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तलाक के बाद, या उसके बिना, बेहतर समाज के लिए महिला आत्मनिर्भर हो..
01-Aug-2021 3:16 PM
तलाक के बाद, या उसके बिना, बेहतर समाज के लिए महिला आत्मनिर्भर हो..

सोशल मीडिया पर एक लाइन अभी पढऩे मिली कि एक दुख भरी शादी के मुकाबले बिना दुख वाला तलाक बेहतर होता है। बात एकदम खरी है और उन देशों या समाजों के लिए इसकी अधिक अहमियत है जहां पर तलाक को एक बदनाम शब्द माना जाता है। हम यहां पर ऐसे समाज के तलाक की चर्चा नहीं कर रहे जहां मर्दों को ही इसका आसान हक हासिल और औरतों को यह हक मानो मिला हुआ नहीं है, तमाम लोगों की बात कर रहे हैं, जहां पर तलाक देना दोनों के ही हक की बात होती है. वहां पर एक तकलीफ और यातना भरी हुई शादीशुदा जिंदगी को ढोने के बजाय उससे आजाद होकर अकेले होना और फिर आगे की अपनी जिंदगी को खुद तय करना किस तरह बेहतर होता है इसे समझने की जरूरत है।

हिंदुस्तान के बहुत बड़े हिस्से में जब शादी के बाद लडक़ी को घर से विदा किया जाता है तो उसे रवानगी के तोहफे की शक्ल में एक नसीहत दी जाती है कि डोली मां-बाप के घर से उठ रही है, अब अर्थी ससुराल से उठना चाहिए। इसे एक अच्छी महिला होने का पैमाना माना जाता है कि वह ससुराल में मर-खप जाए, तकलीफ की जिंदगी गुजार ले, या तनाव को बर्दाश्त कर ले, लेकिन उसे छोडक़र कभी ना निकले। बहुत से भाई इस बात के हिमायती अधिक दूर तक होंगे कि लडक़ी लौटकर मां बाप के घर कभी ना आए क्योंकि मां-बाप तो अपना वक्त गुजार कर रवानगी डाल देंगे, और उसके बाद लौटी हुई बहन भाइयों की ही जिम्मेदारी रह जाएगी। उसके बाद उस बहन के अगर बच्चे हुए तो उनकी भी जिम्मेदारी भाइयों के परिवार पर आएगी, और कानून की अगर बात करें तो लडक़ी मां-बाप की दौलत में बराबरी की हकदार भी होती है, इसलिए भी हो सकता है कि भाइयों में बहन के लौटने के नाम से ही दहशत होने लगे। ऐसे में हिंदुस्तान के अधिकतर समाज में लडक़ी से ससुराल की ज्यादतियां बर्दाश्त करने की उम्मीद की जाती है। चाहे वह यातना झेलते-झेलते मानसिक रोगी ही क्यों न हो जाये, वह खुदकुशी ही क्यों न कर ले, या उसकी दहेज हत्या ही क्यों ना हो जाए. आमतौर पर लडक़ी के मां-बाप, उसके भाई इसी कोशिश में लगे रहते हैं कि वह किसी तरह ससुराल में एडजस्ट हो जाए, वहां उसका तालमेल बैठ जाए।

लेकिन जब हम अपने आसपास के लोगों को देखते हैं और एक नजरी सर्वे सा करते हैं कि कौन सी लड़कियां ऐसी हैं जो तनाव को बाकी जिंदगी झेलने के बजाय, एक सीमा तक झेलने के बाद ससुराल और शादी के बंधन से निकलने की हिम्मत जुटा पाती हैं? ऐसा सोचने पर आसपास दिखता यह है कि या तो बहुत संपन्न परिवारों की ऐसी लड़कियां जिनके मां-बाप, भाई उनके साथ में खड़े हुए हैं, वे बाहर निकलने का हौसला जुटा पाती हैं, या फिर मजदूर तबके की ऐसी महिलाएं जिन्हें घर लौटने के बाद में एक कोठरी में अपनी कमाई पर जीने की हिम्मत रहती है, वह भी शादी को तोडक़र बाहर निकलने की हिम्मत दिखा पाती हैं। लेकिन इनसे परे तलाक के मामलों में बाकी महिलाओं का हौसला कुछ कम दिखाई पड़ता है, और केवल वही महिलाएं तलाक का हौसला कर पाती हैं, जो आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर रहती हैं. यह निष्कर्ष किसी सर्वे पर आधारित नहीं है केवल आसपास के मामलों को देखते हुए ऐसा लगता है कि आर्थिक रूप से संपन्न महिला यातना के सिलसिले को तोडऩे का हौसला जुटा पाती है। इसलिए यह बात बहुत मायने रखती है कि शादी के पहले ही हर लडक़ी को आर्थिक रूप से सक्षम और आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की जाए ताकि उसके मायके के लोग अगर उसका साथ न भी दें तो भी वह अपने दम पर जिंदा रह सके।

अपने दम पर जिंदा रह सके यह बात तो सोचने का मतलब किसी कोने से भी यह सुझाना नहीं है कि शादी के बाद लडक़ी को उसके मायके की संपत्ति में हिस्सा ना मिले या तलाक के बाद उसके पति और ससुराल से उसे बराबरी की एक जिंदगी जीने का इंतजाम ना मिले। हम इन दोनों इंतजामों के साथ-साथ यह बात सुझाना चाहते हैं कि हर लडक़ी को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाना उसके परिवार और समाज इन दोनों के लिए भी जरूरी है। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसी सरकारें जो कि गरीब लड़कियों की शादी में सरकार की तरफ से समारोह का इंतजाम करती हैं, और घर बसाने के लिए कुछ सामानों का तोहफा भी देती हैं, उन्हें ऐसे लुभावने रस्म-रिवाज का जिम्मा उठाने के बजाय महिलाओं की आत्मनिर्भरता के बारे में कुछ अधिक सोचना चाहिए, और करना चाहिए। सोचने की जरूरत है कि किसी वजह से कोई लडक़ी या महिला अकेले रह जाए, तो उसकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिए सरकार क्या कर सकती है?

हिंदुस्तान के ही केरल जैसे प्रदेश को देखें तो वहां ना केवल पढ़ाई-लिखाई बल्कि कई किस्म की पेशेवर ट्रेनिंग का ऐसा इंतजाम है कि केरल के कोई भी व्यक्ति बेरोजगार नहीं रह जाते। पूरे हिंदुस्तान में मेडिकल ढांचे में जितने किस्म के तकनीकी काम रहते हैं, उनमें केरल से निकले हुए लोग बड़ी संख्या में दिखते हैं। उनके अलावा अंग्रेजी का डिक्टेशन लेने या अंग्रेजी टाइप करने जैसे कामों के लिए भी केरल के लोग बहुत दिखते हैं। फिर बड़ी-बड़ी मशीनों को चलाने में दिखते हैं, उनकी मरम्मत में दिखते हैं। जहां पर पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ हुनर सिखाने का इंतजाम भी होता है, वहां सभी लोग आत्मनिर्भर हो जाते हैं। हमारा यह मानना है कि एक आत्मनिर्भर समाज ही आत्मसम्मान से भरा हुआ समाज हो सकता है, और ऐसा ही समाज यातनामुक्त भी हो सकता है, क्योंकि वहां लोग मजबूरी के संबंधों को ढोने के बजाय बाहर निकलकर अपने दम पर जीने की एक संभावना तो देखते ही हैं।

हिंदुस्तान में शादी को लेकर जितने किस्म का पाखंड प्रचलन में है, वह बताता है कि कन्या का दान किया जाता है। हिंदू शादी में इस्तेमाल होने वाला यह शब्द मानो लडक़ी का दर्जा जिंदगी भर के लिए तय कर देता है कि वह दान में दी जाने वाली एक चीज है। और जिसे दान में कोई सामान मिलता है, उसे उस सामान का अधिक महत्व तो कभी समझ में आता भी नहीं है। इसके साथ-साथ हिंदू समाज में पति के जितने प्रतीकों को सुहाग के प्रतीकों के नाम पर एक महिला पर लाद दिया जाता है, उससे भी वह एक आश्रित का दर्जा पा लेती है, और उसका आत्मविश्वास, उसकी आत्मनिर्भरता इन सब को अच्छी तरह कुचल दिया जाता है। फिर समाज की मान्यताएं भी रहती हैं कि औरत के सुहागिन होकर मरने को उसकी किस्मत की बात माना जाता है। मतलब यह कि औरत अपने पति की मरते तक सेवा करें और उसके मरने के साथ ही उसके प्रतीकों को उतार हिंदुस्तान में शादी को लेकर जितने किस्म का पाखंड प्रचलन में है कामा वह बताता है की कन्या का दान किया जाता है। हिंदू शादी में इस्तेमाल होने वाला यह शब्द मानव लडक़ी का दर्जा जिंदगी भर के लिए तय कर देता है कि वह दान में दी जाने वाली एक चीज है। और जिसे दान में कोई सामान मिलता है उसे उस सामान का अधिक महत्व तो कभी समझ में आता भी नहीं है। इसके साथ साथ हिंदू समाज में पति के जितने प्रतीकों को सुहाग के प्रतीकों के नाम पर एक महिला पर ला दिया जाता है उससे भी वह एक आश्रित का दर्जा पा लेती है और उसका आत्मविश्वास उसकी आत्मनिर्भरता इन सब को अच्छी तरह कुचल दिया जाता है। फिर समाज की मान्यताएं सी रहती हैं की औरत के सुहागिन होकर मरने को उसकी किस्मत की बात मानी जाती है। मतलब यह की औरत अपने पति कि मरते तक सेवा करें और उसके मरने के साथ है ही उसके प्रतीकों को उतार दे, तोड़ दे, और पोंछ दे।

एक महिला के दिमाग में यह बैठा दिया जाता है कि शादी सात जन्मों का संबंध रहता है। इसलिए वह एक जन्म के बाद भी इस बंधन से आजाद होने की नहीं सोच पाती। ऐसी मानसिकता के बीच जरा भी हैरानी की बात नहीं रहती कि कोई महिला पूरी जिंदगी शादीशुदा जिंदगी की यातनाओं को ढोते हुए मर-खप जाती है, और शायद ही कभी अपने मां-बाप के घर पर दोबारा अपना हक पाने के लिए लौट पाती है। आर्थिक आत्मनिर्भरता से परे एक लडक़ी के सामाजिक और पारिवारिक का हक पर भी खुलकर बात होनी चाहिए और इस सोच को जगह-जगह कुचलना चाहिए कि मां-बाप के घर से बस डोली ही निकलती है, और अर्थी तो ससुराल से ही निकलेगी।

हिंदुस्तान के कानून में लडक़ी को मां-बाप की दौलत पर बराबरी का हक दिया गया है, और शादी के खर्च या दहेज को इस हक का विकल्प मान लेना नाजायज बात तो होगी। यह समझने की जरूरत है कि समाज में प्रचलित इस धारणा को भी जगह-जगह धिक्कारना चाहिए कि दहेज के साथ लडक़ी का हक देना पूरा हो जाता है। मां-बाप लडक़ी की शादी पर खर्च अपनी शान शौकत के लिए करते हैं। और दहेज लेना-देना तो वैसे भी जुर्म के दर्जे में आता है और इस सिलसिले को खत्म करना जरूरी है। कोरोना और लॉकडाउन के पूरे दौर में शादियों में 25-50 लोगों का ही बंधन रहा, और वैसे में भी लोगों ने शादियां कर दीं, समारोह कर दिए।

इसलिए अब एक कानून बनाकर प्रदेश सरकारों को भी अतिथि नियंत्रण लागू करना चाहिए ताकि लड़कियों के मां-बाप पर दिखावे की शान-शौकत का जलसा करने का बोझ भी ना रहे। ऐसा करके कानून एक ऐसा माहौल खड़ा करने में मदद कर सकता है जिसमें लड़कियों के नाम पर खर्च दिखाने के लिए शानशौकत की दावत दर्ज कर ली जाए, जिनसे उस लडक़ी को अपनी किसी मुसीबत के वक्त कोई मदद तो मिलती नहीं है। इसलिए लडक़ी के हक और उसकी आत्मनिर्भरता के मुद्दे पर समाज में व्यापक चर्चा जरूरी है, अलग-अलग कई मंचों पर इस मुद्दे पर बात होनी चाहिए, और ऐसी बात जब अधिक होती है तो वह नीचे तक भी उतरती है. सामाजिक मंचों को ऐसी बहस छेडऩी चाहिए ताकि लोगों के दिल-दिमाग में बैठे हुए पुराने ख्यालात निकल भी सकें, और नई कानूनी बातें घुस भी सकें।

हिंदुस्तान जैसे समाज में लडक़ी और महिला की आर्थिक आत्मनिर्भरता को उनके बुनियादी मानवाधिकार मानना चाहिए। और उनकी ऐसी आत्मनिर्भरता उनके बच्चों की परवरिश के लिए भी एक बेहतर नौबत रहती है, जब बच्चे रिश्तेदारों से किसी मदद के मोहताज नहीं रहते, और अपनी मां की कमाई पर अच्छे से जिंदा रह सकते हैं. ऐसा समाज ही एक बेहतर समाज भी बन सकता है जिसमें एक महिला आर्थिक रूप से पूरी तरह आत्मनिर्भर हो, और आत्मविश्वास से भरी हुई हो।

(क्लिक करें : सुनील कुमार के ब्लॉग का हॉट लिंक)

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