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छत्तीसगढ़ एक खोज : सत्रहवीं कड़ी : फांकि शुधू फांकि
16-May-2021 6:59 PM
छत्तीसगढ़ एक खोज : सत्रहवीं कड़ी : फांकि शुधू फांकि

-रमेश अनुपम

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की कविताओं से मेरा विधिवत परिचय सन 1970-71 के दौर में  हुआ। माना कैंप में नौकरी के दौरान बांग्ला साहित्य और संस्कृति को जानने-समझने तथा उसके निकट आने का मुझे अवसर मिला।

माना कैंप में रहते-रहते गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की अनगिनत कविताएं मैं मूल बांग्ला में पढ़ चुका था। गुरुदेव की ‘संचयिता’ मैंने उसी दौर में खरीद ली थी। लेकिन बहुत दिनों तक गुरुदेव की ‘फांकि ’  कविता मेरी दृष्टि से ओझल रही। इस कविता को मैं सन 2000 के आस-पास ही पढ़ पाया।

इस कविता को पढऩे के पश्चात स्वाभाविक है कि मैं कौतूहल से भर उठा था। मेरे लिए यह बेहद रोमांच का विषय था कि क्या सचमुच गुरुदेव छत्तीसगढ़ आए थे? अगर ऐसा है तो यह छत्तीसगढ़ राज्य के लिए कोई कम सौभाग्यशाली घटना नहीं है।

मुझे लगा इस कविता पर मुझे गंभीरतापूर्वक काम करना चाहिए। काम नहीं शोध, जो गंभीर और किसी निष्कर्ष तक पहुंचाने वाला हो।

पहला सवाल तो यह था कि क्या सचमुच गुरुदेव बिलासपुर आए थे? दूसरा सवाल यह कि इस कविता में बीनू कौन है ? तीसरा सवाल कुछ ज्यादा गंभीर था कि अगर आए थे तो क्यों आए थे ? चौथा सवाल यह कि वह कौन सा कालखंड था जिसमें गुरुदेव बिलासपुर आए थे?

ये चारों सवाल ‘फांकि’ कविता को लेकर मेरे मन में उठ रहे कुछ जरूरी सवाल थे।

पहले बिलासपुर में खोजबीन की।बांग्ला भाषी विद्वानों से मिला। वे ‘फांकि’  कविता से परिचित थे।उनमें से कुछ लोगों का अनुमान था कि गुरुदेव भतीजी को लेकर आए थे। कुछ लोग मानते थे कि गुरुदेव अपनी भांजी को लेकर आए थे। गुरुदेव के पेंड्रा रोड जाने और वहां टी.बी. सैनेटोरियम में इलाज करवाने को लेकर वे सभी  एकमत थे।

मैं ‘फांकि’ कविता को बार-बार पढ़ता था। विश्व भारती प्रकाशन से प्रकाशित गुरुदेव की ‘संचयिता’ मेरे पास थी ही। मैं बार-बार ' पतालका ’ सीरीज में जाकर ‘फांकि’ कविता को पढ़ता रहता था। उसके एक-एक शब्द के अर्थ और निहितार्थ को पकडऩे की कोशिश करता था। कुल मिलाकर मैं  ‘फांकि’ कविता में पूरी तरह से डूब चुका था। सन् 2005 में कोलकाता गया, वहां से शांति निकेतन भी। तब शैलेंद्र त्रिपाठी शांति निकेतन के हिंदी विभाग में प्राध्यापक थे। डॉ हरिश्चंद्र मिश्र भी शांति निकेतन में ही थे।

मैंने गुरुदेव की ‘फांकि’ कविता को लेकर उन सबसे अपनी जिज्ञासा प्रकट की। सभी ने कहा इस पर बांग्ला विभाग के प्राध्यापकों से भी वे चर्चा कर बाद में मुझे सूचित करेंगे, यह भी कि किन्हीं कारणों से उनसे तत्काल चर्चा संभव नहीं है।

मैं खाली हाथ रायपुर लौट आया।मेरी हालत ‘लौट के बुद्धु घर को आए ’ जैसी हो गई थी। मैं लगातार शांति निकेतन फोन किया करता था, कभी शैलेंद्र त्रिपाठी को, तो कभी प्रो. हरिश्चंद्र मिश्र को। कुछ दिनों बाद शैलेंद्र त्रिपाठी का ही फोन आया कि गुरुदेव के निज सहायक कृष्ण कृपलानी ने अपनी किताब में लिख दिया है कि ‘फांकि’ कविता एक काल्पनिक कविता है। वह किताब मेरे पास भी थी (अभी भी है), पर मेरा दिल न तब मानने को तैयार था और न अब। मैं किसी भी शर्त में ‘फांकि’ कविता को काल्पनिक कविता मानने के पक्ष में नहीं था।

दूसरी बात यह कि मैं औरों की तरह यह मानने को भी तैयार नहीं था कि गुरुदेव अपनी भतीजी या भांजी को लेकर पेंड्रा रोड आए थे।

‘फांकि’ कविता मुझसे बार-बार कह रही थी कि बीनू कोई और नहीं गुरुदेव की चिरसंगिनी मृणालिनी देवी ही हैं। मुझ पर एक अलग ही जुनून सवार था, एक अलग ही पागलपन तारी था। मैंने कोलकाता की ओर ज्यादा से ज्यादा रुख करना शुरू कर दिया।

बांग्ला में जो भी किताबें मुझे इस संदर्भ में मिलती मैं खरीदता रहता था। मृणालिनी देवी से लेकर कादंबरी देवी तक जो भी बांग्ला की किताबें मुझे कॉलेज स्ट्रीट में मिल जाती मैं उसे तुरंत खरीद लेता था।

मैं अपने विश्वास में कायम था कि इस कविता में वर्णित बीनू गुरुदेव की धर्मपत्नी मृणालिनी देवी ही हैं।

इस बीच दो-तीन बार पेंड्रा रोड भी गया। वहां अनेक लोगों ने बताया कि गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर अपनी पत्नी को लेकर यहां आए थे। कुछ लोगों ने वे जगहें बताई जहां गुरुदेव बैठते थे। कुछ लोगों ने उनका कॉटेज भी दिखलाया जहां गुरुदेव मृणालिनी देवी के साथ दो महीने तक रुके हुए थे। कुछ लोगों ने बताया कि गुरुदेव ने यहां रहते-रहते एक नाटक का मंचन भी किया था। पेंड्रा रोड में बहुत सारे लोगों की यही राय थी कि गुरुदेव सपत्नीक यहां आए थे।

‘फांकि’ कविता से पहले ‘संचयिता’ के ‘पतालका ’ सीरीज में एक ‘मुक्ति’ नाम की कविता है। इस कविता में गुरुदेव ने जैसे मृणालिनी देवी को ही केंद्र में रखा है। इस कविता में नौ वर्ष में ब्याह होने से लेकर ऐसा बहुत कुछ है जिससे यह प्रदर्शित होता है कि यह कविता गुरुदेव ने मृणालिनी देवी पर लिखी है।

‘मुक्ति ’ और ‘फांकि’ में बेहद सामंजस्य है। दोनों एक दूसरे से जुड़ी हुई कविताएं हैं।

मृणालिनी देवी 12 सितंबर 1902 को चिकित्सा के लिए शांति निकेतन से कोलकाता आई थीं  23 नवंबर 1902 को जोड़ासांको में उनकी मृत्यु हुई। सितंबर से लेकर नवंबर के बीच क्या वे जोड़ासांको में ही रहीं हैं या कहीं और इसकी जानकारी नहीं मिलती है ।

तो क्या इस काल अवधि में वे पेंड्रा रोड में रही हैं? क्या पेंड्रा रोड जाते समय जब उन्हें छ: घंटे बिलासपुर में रुकना पड़ा था उसी समय रूखमणी से मृणालिनी देवी का साक्षात्कार हुआ होगा ?

ये कुछ ऐसी बातें थी जो मुझे यह मानने के लिए उकसा रही थीं कि गुरुदेव निश्चित तौर पर अपनी चिरसंगिनी मृणालिनी देवी को लेकर बिलासपुर और पेंड्रा रोड आए थे।

‘फांकि’ कविता में वर्णित एक-एक शब्द मुझसे कह रह थे कि बीनू कोई और नहीं मृणालिनी देवी हैं। पर यह सब आप सभी सुधि जनों पर छोड़ता हूं इसका फैसला आप सब पर और मेरे जैसे जिज्ञासुओं पर छोड़ता हूं , जो भविष्य में इस पर गंभीरतापूर्वक शोध करेंगे तथा इस कविता के मर्म तक पहुंचने का प्रयत्न भी।

मैं एक अदना सा शोधार्थी

इसके सिवाय और कुछ नहीं।

गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर के छत्तीसगढ़ प्रवास पर जो कुछ भी लिख सका, उसके लिए मैं गुरुदेव को ही श्रेय देना चाहूंगा और गुरुदेव का मैं आजीवन ऋणी रहूंगा।

(बाकी अगले हफ्ते)

भारतेंदु हरिश्चंद्र के अनन्यतम सखा ठाकुर जगमोहन सिंह..

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