विचार / लेख
-आर. के. विज
हाल ही में, सुप्रीम कोर्ट ने ‘पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज’ (पीयूसीएल) द्वारा दायर एक याचिका पर सुनवाई करते हुए आश्चर्य व्यक्त किया कि छह साल पहले, सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) अधिनियम, 2000 की धारा 66ए को असंवैधानिक घोषित करने के बावजूद पुलिस द्वारा आपराधिक मामले दर्ज किये जा रहे हैं। पीयूसीएल ने अपनी जनहित याचिका में इस बात पर प्रकाश डाला कि वर्ष 2015 से राज्यों द्वारा ऐसे 1,307 मामले दर्ज किए गए हैं और इसलिए अदालत को पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने के खिलाफ दिशा-निर्देश जारी करने चाहिए।
आईटी अधिनियम की धारा 66ए को सुप्रीम कोर्ट द्वारा ‘श्रेया सिंघल बनाम् भारत संघ’ (2015) में संपूर्ण रूप से असंवैधानिक घोषित करते हुए कहा गया था कि यह धारा, संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) का उल्लंघन है और अनुच्छेद 19 (2) के अंतर्गत इसका बचाव नहीं होता। कोर्ट ने यह भी कहा कि धारा 66ए में इस्तेमाल किए गए शब्द/भाव पूरी तरह से अपरिभाषित थे और इस प्रकार अस्पष्टता की वजह से शून्य। इसलिए, एक बार यदि कानून के किसी भी प्रावधान को असंवैधानिक घोषित कर दिया जाता है तो पुलिस द्वारा ऐसी धारा के तहत प्राथमिकी दर्ज नहीं की जा सकती।
इससे पहले वर्ष 1983 में, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 303, जिसमें आजीवन सजा के दोषी द्वारा हत्या के लिए मृत्युदंड का प्रावधान था, को ‘मिठू बनाम पंजाब राज्य’ में सुप्रीम कोर्ट द्वारा मनमाना होने के कारण असंवैधानिक करार दिया गया था। कोर्ट ने कहा कि सजा तर्कसंगत सिद्धांत पर आधारित नहीं थी क्योंकि दोषी के लिये न्यायिक विवेक उपलब्ध नहीं था।
‘नवतेज सिंह बनाम् भारत संघ’ (2018) में, सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 (अप्राकृतिक अपराधों से संबंधित) में कहा कि यह धारा जहाँ तक समान लिंग के वयस्कों के बीच सहमति से यौन आचरण को अपराध बनाती है, असंवैधानिक थी।
इसी तरह, ‘जोसेफ शाइन बनाम् भारत संघ’ (2018) में, सुप्रीम कोर्ट द्वारा आईपीसी की धारा 497 के तहत व्यभिचार को स्पष्ट रूप से मनमाना, भेदभावपूर्ण और महिला की गरिमा का उल्लंघन माना गया और असंवैधानिक करार दिया गया।
नि:संदेह, इन धाराओं के तहत पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज करना अवैधानिक है और सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों का उल्लंघन है। हालांकि, मेरा मानना है कि इस तरह के मामले जानबूझकर दर्ज नहीं किए गए हैं, थाना प्रभारियों की लापरवाही पर जल्द रोक लगानी चाहिए। अनुविभाग स्तर पर पर्यवेक्षी पुलिस अधिकारियों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि यदि पुलिस द्वारा थाना स्तर पर ज्ञान की कमी के कारण ऐसी धाराएं लगायी जाती हैं तो उन्हें जल्द-से-जल्द हटा दिया जाये। पुलिस अधीक्षक को गलती करने वाले अधिकारी की जिम्मेदारी तय करनी चाहिए और सुधारात्मक कार्रवाई करनी चाहिए क्योंकि लापरवाही के लिए जिम्मेदार अधिकारी न केवल अवमानना के लिए न्यायालय के प्रति जवाबदेह होगा बल्कि विभागीय कार्रवाई के लिए भी उत्तरदायी होगा। बार-बार चेतावनी के बावजूद अगर थाना प्रभारी और पर्यवेक्षक अधिकारी अपने तरीके नहीं बदलते हैं, तो उनकी वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट, प्रतिकूल प्रविष्टियों से प्रभावित हो सकती है। आईपीसी में नई जोड़ी गई धारा 166ए के तहत भी कार्रवाई शुरू की जा सकती है जो कानून के तहत निर्देशों की अवहेलना करने पर दो साल तक की सजा का प्रावधान करती है। इस प्रकार, दंडात्मक प्रावधानों की कोई कमी नहीं है, जिन्हें लापरवाह अधिकारियों के खिलाफ इस्तेमाल में लाया जा सकता है।
असंवैधानिक धाराओं के तहत अपराधों के पंजीकरण से बचने का सबसे अच्छा तरीका है कि सभी रैंक के पुलिस अधिकारियों को उनके बुनियादी प्रशिक्षण संस्थानों में ऐसे प्रावधानों के बारे में पढ़ाया जाए। दूसरा, जैसा कि भारत के महान्यायवादी केके वेणुगोपाल द्वारा सलाह दी गई है, कि यह विशेष रूप से ‘कोष्ठक में उल्लेख कर दिया जाये की प्रावधान समाप्त कर दिया गया है’, ताकि उन धाराओं के तहत प्राथमिकी दर्ज न हो।
तीसरा, आईटी एक्ट की धारा 66ए और आईपीसी की अन्य असंवैधानिक धाराओं को क्राइम क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्क एंड सिस्टम्स (सीसीटीएनएस) में निष्क्रिय किया जा सकता है ताकि सिस्टम में इन धाराओं के तहत एफआईआर दर्ज न हो सके। भारत सरकार की मिशन मोड परियोजना सीसीटीएनएस पिछले कई वर्षों से सभी राज्यों में लागू है। राज्य ऑन-लाईन मोड या ऑफ-लाइन मोड में सीसीटीएनएस में एफआईआर दर्ज कर रहे हैं। सीसीटीएनएस तब भी बहुत काम आया जब सुप्रीम कोर्ट ने 2016 में राज्यों को अपराध पंजीकरण के 24 से 72 घंटों के भीतर आधिकारिक वेबसाइटों पर एफआईआर अपलोड करने का निर्देश दिया था। हमने, छत्तीसगढ़ में, अब इन असंवैधानिक धाराओं को सिस्टम में ही अक्षम कर दिया है। अन्य राज्य भी इसी प्रकार अनुसरण कर सकते हैं।
इस प्रकार पुलिस को यह सुनिश्चित करना होगा कि असंवैधानिक धाराओं के तहत कोई प्राथमिकी दर्ज न हो और थाना प्रभारी की लापरवाहीपूर्ण कार्रवाई के लिए किसी को परेशान न होना पड़े।
(लेखक छत्तीसगढ़ के वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी है और ये उनके निजी विचार है।)