विचार / लेख

मंहगाई का बोझ मध्यमवर्ग के कंधे पर और सरकार नदारत
16-Jul-2021 5:36 PM
मंहगाई का बोझ मध्यमवर्ग के कंधे पर और सरकार नदारत

-डाॅ. लखन चौधरी

देश के पचास करोड़ से उपर मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए 'कोविड महामारी’ एक नई संकट, नई त्रासदी का सबब बनती जा रही है। 'महंगाई’ के रूप में एक नई मुसीबत बनकर मध्यमवर्गीय परिवारों के सामने जीवन-यापन की नई-नई चुनौतियां खड़ी कर चुकी है। कोरोना कालखण्ड की महंगाई न सिर्फ मध्यमवर्गीय परिवारों की आर्थिक स्थिति को खोखला कर रही है, बल्कि इन करोड़ों मध्यमवर्गीय परिवारों का 'मध्यमवर्गीय दर्जा’ ही खत्म कर चुकी है। नये-नये अनुसंधान बता रहे हैं कि कोरोना कालखण्ड में उपजी महंगाई की मार से देश के एक-तिहाई मध्यमवर्गीय परिवार ’मध्यमवर्ग से निम्नवर्ग’ में शिफ्ट हो चुके हैं। 

रसोई गैस, डीज़ल, पेट्रोल, खाने के तेल, दाल, अनाज, लोहा, सीमेंट, बिजली सामान, खाद, बीज, उर्वरक, दवाईयां, पढ़ाई-लिखाई से जुड़ी वस्तुएं यानि जीवनयापन के सारे जरूरी सामानों की कीमतें लगातार एवं बेतहाशा बढ़ीं हैं, और बढ़ रहीं हैं। इसका सबसे दुर्भाग्यपूर्णं पहलू यह है कि इसकी सर्वाधिक मार मध्यमवर्ग पर पड़ी एवं लगातार पड़ रही है। सरकार कोरोना महामारी के सारे खर्चे एवं बोझ अप्रत्यक्ष करों के द्वारा मध्यमवर्ग पर डालती जा रही है। अर्थव्यवस्था को हुई भारी भरकम नुकसान की भरपाई की जिम्मेदारी मध्यमवर्ग के उपर ऐसे डाल दी गई एवं डाली जा रही है, जैसे कि देश को बचाने एवं बनाने की जिम्मेदारी मध्यमवर्ग की है। जबकि कोरोना कालखण्ड की आपदा को अवसर में बदल कर कमाने का ठेका चंद कारपोरेट घरानों के लिए सुरक्षित कर दिया गया है। आपदा को अवसर के रूप में विदोहन करने के लिए इन चंद कारपोरेट घरानों को सरकार द्वारा बाकायदा खुली छूट दे दी गई है। लोग मर रहे हैं, मगर इनकी संपत्तियां बेहिसाब बढ़ती जा रहीं हैं। 

कोरोना कालखण्ड का सबसे बड़ा सवाल, जो अब उठने लगा है कि क्या राष्ट्र निर्माण का बोझ एवं राष्ट्र निर्माण की जिम्मेदारी केवल मध्यमवर्ग की है ? क्या सरकार की जवाबदेही केवल आंकड़ों की सियासत करना है ? क्या सरकार हर सवाल के जवाब में पिछले 70 सालों का हिसाब मांग कर अपनी जिम्मेदारी से बच सकती है ? क्या कोरोना आपदा से निपटने में हुई नाकामी के लिए नेहरू-कांग्रेस की पुरानी सरकारें जिम्मेदार हैं ? कांग्रेस को घेरने के और भी मुद्दे हैं या हो सकते हैं, लेकिन सरकार के समर्थक एवं नुमाइंदे बार-बार पिछली कांग्रेस सरकार को कोस कर क्या साबित करना चाहते हैं, कि मोदी सरकार कोरोना संकट से निपटने में बुरी तरह असफल नहीं रही है ? अब तो सरकार के समर्थकों द्वारा बाकायदा कहा जाने लगा है कि आखिर विकास एवं राष्ट्र निर्माण का खर्च जनता ही तो वहन करेगी। सरकार यदि पेट्रोल-डीज़ल के दाम कम नहीं कर रही है तो सरकार इस पैसे को राष्ट्र निर्माण के लिए ही तो खर्च कर रही है।

यदि ऐसा है तो मध्यमवर्ग को सरकार से शिकवा-शिकायत नहीं करना चाहिए ? आखिरकार सरकार ने राष्ट्र निर्माण जैसे महान कार्यों की जिम्मेदारी मध्यमवर्ग के कंधे पर डाला है, तो इसके पीछे कोई सोची-समझी वजह होगी ? सरकार की इस सोची-समझी वजह को विपक्ष यदि मध्यमवर्ग की नपुंसकता समझ रही है तो शायद यह सही नहीं है ? मध्यमवर्ग की चेतना कोरोना महामारी के बाद भी यदि जाग नहीं पा रही है तो इसकी भी कोई वजह होगी। रोजी-रोटी की जद्दोजहद से जनता बाहर निकले, तभी कुछ सोच-समझ पायेगी। अभी तो स्थिति यह है कि जनता रोजी-रोटी, दवाई-ईलाज एवं महंगाई जैसी रोजमर्रा की चुनौतियों से ही बाहर निकल नहीं पा रही है। फिर जनचेतना कहां से आएगी ? मजे की बात यह है कि सरकार यही तो चाहती है, जनता रोजमर्रा की इसी जद्दोजहद में फंसी रहे।

विश्व की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी का दंभ भरने वाली दल की सरकार अब ’जनहित’ जैसे सरेाकारों से अपना वास्ता अलग कर चुकी है, अब पार्टी की प्राथमिकता राष्ट्रहित, देशहित पहले है, वरना रोज इस तरह के गैर जरूरी, अतार्किक एवं अनैतिक निर्णय नहीं लिये जाते। गांधी-नेहरू की तुलना एवं नेहरु-गांधी परिवार के नाम पर देश में निरर्थक बहसबाजी के बहाने जनमानस को गुमराह करने के प्रयास नहीं होते। देश के जिस मध्यमवर्ग ने इस दल को इतना बड़ा विशाल जनादेश दिया उसे ही खत्म करके सरकार क्या करना चाहती है ? आज शायद इस सरकार को ही मालूम नहीं है।

शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, बिजली, सड़क, पानी, सुरक्षा जैसे बुनियादी मसलों पर काम करने के लिए सरकार बनाई जाती है। मंदिर-मस्जिद, गाय, गोबर, गौमूत्र, तीन तलाक, स्वदेशी, चीन-पाक, सर्जिकल स्ट्राईक, धर्म-जाति जैसे मसलों को हवा देकर सियासत करते रहने के लिए नहीं। विकास की रोज नई-नई बेतुकी परिभाषा गढ़ कर विकास यात्राएं निकालने से तरक्की एवं प्रगति नहीं होती है। विकास के नाम पर तमाम तरह के दिखावे, प्रदर्शन किये जा रहे हंै। विकास को समझाने, दिखाने एवं बताने के लिए हजारों करोड़ के विज्ञापन दिये जा रहे हैं। जनता के खूनपसीने की कमाई आयकर के पैसे को फिजूलखर्ची में बर्बाद किया जा रहा है। याद रहे, विकास के एजेंडे पर काम करने के लिए ठोस नीतियों, कार्यक्रमों, योजनाओं एवं सच्ची नियत की जरूरत होती है, जो इस वक्त इस सरकार के पास दिखती नहीं है।

अर्थव्यवस्था को कोरोना संकट की त्रासदियों से बाहर निकालने के लिए सरकार को प्रत्यक्ष कर ढ़ांचें में फेरबदल करनी चाहिए, और सरकार अप्रत्यक्ष करों में बेतहाशा बढ़ोतरी करके मध्यमवर्ग पर कर का बोझ-भार बढ़ाती जा रही है। राष्ट्र निर्माण के लिए मध्यमवर्ग की बलि मांगने या मध्यमवर्ग की बलि चढ़ाने वाली सरकार भूल रही है कि राष्ट्र केवल भौगोलिक पहचान या अस्तित्व भर नहीं होती है। राष्ट्र लोगों का प्रतिनिधित्व करती है, राष्ट्र में लोगों की आत्माएं बसती हैं, राष्ट्र में लोग निवास करते हैं। एक दूरदर्शी, सम्यक एवं समावेशी सोच से राष्ट्र का निर्माण होता है। जो मध्यमवर्ग विकास, बदलाव एवं परिवर्तन का वाहक, सूत्रधार एवं अगुआ होता है, सरकार इस समय उसे ही खत्म करने में लगी है। 

आस्कर वाइल्ड ने बहुत सही कहा है कि ’प्रजातंत्र का सीधा सादा अर्थ है कि प्रजा के डंडे को प्रजा के लिए, प्रजा की पीठ पर तोड़ना।’ इस समय सरकार के कामकाज से यही चरितार्थ होता दिखता है। सरकार राष्ट्र निर्माण का बोझ एवं भार मध्यमवर्ग के कंधे पर डालकर जहां अपनी जिम्मेवारी से बचना चाहती है, वहीं अपनी जायज, जरूरी एवं सार्थक भूमिका में नदारत दिखती है।

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