विचार / लेख
-आशुतोष भारद्वाज
इस जनवरी में अपनी छत्तीसगढ़ यात्रा पर मैंने बहुभाषिक पाठ्य-पुस्तकें देखीं, जिन्हें हाल ही पाठ्यक्रम में शामिल किया गया था। हिंदी प्रदेश के किसी अन्य राज्य की भाँति छत्तीसगढ़ में भी सरकारी काम तो मानकीकृत हिंदी में होता है, लेकिन कई अन्य भाषाएँ और बोलियाँ भी हैं। अक्सर निवासी मानकीकृत हिंदी के बजाय अपनी स्थानीय ज़ुबान में बतियाते और सहज महसूस करते हैं।
छत्तीसगढ़ में छत्तीसगढिय़ा के अलावा हल्बी, सरगुजि़हा, बघेली, बैगानी इत्यादि भाषाएँ और बोलियाँ प्रचलित हैं। ख़ुद छत्तीसगढिय़ा, जो राज्य में सर्वाधिक बोली जाती है और जिसे संविधान की आठवीं अनुसूची में लाने की माँग अरसे से हो रही है, के भी कई स्वरूप हैं चार कोस पर बदले वाणी।
इन नई पाठ्यपुस्तकों में ये सभी भाषाएँ और बोलियाँ हिंदी के साथ जगह पाती हैं। एक पन्ने पर हिंदी, दूसरे पर बघेली, छत्तीसगढिय़ा, हल्बी इत्यादि। मैंने जब इन्हें मिला कर पढ़ा (तस्वीर को देखिएगा), तो यह जबरदस्त भाषिक प्रयोग लगा। मसलन बिलासपुर में बोली जाने वाली छत्तीसगढिय़ा का कोई वाक्य दुर्ग में बोली जाने वाली छत्तीसगढिय़ा में आकर क्या रंग ले लेगा।
मैंने इन वाक्यों को भिन्न भाषाओं में बोलकर पढ़ा, उनकी ध्वनियों को सुनना बड़ा रोमांचक लगा।
चूहे को मिली पेंसिल
मुसबा का मिलिस पेंसिल
मुसटा ल मिलिस पेंसिल
मुसवा ल मिलिस सीस
इन मासूम वाक्यों की गूंज देर तक बनी रही। देवनागरी के कुटुम्ब में इन शब्दों को देखकर सुख भी मिला, तय किया कि इन्हें ख़ुद भी प्रयोग किया करूँगा।
यह भी लगा कि इस तरह के भाषिक प्रयोग उत्तर प्रदेश और बिहार में भी हों हिंदी, अवधी, ब्रज, भोजपुरी एक साथ एक किताब में जगह पाएँ।