनोवैज्ञानिक स्थितियों की तुलना की। बेंच ने राजद्रोह नामक अपराध की बहुत व्यापक परिभाषाओं में उलझने के बदले कहा कि भड़काऊ मकसदों, उद्देश्योें या इरादों से संभावित लोकशांति, कानून या व्यवस्था के बिगड़ जाने या हिंसा हो जाने की जांच की।

(3) लंबे विचार विमर्श के बाद राजद्रोह के अपराध को दंड संहिता से निकाल फेंकने की अपील पर सुप्रीम कोर्ट ने इन्कार कर दिया। केदारनाथ सिंह ने तो यहां तक कहा था कि सीआईडी के कुत्ते बरौनी के आसपास निठल्ले घूम रहे हैं। कई कुत्ते-अधिकारी बैठक में शामिल हैं। भारत के लोगों ने अंगरेज़ों को भारत की धरती से निकाल बाहर किया है, लेकिन कांग्रेसी गुंडों को गद्दी सौंप दी। आज ये कांग्रेसी गुंडे लोगों की गलती से गद्दी पर बैठ गए हैं। यदि हम अंगरेज़ों को निकाल बाहर कर सकते हैं, तो कांग्रेसी गुंडों को भी निकाल बाहर करेंगे। अन्य कई पहले के फैसलों को भी साथ साथ पलटते सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चाहे जिस प्रणाली की हो, प्रशासन चलाने के लिए सरकार तो होती है। उसमें उन लोगों को दंड देने की शक्ति भी होनी चाहिए जो अपने आचरण से राज्य की सुरक्षा और स्थायित्व को नष्ट करना चाहते हैं। ऐसी दुर्भावना इसी नीयत से फैलाना चाहते हैं जिससे सरकार का कामकाज और लोक व्यवस्था बरबाद हो जाए। सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही कुछ पुराने मुकदमों पर निर्भर करते कहा कि राजद्रोह की परिभाषा में ‘राज्य के हित में‘ नामक शब्दांश की बहुत व्यापक परिधि है। उसकी अनदेखी नहीं की जा सकती। ऐसे किसी कानून को संवैधानिक संरक्षण मिलना ही होगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा यह अपराध संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत राज्य द्वारा सक्षम प्रतिबंध के रूप में सुरक्षित समझा जा सकता है।
 
(4) केदारनाथ सिंह से अलग सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने लोहिया के प्रकरण में इसके उलट आदेश दिया था। पिछली पीठ के चार जज इसी दरमियान रिटायर हो चुके थे। जानना दिलचस्प है कि केदारनाथ सिंह के प्रकरण में सुुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने संविधान सभा द्वारा राजद्रोह की छोड़छुट्टी का तथ्य भी उल्लिखित नहीं किया। इसके और पहले 1951 में सुप्रीम कोर्ट ने रमेश थापर की पत्रिका ‘क्राॅसरोड्स‘ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुख्य पत्र ‘आर्गनाइज़र‘ में क्रमषः मद्रास और पंजाब की सरकारों द्वारा प्रतिबंध लगाने के खिलाफ बेहतरीन फैसले दिए थे। उनके कारण नेहरू मंत्रिपरिषद को संविधान में संषोधन करते हुए अभिव्यक्ति पर प्रतिबंध लगाने के आधारों को संशोधित करना पड़ा था। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राजद्रोह का अपराध ‘राज्य की सुरक्षा‘ ‘लोकव्यवस्था‘ की चिंता करता हुआ बनाया गया है। इसलिए उसे दंड संहिता से बेदखल नहीं किया जा सकता। यह भी समझना होगा कि कानूनसम्मत सरकार अलग अभिव्यक्ति है। उसको चलाने वाले अधिकारियों को सरकार नहीं माना जा सकता। सरकार कानूनसम्मत राज्य का दिखता हुआ प्रतीक है। सरकार ध्वस्त हो गई तो राज्य का अस्तित्व ही संकट में पड़ जाएगा। इस लिहाज़ से राजद्रोह को दंड संहिता की परिभाषा में रखा जाना मुनासिब होगा, बशर्ते ऐसा कृत्य अहिंसक हो। क्रांति वगैरह की गुहार में हिंसा के तत्व की अनदेखी नहीं की जा सकती। सरकार के खिलाफ कितनी ही कड़ी भाषा का इस्तेमाल करते उसके प्रति भक्तिभाव नहीं भी दिखाया जाए, तो उसे राजद्रोह नहीं कहा जा सकता। जनभावना को हिंसा के लिए भड़काने और लोकव्यवस्था को ऐसे कृत्यों द्वारा खतरे में डालने की स्थिति में ही राजद्रोह के अपराध की संभावना मानी जा सकती है।

(5) दरअसल केदारनाथ सिंह के प्रकरण में बहुत बारीक व्याख्या करने के बावजूद मौजूदा परिस्थितियों में अंगरेजों के जमाने के इस आततायी कानून को जस का तस रखे जाने में संविधान को भी असुविधा महसूस होनी चाहिए। रमेश थापर के प्रकरण में मद्रास सरकार ने कम्युनिस्ट पार्टी को ही अवैध घोषित कर उस विचारधारा से जुड़ी पत्रिका ‘ क्राॅसरोड्स‘ के वितरण पर इसलिए भी प्रतिबंध लगा दिया था कि पत्रिका नेहरू की कड़ी आलोचना करती थी। ‘आर्गनाइज़र‘ के खिलाफ दिल्ली के मुख्य आयुक्त ने यह आदेश दिया था कि उन्हें सभी सांप्रदायिक नस्ल की खबरें और खतरे को पाकिस्तान से जुड़े समाचारों को स्क्रूटनी के लिए भेजना होगा।

 

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