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कनक तिवारी लिखते हैं- बस्तर में कोहराम, सिलगेर का पोस्टमार्टम
11-Jun-2021 2:27 PM
कनक तिवारी लिखते हैं- बस्तर में कोहराम, सिलगेर का पोस्टमार्टम

बस्तर के सुकमा क्षेत्र के सिलगेर गांव में आदिवासी जीवन में नीयतन कोहराम मचाया गया। नक्सली उन्मूलन के मकसद के नाम पर पुलिस शिविर स्थापित करने के एकतरफा सरकारी फैसले के खिलाफ सैकड़ों गांवों के लोग लामबंद होकर करीब एक माह लगातार धरना प्रदर्शन करते रहे। वे नहीं चाहते उनके अमनपसन्द इलाके में पुलिस-नक्सली भिड़ंत की आड़ में खौफनाक मंजर उगें। उसकी शुरुआत पुलिस शिविर स्थापित करने से हो गई उन्हें लगती है। जनप्रतिरोध का मुकाबला लोकतंत्र की कई तुनकमिजाज सरकारें जनता की छातियों को गोलियों से छलनी करती ही करती हैं, उससे कमतर कुछ नहीं। पुलिस को लाचारों पर सरकारी गोलीबारी  करने की खुली छूट है। जनप्रतिनिधियों, समाज और मंत्रियों का भी नैतिक दबाव उन पर नहीं होता। बंदूक के ट्रिगर पर उंगली सत्ता के अहंकार में दबा दी जाए। तो एक के बाद एक इंसान लाशों में तब्दील होते जाते हैं। बस्तर में वर्षों से वह हो रहा है। 

इन्हें रूपक कथाओं के जरिए समझा जा सकता है। स्कूली बच्चे एक पागलखाना देखने गए। देखा पहला पागल रस्सी की गांठ खोल रहा है और चीख रहा है। डॉक्टर ने कहा यह आज तक रस्सी की गांठ नहीं खोल पाया। इसीलिए पागल हो गया। दूसरे पागल को बार बार रस्सियां गांठ लगाकर दी जातीं। वह पांच सेकेंड में ही खोल देता और हंसने लगता। डॉक्टर ने कहा यह हर गांठ को इतनी जल्दी खोलता रहा है कि खुशी में पागल हो गया है। तीसरा पागल रस्सी में गांठें लगाकर ठहाकों में हंस रहा था। डॉक्टर ने कहा यह हर रस्सी में गांठ लगाता कहता है और फिर हंसता रहता है। सरकारें आदिवासी समस्या की गांठें खोल नहीं पा रहीं और दिमागी संतुलन को लेकर चीख रही हैं। नक्सली हर समस्या का हल बंदूक से तुरंत निकालते हंसते रहते हैं। कॉरपोरेटिए भारत की सभी दौलत, वन संपत्ति और आदिवासी जीवन के भविष्य पर गांठ लगाये रहते अहसास करते रहते हैं। उनके सामने सरकार और नक्सली दोनों की हिम्मत पस्त है। यही बस्तर का सच है। 

बस्तर में सिलगेर में पहला सरकारी गोलीबार नहीं है। आदिवासी तो नक्सली और सरकारी हिंसा के बीच लगातार पिस रहे हैं। हर गोली अमूमन आदिवासी की ही छाती में धंसती है। अब आदिवासी के मनुष्य के रूप में ही जीवित रहने तक पर खतरे हैं। पूरा आदिवास खतरे में है। यही हाल रहा तो कुछ दशकों के बाद भारत में न रहेंगे आदिवासी और न रह पाएगा आदिवास। वे सब चित्रों, कैलेंडर, किताबों में छपेंगे। आदिवासी देश के मूल निवासी हैं। उन्हें सदियों तक शहरियों से लेना देना नहीं रहा। उन्होंने अपना अर्थतंत्र, देशी इलाज, सामाजिक एका, कुदरत से लगाव और सामुदायिक जनभावना का अनोखा इंसानी संसार उगाया है। वह अपने आपमें स्वायत्त और संपूर्ण है। धीरे धीरे सामंतवादियों, बादशाहों और बाद में क्रूर अंगरेज हुक्कामों ने आदिवासी जीवन और वन संस्कृति को बरबाद करना शुरू किया। तब भी आज की तरह की बेशर्म कॉरपोरेटी लुटेरी घुसपैठ नहीं थी। खनिज, लकड़ी, वन उपज वगैरह में अंगरेज ने अपनी व्यापारिक हैसियत पुख्ता करते यूरोपीय मार्केट में भारतीय आदिवासी जीवन बेचना शुरू किया। कानून, सरकार, पुलिस, पटवारी, जंगल साहब, कलेक्टर और न जाने कितने रुतबेदार जंगलों में पैठते गए। आदिवासी को पीछे खदेड़ा जाने लगा जिस तरह अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर रेड इन्डियन्स और माओरी वगैरह को नेस्तनाबूद कर किया गया है। 

उल्लास, उमंग, जद्दोजहद और प्रयोग करते भारत में आजादी और संविधान आए। उम्मीद जगी कि समाज के सबसे कमजोर तबकों दलित और आदिवासी के साथ हो चुके अन्याय की भरपाई करते अन्याय रोका जाएगा। हुआ लेकिन उल्टा। यह त्रासदायक खबर है कि शिक्षित युवा आदिवासी तक नहीं जानते कि संविधान बनाने में आदिवासी अधिकारों को लेकर धोखा हुआ है! आदिवासियों का सबसे बड़ा भरोसा नेहरू पर था। नेहरू ने जिम्मेदारी बाबा साहब अम्बेडकर को सौंपी। बाबा साहब ने दलित उत्थान को अपने निजी अनुभवों की तल्खी का इजहार करते लगातार ध्यान में रखा। गांधी के विश्वासपात्र ठक्कर बापा को संविधान सभा में गैरआदिवासी होने पर भी आदिवासी अधिकार तय करने की उपसमिति का अध्यक्ष बनाया। ठक्कर बापा ने सबसे उद्दाम, मौलिक, बेलौस और प्रखर आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा के मौलिक, साहसी और शोधपरक सुझावों का लगातार विरोध किया। संवैधानिक ज्ञान में निष्णात आलिम फाजिल कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने भी जयपाल सिंह के तर्कों को ठिकाने लगाने में शहरी भद्र वाला आचरण किया। कई और थे जिन्हें आदिवासियों के स्वाभिमानी नारों में समाजविरोधी चुनौती दिखाई देती। जयपाल सिंह का बुनियादी तर्क आज भी संशय, ऊहापोह और नामुराद भविष्य में तैर रहा है। वे तय नहीं करा पाए कि नागर सभ्यता की पैदाइश के काफी पहले से आदिवासी जंगलों और संलग्न इलाकों में अपना पुश्तैनी हक लेकर जीवनयापन करते रहे हैं। संविधान लागू होने पर वह रिश्ता धीरे धीरे खत्म किया जाता रहा है। 

बीसवीं सदी के आखिरी दशक से अंतर्राष्ट्रीय पूंजीखोर और भारतीय कॉरपोरेटिए ज्यादा से ज्यादा सरकारी संपत्ति की लूट करते अरबपति, खरबपति बनने आर्थिक बराबरी की लोकतंत्र की मूल भावना और न्याय को नेस्तनाबूद कर अट्टहास करने लगे। कहा होगा गांधी ने जॉन रस्किन की किताब ‘अन टु दिस लास्ट’ को पढक़र कि कतार में सबसे आखिर में खड़े व्यक्ति की आंखों से जब तक आंसू पोछे नहीं जा सकें, लोकतंत्र नहीं आएगा। एक के बाद एक आती जाती ज्यादातर नाकाबिल सरकारों ने आदिवासी समझ की अमानत में खयानत की है।

बस्तर में कोहराम (2)
आओ! आदिवासियों की चटनी पीसें

बस्तर जैसे अनुसूचित इलाकों की कुदरती दौलत आदिवासियों से जबरिया छीन ली गई है। आदिवासी इलाके तो धर्मशाला, सराय या होटल बने ग्राहकों के स्वागत के लिए हैं। अय्याश अमीर और पर्यटक मौज मस्ती और लूट लपेट करने आते हैं। पूरे माहौल में कचरा, मुफलिसी, गंदगी, अभिशाप बिखेरकर लौट जाते हैं। आदिवासियों से चौकीदारी, सफाईगिरी और गुलामी करने की उम्मीदें की जाती हैं। वे यह सब करने के लिए सरकारों द्वारा अभिशप्त भी बना दिए गए हैं। यही आदिवासी जीवन का सच है। प्रमुख खनिज, गौण खनिज, जंगली उत्पाद, पानी, धरती, पेड़ पौधे, पशु पक्षी तो दूर आदिवासी की अस्मत और अस्मिता तक कानूनों ने गिरवी रख ली है। सरकारी मुलाजिम और पुलिस ने जंगलों में जाना शुरू किया। उनकी निगाहें आदिवासियों की बहू बेटी, बकरियां, खेत खलिहान और जो कुछ भी उनके साथ दिखे को लूटने की बराबर रही हैं। गांधी के लाख विरोध के बावजूद सरकारी सिस्टम में करुणा और सहानुभूति की कोई जगह नहीं रही। लोकतंत्र आखिर तंत्र लोक में तब्दील हो गया है।

बहुत माथापच्ची करने के बाद पूर्वोत्तर इलाकों को छोडक़र, (जहां छठी अनुसूची लागू है), बाकी प्रदेशों के आदिवासी सघन क्षेत्रों में पांचवीं अनुसूची लागू की गई। ‘आदिवासी‘ शब्द तक बदलकर उसे संविधान में ‘अनुसूचित जनजाति‘ कह दिया और कई आदिवासी समुदायों को बाहर कर दिया गया। वे अपनी पहचान के लिए अब तक बेचैन हैं। आदिवासी ने नहीं चाहा लेकिन उसे संसद ने राज्यपाल की एकल संवैधानिक कही जाती हुक्मशाही के तहत कर दिया। राज्यपाल चाहें तो राज्य सरकार से बिना परामर्श किए केन्द्र और राज्य के कई कानूनों को अनुसूचित क्षेत्रों में लागू कराएं या नहीं लागू कराएं। राज्यपाल की नियुक्ति में नकेल डालकर। उसे प्रधानमंत्री की कलम की नोक से बांध दिया। राज्यपाल के लिए राज्य सरकार के मंत्रियों की बात मानना भी लाजिमी किया। संविधान में राज्यपाल का पद खुद त्रिशंकु है तो आदिवासियों की रक्षा क्या खाक करेगा? संविधान ने फिर परंतुक लगाया। लॉलीपॉप के स्वाद जैसा नाम रखा आदिम जाति मंत्रणा परिषद। वह झुनझुना जब बजता है तो आदिवासी को वी0आई0पी0 होने का नशा होने लगता है कि उसके लिए कुछ होने वाला है। परिषद की अध्यक्षता मुख्यमंत्री करते हैं। प्रधानमंत्री, राज्यपाल और मुख्यमंत्री के त्रिभुज में आदिवासी जीवन उम्र में कैद हो गया है। उसका अंत हत्या, आत्महत्या और इच्छा मृत्यु का विकल्प ढूंढ़ रहा है।

कुछ सक्रिय आदिवासी नेताओं ने संसद में चहलकदमी की। फिर कुछ अधिनियम और कानून बने। जैसे गैरइरादतन हत्या का अपराध होता है। ऐसे ही गैरइरादतन विधायन का संसदीय कौशल भी होता है। जंगलों से बेदखल किए गए आदिवासियों के लिए भूमि व्यवस्थापन का अधिनियम बना। राजीव गांधी जैसे इंसानियत परस्त प्रधानमंत्री ने अफसोस में कहा दिल्ली से एक रुपया भेजो तो सबसे पीछे खड़े आदमी के पास पंद्रह बीस पैसे ही पहुंचते हैं। नरसिंह राव के प्रधानमंत्री काल में तय हुआ पंचायतों को पुरानी परंपरा के अनुसार मजबूत करना है। आदिवासी इलाकों में पंचायतों को विशेष अधिकार देने होंगे। मंत्रीशाही में ‘चाहिए‘ शब्द बहुत चटोरा है। कोरोना के कारण हर भारतीय को वैक्सीन लगनी चाहिए। हर घर बिजली का प्रकाश चाहिए। हर हाथ को काम चाहिए। हर बेटी को पढऩा चाहिए। इतने चाहिए हैं, लेकिन ‘हो गया‘ नहीं कहते। ऐसे ही पेसा नाम का अधिनियम संसद ने आधे अधूरे मन से बनाया। तब भी छत्तीसगढ़ सहित कई राज्यों में अब तक लागू और कारगर नहीं हो पाया है। मंत्रालय के एयरकण्डीशन्ड कमरों में बस्तर और सरगुजा जैसे आदिवासी इलाकों के आदिवासियों के खून, पसीने और आंसू की कॉकटेल नशा पैदा करती है। दिलीप सिंह भूरिया की अध्यक्षता वाली कमेटी ने सिफारिशें कीं। वे पेसा कानून में नहीं आईं।

कोई नहीं बताता बस्तर में नक्सली कब आए? किसकी हुकूमत में कैसे आ गए? पंद्रह साल में छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार ने इतने अपराधिक ठनगन किए कि पार्टी प्रदेश में नैतिक रूप से अधमरी हो गई है। कांग्रेसी महेन्द्र कर्मा के साथ भाजपाई गलबहियों के कारण सलवा जुडूम नाम की औरस संतान का जन्म हुआ। विशेष पुलिस भर्ती अभियान में सोलह वर्ष के बच्चों के हाथों नक्सलियों से लडऩे के नाम पर बंदूकें थमा दी गईं। भला हो सुप्रीम कोर्ट के जज सुदर्शन रेड्डी का जिन्होंने नंदिनी सुंदर वगैरह की याचिका पर ऐतिहासिक फैसले में आादिवासी अत्याचारों का खुलासा करते सरकारी गड़बड़तंत्र की धज्जियां उड़ा दीं। नक्सलियों के उन्मूलन के नाम पर छत्तीसगढ़ में जनविरोधी हिटलरी कानून बना। उसमें ज़्यादातर डॉक्टरों, दर्जियों और मानव अधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ लिया। अब उस कानून की हालत है जैसे बाजार से बच्चों के लिए शाम को खरीदा गया फुग्गा अगली सुबह निचुड़ जाता है।

पेसा के तहत बुनियादी हक दिए जाने के लिए ग्राम सभाएं बनीं। बैठकों में कलेक्टर साहब और  कप्तान साहब टीम टाम के साथ या कारिंदों के जरिए दहशत का माहौल बनाते हैं। लाचार, अपढ़, कमजोर, डरे हुए आदिवासी केवल हाथ उठाते हैं। अंगूठा लगाते हैं। सब कुछ कानूनसम्मत होकर आदिवासी की जमीन और अधिकार छीनने का सरकारी नाटक कॉरपोरेटी मंच पर धूमधाम से उद्घाटन पर्व मनाता है। बस्तरिहा आादिवासी मुरिया, मारिया, गोंडी, हल्बा, भतरी बोलियों के अलावा कस्बाई छत्तीसगढ़ी तक नहीं जानते, जिसका छत्तीसगढ़ की मादरी जबान के रूप में सियासी, बौद्धिक हंगामा किया जाता है। कागज पर जबरिया दबा दिए गए उनके अंगूठे को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट तक उनके सच का ऐलान मानते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता उन कागजों में लिखा क्या है। सरकारी झांसा संविधान का आचरण ऐसे भी करता है।

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