विचार / लेख
-रमेश अनुपम
पिछली कड़ी में मुझसे एक चूक हो गई थी।
मैंने पिछली कड़ी में लिखा था कि सन् 1922 में आर्थिक अभाव के कारण ‘कर्मवीर’ को बंद करना पड़ा। वस्तुत: ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन सन् 1924 में बंद हुआ, लेकिन सन् 1925 में उसे पुन: खंडवा से प्रारंभ किया गया।
सन् 1922 में आर्थिक अभाव तथा कर्ज के चलते ‘कर्मवीर’ के प्रकाशन में संकट के बादल जरूर लहराने लगे थे और स्थिति काफी विषम हो चुकी थी। ‘कर्मवीर’ का प्रबंधक मंडल इसके लिए तत्कालीन संपादक माखनलाल चतुर्वेदी को दोषी मान रहा था। नए संपादक की खोज शुरू हो गई थी ।
इसलिए सन् 1922 में ‘कर्मवीर’ का संपादन का दायित्व माधवराव सप्रे के सुझाव पर कुलदीप सहाय को सौंपा गया। कुलदीप सहाय उन दिनों जबलपुर में आयकर निरीक्षक के पद पर कार्य कर रहे थे। ठाकुर छेदीलाल और ई राघवेंद्र राव उनके मित्र थे, उनकी सलाह पर ही उन्होंने सरकारी नौकरी छोडक़र ‘कर्मवीर’ का संपादक पद स्वीकार कर लिया था।
इस तरह कुलदीप सहाय के संपादन और माधवराव सप्रे के कुशल निर्देशन में जबलपुर से ‘कर्मवीर’ का प्रकाशन सन 1924 तक निरंतर होता रहा।
बाद में 4 अप्रैल सन 1925 में माखनलाल चतुर्वेदी ने पुन: इसका प्रकाशन खंडवा से प्रारंभ किया।
माधवराव सप्रे ने देहरादून में सन् 1924 में 9 नवंबर से प्रारंभ तीन दिवसीय हिंदी साहित्य सम्मेलन की अध्यक्षता की। देहरादून से वे लखनऊ होते हुए वापस रायपुर लौटे।
रायपुर लौटकर वे पुन: स्वाधीनता आंदोलन के काम में जुट गए। पंडित रविशंकर शुक्ल माधवराव सप्रे के अनन्यतम प्रशंसक थे, उनके साथ वे भी राष्ट्रीय स्वाधीनता का अलख जगाने के लिए छत्तीसगढ़ के अनेक नगरों की यात्राएं करने लगे थे।
रायपुर में माधवराव सप्रे आनंद समाज लाइब्रेरी में भी नियमित रूप से आया जाया करते थे। रायपुर में सन् 1902 में स्थापित आनंद समाज लाइब्रेरी से वे प्रारंभ से ही अभिन्न रूप से जुड़े हुए थे।
सन् 1925 से उनका स्वास्थ्य निरंतर गिरता चला गया। अनेक चिकित्सकों को दिखाने के बाद भी उनके स्वास्थ्य में सुधार के लक्षण दिखाई नहीं दे रहे थे। जीवन के अंतिम दिनों में उन्हें ज्वर रहने लगा, आंव और दस्त से भी वे परेशान रहने लगे।
मात्र पचपन वर्ष की उम्र में 23 अप्रैल सन् 1926 को रायपुर में हिंदी नवजागरण के इस अग्रदूत का निधन हो गया।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’, ‘हिंदीग्रंथ माला’, ‘हिंदी केसरी’ और ‘कर्मवीर’ जैसी पत्रिकाओं के संपादक और प्रकाशक, ‘दासबोध’, ‘महाभारत मीमांसा’, ‘श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य’ जैसी कृतियों के अनुवादक, श्री जानकी देवी महिला पाठशाला और रामदासी मठ के संस्थापक माधवराव सप्रे सदा-सदा के लिए अनंत में विलीन हो गए। छत्तीसगढ़ का एक उज्ज्वल नक्षत्र कहीं सुदूर अंतरिक्ष में खो गया।
मेरे मन में एक सवाल बार बार उठता है कि पूरी दुनिया में छत्तीसगढ़ का नाम रोशन करने वाले माधवराव सप्रे के लिए इस युवा राज्य ने क्या किया है ?
सन 1900 में ‘छत्तीसगढ़ मित्र’ की कल्पना ही अपने आपमें किसी महान घटना से कम नहीं है। सन् 1900 में छत्तीसगढ़ शब्द का प्रयोग ही बहुत बड़ी बात थी ।
‘छत्तीसगढ़ मित्र’ के पहले ही अंक में जो नियमावली प्रकाशित की गई है उसमें क्रमांक 3 में लिखा गया है :
‘छत्तीसगढ़ विभाग में विद्या की वृद्धि करने के लिए, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुंचाने के लिए और हिंदी भाषा की उन्नति करने के लिए यथामति तन मन धन से प्रयत्न करना यही इस पुस्तक के प्रकाशकों का उद्देश्य है।’
आज से एक सौ बीस पूर्व एक परतंत्र देश के छत्तीसगढ़ जैसे एक अविकसित अंचल में ज्ञान के प्रचार प्रसार को महत्व देने वाले, विद्यार्थियों को द्रव्य की सहायता पहुंचाने की बात करने वाले, हिंदी भाषा की उन्नति का स्वप्न देखने वाले माधवराव सप्रे आज छत्तीसगढ़ में ही उपेक्षित हैं।
राज्य के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय में उनके नाम से एक पीठ की स्थापना और एक स्कूल का नामकरण उनके नाम पर करने के अतिरिक्त हमारे इस राज्य ने और क्या किया है।
कम से कम राज्य के इकलौते पत्रकारिता विश्वविद्यालय का नाम तो उनके नाम पर रखा जा सकता था,पर नहीं रखा गया ।
उनके शिष्य माखनलाल चतुर्वेदी के नाम पर मध्यप्रदेश में एक पत्रकारिता विश्वविद्यालय और दूसरे शिष्य पंडित रविशंकर शुक्ल के नाम पर रायपुर में विश्वविद्यालय हैं, पर गुरु के नाम पर कुछ भी नहीं है।
पूरे छत्तीसगढ़ राज्य में माधवराव सप्रे की एक भी मूर्ति ढूंढने से भी कहीं नहीं मिलेगी। इसे क्या कहा जाए, छत्तीसगढ़ राज्य का दुर्भाग्य या और कुछ।
माधवराव सप्रे की कहानी ‘एक टोकरी भर मिट्टी’ को प्रथम हिंदी कहानी का दर्जा दिलवाने वाले तथा जीवनपर्यंत उनकी रचनाओं को ढूंढ़-ढूंढक़र रचनावली के रूप में प्रकाशित करवाने का स्वप्न देखने वाले श्री देवी प्रसाद वर्मा बच्चू जांजगिरी अब इस संसार में नहीं हैं।
अच्छा तो यह होता कि राज्य सरकार उनके द्वारा संपादित रचनावली के प्रकाशन की ओर ध्यान देती। कम से कम यही इस सरकार की एक उपलब्धि होती ।
माधवराव सप्रे की एक मुकम्मल जीवनी लेखन के काम पर भी अगर सरकार ध्यान दे तो यह बेहतर कार्य होगा, जिससे आने वाली पीढ़ी देश के इस महान सपूत के बारे में बेहतर ढंग से जान पाएगी।
अगले सप्ताह माधवराव सप्रे पर केंद्रित माखनलाल चतुर्वेदी की एक दुर्लभ कविता।
(बाकी अगले हफ्ते)